Friday, May 30, 2014

अर्थ


विज्ञान के तमाम तर्क जहाँ ख़त्म होते हैं, भावनाएं वहीँ से जन्म लेती हैं। व्यक्तिव का निर्माण देश, काल और परिस्थिति के बगैर सम्भव नहीं है। व्यक्तित्व एक परिस्थितिजन्य परत है लेकिन स्वप्रेरणा से इसे एक कृति बनाया जा सकता है। इस परत के सुदूर अंतस में क्या है ? क्या आत्म से साक्षात्कार सम्भव है ? क्या अपनी तमाम मान्यताओं और उनसे जन्मे पूर्वाग्रहों को छोड़ पाना सम्भव है ?



प्रायः हम सभी अपने लिए एक भूमिका चुन लेते हैं और ताउम्र उसे ढोते फिरते हैं। अपनी सोच को एक खूंटे से बांधकर जो एक घेरा बनता है उसे दुनिया समझते हैं और उस खूटें को ईश्वर। क्या प्याज़ के छिल्के की तरह व्यक्तित्व के सारे आवरण हटाने पर कुछ शेष रह जाता है ? क्या आत्मा की परिकल्पना उसी बीज के होने की अवधारणा है ? इन तमाम प्रश्नों के उत्तर वही दे सकता है जो अपने सारे आवरण, सारे मुखौटे हटा पाने में सक्षम हो।

कायाकल्प एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है। सुदूर अंतस में सिर्फ 'अर्थ' हैं। शब्दों के अर्थ नहीं होते, बल्कि अर्थ को व्यक्त करने के लिए शब्द बनते हैं।

जो प्रकट है - वे शब्द हैं। मूल में एक ही अर्थ है जो प्रकट होने के लिए शब्द गढ़ता है। वह जो सूक्ष्म से सूक्ष्मतम और विशाल से विराट है - शब्द है। विराट को अपनी सीमाओं से मापना व्यर्थ है। नज़रों कि अपनी सीमा है , आकाश की नहीं। लघु को मापना भी व्यर्थ है , क्योंकि वह हमारे लघुत्तम पैमाने से भी लघु है। अनगिनत शब्द अनगिनत ब्रम्हांड रच सकते हैं। शब्द - अनादि है , अनंत है। अर्थ - निहीत है , व्याप्त है , मूल है।

ग़ालिब ने उस अर्थ को ईश्वर और ख़ुद को शब्द मानते हुए लिखा है -
न था कुछ तो ख़ुदा था
कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने में
न होता मैं तो क्या होता 

Friday, May 23, 2014

मौसम बदल गया



झांका देखा खिड़की से तो
सब कुछ हसीन दिखता था
ताला लगाते बाहर आते
तब तक मौसम बदल गया

बैठता था वो बूढ़ा जो
प्याऊ के उस मुहाने पर
जब से पानी क़ैद हुआ
तब से जाने किधर गया

नहीं उगलती सोना चांदी
बेबसियां अब निगलती है
धीरे धीरे कसते कसते
फंदा आख़िर लटक गया

धूप ही है बस बची हुई
दे सकें जो कुछ विरासत में
पापी पेट हमारा ये
बाक़ी सब तो निगल गया

Friday, May 16, 2014

कारतूस



सब देख कर हुए नादाँ
कुछ कोई नहीं कहता 
क्यूँ पीटते हो दरवाज़े को
कि भीतर कोई नहीं रहता 

हवा का दबा के टेंटुआ
कांक्रीट के जंगल उगा लिए 
आतें लपेट दीं गर्दन पे
पर लालच नहीं ढहता 

बेबसी हमारी हुए बस आंकड़े 
यहाँ मरे इतने, उतने  वहाँ 
लेनदार पिशाचों के सिवा किसी का
एक क़तरा नहीं बहता 

तब गूंजतीं हैं आवाज़ें
नक्सलबाड़ी नक्सलबाड़ी 
अपराधी बना डाला कहके उन्हें कि
तंत्र में यक़ीं नहीं रहता 

लौटा दो हक़ उन्हें उनका 
कि वो भीख नहीं मांगते 
कि रह जाते हैं बस कारतूस ही 
शेष कोई नहीं रहता 

Friday, May 9, 2014

वो एक पल



वो दिन
वो एक पल 
जब कोई सांस कभी दुबारा 
भीतर न जा सकेगी 
दिमाग की नसों में प्रतिपल 
बौखलाए फिरते जुलूस 
थम जायेंगे 
मशीन के सभी सूचकांक
गिर जायेंगे तली में 
और बन जायेगी 
एक लकीर 
फिर कभी आइना 
ये अक्स ना देखेगा 
काल का डमरू 
थम जाएगा 
और साथ ही थम जाएगा 
उसका तांडव भी 
चंद नुक्ते चीखेंगे 
चिलाएंगे 
पर उनकी सदा के शब्द  
न पार पायेंगे 
पूर्णविराम की उस दीवार को 
जिसके पार 
कोई शब्द नहीं 
सिर्फ अर्थ होंगे 
मेरे अर्थ 
जो एकाकार होंगे 
व्याप्त से 
वो दिन 
वो एक पल 

Friday, May 2, 2014

आवेश



आवेश उसको आख़िर में 
अकेला छोड़ गया 
पानी तो कुछ देर को 
बरस कर गुज़र गया 
टपका छत से देर तलक 
टपकता छोड़ गया 

आने के पाखंडों को 
गिनवाया इस क़दर उसने 
भलाई ख़ुद की गिनाने को 
कलपता छोड़ गया 

निचोड़ के उसके इतर को 
इतनी कड़वाहट भर दी 
खुली हवा की सांस को 
तरसता छोड़ गया 

आँखें सुर्ख़ अंगारों सी 
ताप दूर से भभकता है 
नफ़रत की इक आग में 
झुलसता छोड़ गया