Saturday, April 19, 2014

महायज्ञ



साल 1930। जवाहर लाल नेहरू लाहौर में रावी के तट पर भारत का झंडा फहरा चुके थे। कांग्रेस पूर्ण स्वराज की घोषणा कर चुकी थी। साहब सुबह सवेरे अपने घर के दालान में बैठे थे। सामने मेज पर एक खाकी टोपी और कुछ अखबार।  गहरी चिंता में लगते थे। खाकी वर्दी, घुटनों तक चढ़ते बूट और उस पर रोबदार मूंछे। साहब अंग्रेजी सियासत में दरोगा थे और इसका पता भी चलता था। बाजू में कुर्सी पर श्री बृजेश कुमार बैठे थे। लेखक थे, नेशनलिस्ट भी। कई पत्र पत्रिकाओं में अंग्रेजी सियासत के खिलाफ आये दिन छपते रहते थे और इस वजह से कई बार जेल की हवा भी खा चुके थे, पर लिखना उन्होंने कभी बंद नहीं किया। समाज में इज्जतदार थे। ये हिंदुस्तान के इतिहास का वो दौर था कि जब कोई अंग्रेजों की खिलाफत में जेल जाता था तो समाजियों में उसकी इज्जत बढ़ जाती थी। जितने ज्यादा दिन अंदर रहता, बाहर इज्जत भी उसी अनुपात में अनवरत बढ़ती रहती। वैसे बृजेश कुमार एक दलित परिवार से थे और समाज में दलितों के खिलाफ सवर्णों के शोषण पर भी लिखते थे।  इसीलिए तो साहब के बराबरी में कुर्सी पर बैठे थे वरना किसी आम दलित की इतनी हिम्मत कहाँ कि जूता पहन के दालान के अंदर भी घुस जाए। अभी कुछ ही समय हुए इस कस्बे में आये थे और यहीं साहब के सरकारी आवास के सामने एक किराए के कमरें में रहते थे। अक्सर ही साहब के यहाँ आना जाना लगा रहता था। वैसे साहब को यह बृजेश कुमार फूटी आँख नहीं सुहाता था - एक तो दलित ऊपर से नेशनलिस्ट। साहब की तो रग-रग में महारानी की वफादारी दौड़ती थी। शास्त्रों में भी लिखा है कि अपने अन्नदाता से गद्दारी सबसे बड़ा पाप है, हालांकि पाप-पुण्य से ज़्यादा साहब को अपनी रसूख से सरोकार था। पाप-पुण्य तो महज़ एक तर्क है जो इंसान अपनी नीचता को ढकने के लिए कहीं से भी खोज ही लेता है। शायद यह एक ऐसी बात हो जो किसी भी दौर में एक-सी रहे। बाजू में रामलाल खड़ा था जो साहब के नीचे सिपाही हुआ था, उन्हीं की सिफारिश पे, और इसलिए साहब के लिए वफादारी भी और सिपाहियों से थोड़ी ज्यादा थी। घर के भीतर थीं श्रीमती निर्मला देवी, साहब की धर्म-पत्नी। बाँझ थीं और शायद इसीलिए प्रताड़ना की अधिकारी भी जो कि उन्हें साहब से बराबर मिलती भी थी।


इसी बीच निर्मला देवी का दरवाजे से आगमन। चेहरा पूरी तरह घूंघट के भीतर, हाथों में चाय की ट्रे। रामलाल ने लपक के चाय की ट्रे उनके हाथों से ली और साहब के सामने मेज पे रख दी। निर्मला देवी दालान में लगे पौधों से तरकारी चुनने आगे बढ़ गयीं। साहब ने ट्रे से चाय का प्याला उठाया, एक सुड़की ली और द्रुत गति से उठ पर दरवाजे को लौटती निर्मला देवी की तरफ अपना रुख़ किया। किसी की परवाह किये बगैर सबके सामने निर्मला देवी के चेहरे पर अपने हाथ से एक ज़ोरदार  प्रहार कर दिया। हाथ एक दरोगा का था। निर्मला देवी किसी सूखे पत्ते सी ज़मीन पर गिर गयीं। सिर का पल्लू भी गिर गया और आँचल की तरकारी भी। शायद चाय ठंडी हो गयी हो या शायद शक्कर कम रह गयी हो। साहब तुरंत पलट कर अपनी खाकी टोपी उठा कर ड्यूटी पर चल दिए। पीछे-पीछे रामलाल भी दौड़ा। बृजेश कुमार कुर्सी पर बैठे के बैठे रह गए। क्या प्रतिक्रिया दें कुछ नहीं सूझता था। घरेलू हिंसा के बारे में काफी सुना था लेकिन इस तरह किसी रसूखदार दरोगा के दालान में इसकी उम्मीद न थी। खुद को थोड़ा सम्भाल कर उठे और ज़मीन पर पड़ी निर्मला देवी की तरफ बढे। निर्मला देवी के सिर से खून बह रहा था। क्यारी की ईंट से सिर टकरा गया लगता था। हाथ पकड़ कर सहारा देते हुए कुर्सी पर बैठाया। निर्मला देवी की आँखों में शर्मिंदगी थी।पराये लोगों के सामने साहब ने हाथ उठा दिया। सब क्या सोचते होंगे मेरे बारे में। बृजेश कुमार ने अपने कुर्ते की जेब से रुमाल निकाल के निर्मला देवी के सिर की तरफ बढ़ाया। निर्मला देवी और भी ज़यादा असहज हो गयीं। बृजेश कुमार के हाथ से रुमाल ले कर खुद ही अपनी चोट पर रख लिया। चेहरे का घूंघट कब ही का हट चुका था। बृजेश कुमार भी बाजू वाली कुर्सी पर बैठ गए। 

"मुझे अफ़सोस है जो हुआ" - बृजेश कुमार चुप्पी तोड़ते हुए बोले 

"अपने अफ़सोस को यूं ज़ाया न कीजिये"

"ऐसा क्यों कहतीं हैं ?"

निर्मला देवी बात बदलतीं हुईं बोलीं - "आपके रुमाल पे दाग़ आ गया।"

"रुमाल की फिक्र ना कीजिये, मेरे पास दो और भी हैं।"

निर्मला देवी कुछ ना बोलीं। 

"चोट ग़हरी लगती है। मैं मरहम ले के आता हूँ।" - थोड़ी चुप्पी के बाद बृजेश कुमार बोले 

"ये चोट मरहम से ठीक न होगी"

"जो मरहम चोट ठीक न कर सके तो मरहम काहेका"

"कुछ चोट नसीब की होती है। इसमें मरहम का कोई दोष नहीं।"

"माफ़ कीजियेगा, पर अपना नसीब हम खुद चुनते हैं।"

"कहना आसान है, करना मुश्किल।"

"मैं ये नहीं कहता कि करना आसान है। पर आसान रास्ते चुनकर नसीब को दोष देना भी तो ठीक नहीं। "

"मेरी जगह होते तो समझते। "

"मैं आप ही की जगह हूँ।"

"वो कैसे?"

"एक दलित हूँ और दलितों की सवर्णों के बीच क्या स्थिति होती है ये तो आपको बताने की ज़रुरत नहीं है। पर मैंने शोषण को कभी अपना नसीब नहीं समझा, उसका विरोध किया और आज समाज मुझे अपने सम्मान से जीने अधिकार से अलग नहीं कर सकता।" 

"आप पुरुष हैं ना। औरत की मजबूरी नहीं समझेंगे।"

"जब तक आप ये सोचती रहेंगी कि किसी काम को क्यूँ ना किया जाए, तब तक आप उसे कर भी नहीं पाएंगी। अपने आप को इन बेतुके तर्कों से बचाएं।" बृजेश कुमार ने मेज पे रखे अखबारों में से एक अपने हाथ में उठाते हुए कहा - "ये देखिये पहले पृष्ठ पे किसकी तस्वीर छपी है?"


"कौन हैं ये ?"

"ये सरोजिनी नायडू हैं। गांधी जी की दांडी यात्रा में कदम से कदम मिला कर चलती हुईं। औरत चाहे तो कुछ भी कर सकती है। अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाना आना चाहिए बस।"

निर्मला देवी की नज़रें अखबार में बने चित्र को देखने लगीं। मन किसी गहरी सोच में डूब गया लगता था और उसका प्रतिबिम्ब उनके चेहरे पे बदलते भावों में झलक रहा था। बृजेश कुमार उन तैरते हुए बदलावों को देख रहे थे। सहसा निर्मला देवी का ध्यान बृजेश कुमार की ओर गया। उनको अपनी तरफ यूं ग़ौर से देखते हुए असहज हो उठीं।

"चलिए मैं चलती हूँ। खाने की तैयारी करनी है। आपका रूमाल मैं धो कर भिजवा दूंगी।"

"ठीक है, मैं भी चलता हूँ।"

बृजेश कुमार नमस्ते की मुद्रा में उठे और मुख्य द्वार की ओर प्रस्थान करने लगे। निर्मला देवी उन्हें जाते हुए देखती रहीं। उनके जाने के बाद भी एक बार फिर अखबार के उस चित्र को देखने लगीं।

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निर्मला देवी अपने कक्ष में आईने के सामने बैठी थीं। श्रृंगार मेज पर रखा था वही अखबार। सरोजिनी नायडू के उस चित्र को देखतीं फिर आईने में अपने अक्स को। क्या हर औरत के भीतर कोई सरोजिनी नायडू हो सकती है? क्या मेरे भीतर भी है? जाने क्या सोच कर उठीं और उस खोली की तरफ चल दीं जहाँ पुराने अखबारों के ढेर रखे रहते थे। उस ढेर से एक अखबार निकाला। चित्रों में कुछ ढूंढने लगीं। एक चित्र दिखा। पुलिस क्रांतिकारियों पर लाठी चार्ज करती हुई और औरतें घायल क्रांतिकारियों की मरहम पट्टी करती हुईं। शायद बृजेश बाबू सही कहते हैं। ज़माना बदल गया है। औरतें क्रांतिकारियों के साथ कदम से कदम मिला कर भी चल सकती हैं। सरोजिनी नायडू अकेली नहीं हैं, उनका साथ न जाने कितनी ही औरतें दे रहीं हैं। औरत चाहे तो कुछ भी कर सकती है। चित्र पर दुबारा गौर किया। पुलिस अधिकारी के चेहरे पर रौब, बिलकुल साहब जैसा। मन अचानक सिहर उठा। अखबारों को फिर से जमा दिया और खोली से बहार आ गयीं और चल दीं घर के पीछे की तरफ जहां कपड़े सूखने डले थे। रस्सी से बृजेश कुमार का रूमाल उठा भीतर ले आयीं।

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अगले दिन साहब के ड्यूटी पर जाने के बाद माली से बृजेश कुमार को संदेसा भिजवाया। ज़रा सामने वाले बृजेश बाबू से कहना कि मैंने बुलाया है। माली बृजेश कुमार के घर की तरफ चल दिया। घर का दरवाज़ा खटखटाया। दरवाज़ा खुला। घर क्या छोटा सा कमरा था। एक कोने में खाना बनाने का कुछ सामान। चूल्हा शायद घर के पीछे की तरफ हो। ज़मीन पर ही कोने में एक चटाई पर बिछौना लगा था। हर तरफ कागज़ ही कागज़।अलमारी खुली हुई और सारे कपड़ों का एक ढेर ज़मीन पे। माली ये दृश्य देख पहले तो थोड़ा चौंका। फिर बोला - "जी मैं वो सामने दरोगा साहब के यहाँ से आया हूँ। मेम साब ने बुलवाया है।"

"ठीक है आता हूँ अभी"

माली वापस चल दिया। निर्मला देवी जैसे माली के आने की ही राह तक रहीं थीं। चेहरे के भाव छुपाते हुए बोलीं - "बोल के आया?"

"अभी थोड़ी देर से आ रहे हैं।"

"कितनी देर से? कुछ कहा?"

"नहीं बस कहा कि अभी आता हूँ "

"क्या कर रहे थे बृजेश बाबू?"

"पता नहीं घर समेट रहे थे या बिखेर रहे थे। पूरा सामान कमरे में अस्त-व्यस्त। शायद छोड़ कर जा रहे हों यहाँ से"

निर्मला देवी का मन धक से हो आया। छोड़ के जा रहे हैं? क्यों? कहाँ? कब?

निर्मला देवी सोच में डूबी ही थीं कि सामने मुख्य द्वार से बृजेश कुमार का प्रवेश।

निर्मला देवी बगैर किसी तक़ल्लुफ के बोल पड़ीं - "कहाँ जा रहे हैं ?"

"आप से किसने कहा कि मैं कहीं जा रहा हूँ।"

"माली कह रहा था कि आप कहीं जाने के लिए सामान जमा रहे थे।"

"वो.. हाँ.. गांधी जी दांडी के लिए निकल पड़े हैं। लोग कह रहे थे कि इसके बाद अंग्रेजी सामानों की होली जलाएंगे, तो मैं भी अपने सारी अंग्रेज़ी वस्तुएं अलग कर रहा था। कल जब यात्रा हमारे यहाँ से निकलेगी मैं भी सोच रहा हूँ उसी क़ाफ़िले के साथ हो लूं।"

"माली बता रहा था कि गांधी जी कहते हैं कि कोई एक गाल पे मारे तो दूसरा आगे कर दो। ये क्या बात हुई? ऐसे तो मिल चुकी आज़ादी।"

"गांधी जी ये ज़रूर कहते हैं कि दूसरा गाल आगे कर दो लेकिन कभी विरोध छोड़ने को नहीं कहते। अभी भी वो नमक क़ानून तोड़ने दांडी जा रहे हैं। कोई उन पर लाठी चलाये तो वो पलट के वार नहीं करेंगे पर दांडी के रास्ते से एक क़दम भी नहीं हटाएंगे।"

"आप गांधी जी के बड़े भक्त लगते हैं।"

"बस अंग्रेजों से इस देश को मुक्ति मिल जाए, और मुझे क्या चाहिए?"

"साहब भी क्रांतिकारियों को लाठियों से मारे हैं?"

"सच कहूँ तो.. हाँ। हमारी सबसे बड़ी कमज़ोरी हमारे ये अपने ही लोग हैं।"

"ये तो देश से गद्दारी हुई।"

"हुई तो"

"गद्दारों के लिए भी हिंसा नहीं?"

"नहीं। किसी के लिए भी नहीं। गांधी जी कहते हैं कि हिंसा अच्छे प्रयोजन के लिए भी की जाए तो भी वो अच्छाई क्षणिक ही होती है पर हिंसा का रास्ता हमेशा के लिए एक आदर्श बन जाता है। कालान्तर में लोग अच्छाई और बुराई को अपने अपने नज़रिये से देखेंगे। हिंसा को आदर्श मान लेने पर समाज में एक ऐसी अराजकता फैलेगी जो किसी के क़ाबू किये नहीं थमेगी।"

"आपके सारे तर्क हमारी समझ में तो नहीं आते पर लगता है कि कुछ अच्छा ही होगा। आप यहाँ से चले जायेंगे?"

"सोच तो कुछ ऐसा ही रहा हूँ।"

"और हम?"

बृजेश कुमार अचानक चौंक गए। निर्मला देवी भी खुद को मन ही मन कोसने लगी। हाय ये मैं क्या कह गयी? ये जुबां भी न जाने कब कहाँ बेतकल्लुफी में कैसे फिसल जाए। दिमाग में एक चुभन सी होने लगी और उस पर अचानक पसरी ये दम घोंटू खामोशी। बृजेश कुमार खामोशी तोड़ते हुए बोले - "माली कह रहा था कि आपको कुछ काम था।"

"जी बस आपका रूमाल लौटाना था" - निर्मला देवी रूमाल बृजेश कुमार की ओर बढ़ाती हुई बोलीं।

रूमाल लेते बृजेश कुमार हुए बोले - "तो मैं चलूँ।"

"चाय लेंगे?"

"नहीं बस इजाज़त दीजिये"

"फिर कब आयेंगे?"

"जब आप बुलावा भेजें।"

"आप तो मोर्चे के साथ चले जायेंगे फिर हम कैसे बुलावा भेजेंगे? आपको एक बात बताएं, कल एक लम्हा ख़याल आया था कि काश हम भी सरोजिनी नायडू जी का साथ देने को निकल पड़ें। जो कहीं साहब लाठी चार्ज कर दे मोर्चे पर तो हम भी क्रांतिकारियों की मरहम पट्टी करें। अपने होने का शायद कोई अर्थ निकल आये।"

"ख़याल तो बहुत नेक है। बहुत सी महिलाएं अपने पतियों के साथ इस क्रांति में चल पडी हैं और बहुत सी अपने घरबार को छोड़ कर। "

"हमें ले चलेंगे अपने साथ।"

"मैं तो इस देश के हर व्यक्ति को इस आंदोलन में जोड़ना चाहता हूँ। चाहे वो आदमी हो या औरत। कल हमारे यहाँ से दांडी यात्रा गुज़रेगी। बहुत से लोग उस यात्रा में गांधी जी के साथ हो लेंगे। हम लोग भी हो लेंगे।"

"मैं आपकी आभारी हूँ" - कहते हुए निर्मला देवी की आँखों से आंसू छलक उठे।

बृजेश कुमार ने रूमाल दुबारा निर्मला देवी की तरफ बढ़ाते हुए कहा - "इस रूमाल को अब आप ही रख लें।"

निर्मला देवी के चेहरे पर रोते रोते भी एक मुस्कराहट तैर उठी। मन का ताप उतर रहा था।

अचानक मुख्य द्वार से रामलाल का प्रवेश। रामलाल को देख कर जैसे निर्मला देवी को सांप सूंघ गया हो। हड़बड़ाते हुए बोलीं - "बृजेश बाबू, आप अब जाइये यहाँ से।"

बृजेश कुमार बोले - "कल सुबह मैं आपको लिवाने आउंगा।"

बृजेश कुमार के ये शब्द रामलाल के कानों तक भी पहुंचे। निर्मला देवी का दिल तेज़ी से धड़कने लगा। अब क्या होगा? रामलाल कहीं साहब से न कह दे। इस क़ैद से मुक्ति के लिए एक किरन नज़र आयी थी वो भी अब धुंधलाने लगी थी। कहीं बृजेश बाबू को कुछ हो न जाए। हे भगवान् रक्षा करना। आँखें मुंद गयीं और हाथ जुड़ गए। होंठ कुछ बुदबुदाने लगे। किसी मनोकामना का हवन और उसमें अश्रुओं की आहुति।

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अगली सुबह। साहब ड्यूटी के लिए तैयार। बाहर बहुत से सिपाही और हवलदार भी खड़े थे। आज गांधी जी की यात्रा आनी थी। साहब चिंता में दीखते थे। निर्मला देवी साहब के जाने की प्रतीक्षा कर रहीं थीं। ये ड्यूटी पे निकले और मैं आज़ाद। सरोजिनी नायडू का चित्र अखबार से काट कर अपने सामान में रख लिया था। साहब ने रामलाल की तरफ देखा। रामलाल ने अपना सिर हिलाया, जैसे इशारों इशारों में कह रहा हो कि काम हो गया। साहब के होंठों पे तिरछी मुस्कान, जैसे मन ही मन अभी किसी की खिल्ली उड़ाई हो। दरवाज़े के परदे से झांकती निर्मला देवी ये मौन संवाद देख कर सिहर उठीं। कहीं कुछ शैतानी हुआ लगता था। दिल ज़ोरो से धड़क रहा था। मन में दुःख, संताप, उम्मीद और पश्चाताप के भाव एक साथ उमड़ रहे थे। तभी देखा कि साहब मुख्य द्वार से जा चुके थे और सभी सिपाही भी। निर्मला देवी निकलीं और दौड़ती हुईं सामने के मुख्य द्वार से होतीं हुईं बृजेश कुमार के घर की तरफ दौड़ पड़ीं। घर का दरवाज़ा खुला था। निर्मला देवी घर के भीतर पहुंच गयीं। घर में कुल एक ही कमरा था। बृजेश बाबू वहाँ नहीं थे। एक झोला रखा था जिसमें शायद जाने का सामान रखा हो। निर्मला देवी से रहा नहीं गया। झोले को टटोला। एक डायरी निकली। डायरी के पन्ने पलटने पर एक तह किया कागज़ नीचे फर्श पर टपका। कागज़ को खोला। कुछ लिख के काटा गया था। कटे हुए अक्षरों को गौर से देखा, लिखा था - "निर्मला"। निर्मला देवी वहीं बैठ गयीं। सामान तो यहीं है फिर वो यात्रा में शामिल होने तो नहीं गए। कहीं और गए तो दरवाज़ा खुला क्यों? ताला क्यूँ नहीं? कुछ तो ग़लत है। सहसा एक पड़ोसी दरवाज़े पर आया। निर्मला देवी अपने आंसू पोछते हुए बोलीं - "बृजेश बाबू कहाँ हैं?"

"कल रात को पुलिस के दो आदमी आये थे और उन्हें ले गए।"

"कहाँ?"

आदमी कुछ न बोला।

"भगवान के लिए बता दीजिये कहाँ?"

"पास वाले गाँव के एक कुंए में उनकी लाश मिली है। उनके घर वालों को पुलिस इत्तेला कर रही है।"

निर्मला देवी की आँखों के सामने पूरी ज़मीन हिलने लगी। लग रहा था आसमान और ज़मीन के बीच कहीं लटका हुआ था बृजेश बाबू का कमरा।

"क्या हुआ ऐसी अहिंसा से?" निर्मला देवी ज़ोर से चीखीं।


तभी कहीं दूर से ढोल मंजीरों की आवाज़ कानों में आयी। दांडी यात्रा शहर में पहुँच चुकी थी। उन आवाज़ों में लगा कि बृजेश बाबू के शब्द हवा में तैर रहे हैं - "अपना नसीब हम खुद चुनते हैं। चाहे कितनी भी मुश्किल आ जाए विरोध नहीं छोड़ेंगे। बस अंग्रेजों से इस देश को मुक्ति मिल जाए, और मुझे क्या चाहिए?" मंजीरों की आवाज़ नज़दीक आ रही थी। निर्मला देवी ने कमरा एक बार फिर से देखा। कोने में एक पोटला पड़ा था। खोल के देखा। कुछ कपडे थे। वे कपडे जो ये क्रांतिकारी इंक़लाब के इस यज्ञ में स्वाहा करना चाहता था। निर्मला देवी ने एक बार फिर बृजेश बाबू के उसी रुमाल  से अपने आंसू पोछे और उस पोटले को कंधे पर उठा चल पड़ीं मंजीरों की आवाज़ की दिशा में। महायज्ञ में एक और क्रांतिकारी जन्म ले चुका था। ज़ुल्म के बंधनों को तोड़ कर आज़ादी भविष्य के मंजीरों की तरफ कदम बढ़ा रही थी। अगले ही दिन गांधी जी ने भी दांडी में नमक का कानून तोड़ दिया।


4 comments:

  1. कहानी है या सच की कथा यह नहीं मालूम लेकिन बहुत सुन्दर लिखी है.

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  2. कल 04/05/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

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  3. तभी ऐसी शुरुआत हो जाती तो कितना अच्छा रहता !

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