Friday, June 6, 2014

'बिस्कुट'


जेठ का महीना था। पहाड़ों पर बर्फ़ पिघलने लगी थी। सत्तू एक टिमटिमाती बत्तियों और चकरियों वाली वज़न मापने की मशीन के स्टैंड पर बैठा था। नज़रें सामने लगे टी-स्टॉल के स्टोव की लौ से होते हुए किसी शून्य को जा रहीं थीं। मुड़े हुए घुटने और उन पर मुड़े हुए हाथ - किसी बेजान बुत सा बैठा था। ये धरासू का बस स्टैंड था। धरासू उत्तराखंड में ऋषिकेश से तक़रीबन दो सौ किलोमीटर की दूरी पर एक कसबा है। 


थोड़ी देर वहाँ बैठने के बाद सत्तू उठा और साइकिल स्टैंड से अपनी साइकिल निकाल कर चल पड़ा। थोड़ी ही देर में उसकी साइकिल बस स्टैंड के इलाक़े से बाहर निकल कर एक पगडंडी पर रेंगने लगी। धरासू चारों तरफ पहाड़ों से घिरा था। हर तरफ़ हरियाली और प्रकृति के चमत्कार। झरने, पेड़, इंद्र का धनुष और बारिश। वो साइकिल से उतर कर उसे घसीटता हुआ चढ़ाई चढ़ने लगा। पहाड़ी इलाक़ों ये सबसे बड़ा कष्ट है - जहाँ तक ढलान हो आराम से चलो पर चढ़ाई आते ही कसरत शुरू। वहाँ ऊंचे टीले पर एक मंदिर है। पुजारी भी वहीं बाजू में एक कुटिया बना के रहता है। कोई कहता है कि ये मंदिर ज़मीन क़ब्ज़िआने का तरीक़ा है। पर सत्तू को क्या। वहाँ पहुँच कर साइकिल एक पेड़ से टिका दी और मंदिर पे बने शेड में सुस्ताने लगा। पहाड़ों की चढ़ाई वाक़ई थकान भरी होती है। 

"क्या हुआ ? " - पुजारी ने पूछा। 

"कुछ नहीं" - सत्तू बोला - "बस ऐसे ही"

"आज इस समय ?"

"काम में मन नहीं लग रहा था। वैसे भी जेठ के महीने में बारिस आये तो राहगीर कहाँ से आयें ?"

"सो तो है। तुम्हारी बच्ची कैसी है ? का बोला डाक्टर ?"

"बोला कि कोई बड़ी बीमारी है। ये सुसरी बीमारियां भी गरीबों की ही दुस्मन हैं। अमीर आदमी तो इलाज करा लेवे, गरीब कहाँ को जाए ? बस भोले बाबा की ही सरन है, जो न कराये सो है।"

"चिंता न करो। भोला बाबा जरूर कुछ करेगा। ये लो आगी लगाओ।" - पुजारी बाबा माचिस आगे बढ़ाते हुए बोला। 

सत्तू माचिस जलाता है। बाबा चिलम सुलगाता है। चिलम सुर्ख़ लाल हो कर जलने लगती है जैसे किसी माणिक के अंदर कोई जुगनू बंद हो। अभी चिलम टूटे और जुगनू उड़ जाए।  कुछ देर बाद सत्तू को गांजा असर करने लगता है। सत्तू वहीँ शेड में पड़े-पड़े सो जाता है। 

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"उठो! उठो! देखो बाहर प्रलय आ गया।" - पुजारी की आवाज़ से सत्तू जागता है। "बाहर ऐसी बारिश आयी कि सब बह गया।"

"कौन बताया ?"

"मुन्ना आया था। तुम्हारी महरिया तुम्हें ढूंढ रही थी जो तुम बस स्टैंड पे नहीं थे। बता रहा था कि केदारनाथ में भोले बाबा को छोड़ कर सब कुछ बह गया। हज्जारों-हज्जार आदमी, बच्चा, बूढ़ा, औरतियां सब बह गए। प्रलय आ गया रे प्रलय आ गया।"

"अब ?"

"अब का ? सुने हैं सेना आ रही है बचाने को।"

"किसको ?"

"अबे बुड़बक ! जो बच गए हैं उनको और किसको। सुने हैं यहीं धरासू में कैम्प लगेगा।"

"अच्छा !!"

"हां। चलो तुम घर जाओ, सब चिंता करते होंगे।"

सत्तू अपनी साइकिल ले कर ढलान पर लुढ़कता हुआ घर की ओर चल पड़ता है। 


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"सुनो ! मुन्ना आया है। कहता है कि कैंप लगा है। मदद के वास्ते लोकल की पब्लिक को बुलाया है।"

"कौन बुलाया है ?"

"वो सब हमें नहीं पता। मुन्ना बाहर खड़ा है, खुदई पूछ लो।"

सत्तू बाहर आता है। 

"अबे सुना है कैंप लगा है।"

"तो ?"

"तो चल चलते हैं। पांच-पांच रुपिया का बिस्कुट चार-चार सौ में बिक रहा है।"

"अच्छा !!"

सत्तू सोच में पड़ जाता है - "बिटिया के इलाज को चाहिए बीस हजार। अगर पचास पैकिट बिक गए तो इलाज का खर्च पूरा। और लागत सिर्फ़ अढ़ाई सौ रूपया। वाह ! भोला बाबा बड़ा दयालु है।"


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सत्तू कैंप के पास पहुँचता है। सेना के जवान भी हैं और पब्लिक भी। 

"इन्हीं को बचा के लाये हैं" - सत्तू सोचता है। 

औरतें बच्चे रो रहे हैं। आदमियों की आँखों में भी दहशत है। आँखों से पता लगता है कि साक्षात मौत देख कर आये हैं। महाकाल के दरसन खातिर गए थे तांडव देख कर आये हैं। बच्चे भूख से बिलख रहे हैं। लड़के लोकल वालों को आँखों देखा हाल सुना रहे हैं - "हर तरफ पानी ही पानी ! लगता था पूरा हिमालय पिघल गया। चारों और लाशें ही लाशें। जो बचे थे वो लाशों के ऊपर सो कर रात गुज़ारे। कुछ बच्चे तो भीग के निमोनिया से मर गए।"

"अंकल ! भूख लगी है" - एक चार-पांच साल की बच्ची ने सत्तू का हाथ हिलाकर बोला। सत्तू का ध्यान टूटता है। 

"तुम्हारे माँ-बाप कहाँ हैं ?"

"पता नहीं"

"पैसे हैं ?"

"पैसे ?"

बच्ची के पूछने के तरीक़े से सत्तू समझ गया कि इसके पास पैसे नहीं हैं। 

अब इसे बिस्कुट दे दूं तो अपनी बच्ची को कैसे बचाऊँ ? इसके तो माँ-बाप बह चले, मैं भी अपनी बच्ची खो दूं क्या?

"बगैर पैसे के ना दूंगा" - सत्तू बोला। 

बच्ची आगे चल दी। शायद किसी और से खाने के लिए पूछने को। 

मैं क्यों दूँ ? मैं ना दूंगा। कोई-ना-कोई तो दे ही देगा। और जो कोई ना देगा तो सेना वाले तो देंगे ही। मैंने थोड़े ही कहा था कि यहाँ आओ। फिर मेरी कौन जिम्मेवारी बनती है। कोई पाप कहे कि पुन्य। और भोले बाबा अपने दरसनार्थियों को मार के कौन पुन्य का काम किये ? भगवान् मारे तो कुछ नहीं और आदमी के लिए पाप-पुन्य? सत्तू एक चट्टान पे बैठा सोच ही रहा था कि तभी एक शोर से सत्तू का ध्यान भंग होता है। सत्तू भाग के वहाँ जाता है।

लोग घेरा बनाये खड़े थे। सेना का एक जवान एक बच्ची को उठा के ला रहा था। 

"ये तो वोहि बच्ची है !" - सत्तू ने देखकर सोचा। 

"क्या हुआ ?" - उसने भीड़ में खड़े एक आदमी से पूछा। 

"पता नहीं। शायद बेहोश हो या शायद मर गयी हो।"

"अभी तो ठीक थी?"

"पता नहीं शायद निमोनिया हो या शायद भूखी हो। पैर फिसल के पत्थर से सिर टकराया है। पता नहीं बचे ना बचे।"

सत्तू पे अचानक जैसे पहाड़ टूट गया हो। सारी संवेदनाओं ने एक साथ जैसे काम करना बंद कर दिया हो। काटो तो खून नहीं। उस बच्ची का चेहरा याद करने कि कोशिश कर रहा था पर दिमाग में अपनी ही बच्ची दिख रही थी अस्पताल के पलंग पे पड़ी। 

"हे भोले बाबा ! ये का करा दिए ? इतना बड़ा पाप करा दिए। कहाँ जाएँ अब ?"

"भैया ! क्या बेच रहे हो ?" - एक आवाज़ से वो चौंका। सामने एक अधेड़ उम्र की औरत खड़ी थी। मन में तो आया कि कह दे ज़मीर बेच रहा हूँ, पर होठों से कुछ ना निकला। अपने झोले का मुंह खोलते हुए बिस्कुट के पैकिट उसके सामने कर दिए। 

"कितने पैसे हुए ?"

"बेचने को नहीं हैं, खाने को हैं। खा लो।" - सत्तू बोला और आगे बढ़ गया। 

पीठ पीछे उस औरत को किसी से कहते सुना - "भोले बाबा मदद जरूर करेंगे, हमको पूरा भरोसा था। "

4 comments:

  1. बहुत संवेदनशील एवं मार्मिक कथा.

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  2. मर्मस्पर्शी कहानी।


    सादर

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  3. कल 08/जून /2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

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  4. संवेदनशील कहानी

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