Monday, August 8, 2016

मेटामोर्फोसिस


किसी भी देश के द्वारा चुनी गई आर्थिक नीतियाँ केवल वहाँ के नागरिकों की सामाजिक और आर्थिक ज़िंदगियों पर ही असर नहीं डालतीं बल्कि उन ज़िंदगियों की पारिवारिक और नैतिक बुनियादें भी तय करतीं हैं। ग्रेगोर साम्सा नाम का एक आदमी एक दिन सुबह-सुबह नींद से जागता है और अपने आप को एक बहुत बड़े कीड़े में बदल चुका हुआ पाता है। कहानी जो शुरुआत में किसी साइन्स फिक्शन की तरह लगती है धीरे-धीरे एक पूंजीवादी देश के पारिवारिक मूल्यों पर चोट करती महागाथा में बदल जाती है। मेटामोर्फोसिस (Metamorphosis)। 1915 में फ्रांज़ काफ्का का जर्मन में लिखा एक लघु उपन्यास जो कि अपनी अनोखी लिखावट की वजह से एक कालजयी रचना बन चुका है। मेटमोर्फोसिस दरअसल एक बायलॉजिकल प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई कीड़ा या मछली अपनी शारीरिक रचना को बनाता है मसलन लार्वा से किसी कीड़े का बनना या कैटरपिलर से किसी तितली का।

अपने ही परिवार के बीच में कोई कैसे alienate हो सकता है! इस बुनियादी सवाल को केंद्र मानकर लेखक ने मुख्य किरदार को एक कीड़ा बना दिया। इस तरह लेखक ने न केवल उसे alienate ही किया बल्कि उसके alienation को अमूर्त्य (abstract) भी कर दिया। ये alienation किसी की विकलांगता की वजह से हो सकता है, लकवे की वजह से, दिमागी स्थिति की वजह से, या फिर बुढ़ापे की वजह से भी हो सकता है। ग्रेगोर एक ट्रैवल सेल्समैन है जिसकी कमाई से पूरा घर चलता है। धीरे-धीरे लोगों को उसकी कमाई की आदत लग जाती है। लोग उसे एक पारिवारिक इंसान की तरह न मानकर उसे एक ATM मशीन समझने लगते हैं। लेकिन वो खुश है। और उसकी खुशी शायद इस बात पर ज़्यादा टिकी है कि वो ज़्यादातर बाहर ही रहता है। कभी-कभार ही घर आता है तो वो इस बदलाव को कभी इतने गौर से नहीं समझ पाया। लेकिन ऐसा व्यक्ति यदि अब अपाहिज हो जाये तो क्या बाक़ी सदस्य उसकी ताउम्र देखभाल कर सकेंगे? और यदि कर भी सकेंगे तो क्या 'अपनेपन' से कर सकेंगे? ये कुछ मानवीय स्वभाव को कुरेदने वाले सवाल हैं।

जलगाँव में रहने वाले दिवाकर चौधरी के बड़े भाई की दिमागी स्थिति कुछ खराब हो गई और एक दिन उन्होनें अपने ही 8 साल के बेटे और अपनी बीवी की हत्या कर दी। बाद में कोर्ट ने उन्हें इलाज के लिए मानसिक चिकित्सालय भेज दिया। दिवाकर ने अपने भाई के साथ अपनी ज़िंदगी के अनुभव को 'स्कीत्ज़ोफ़्रेनिया' में बयान किया है जो कि मेटामोर्फोसिस की कहानी से एकदम उलट है और रिश्तों की गहराइयों का एहसास कराती है। स्कीत्ज़ोफ़्रेनिया की कहानी 1991 के आर्थिक सुधारों के पहले के एक गाँव की कहानी है जबकि मेटामोर्फोसिस प्रथम विश्वयुद्ध की तरफ बढ़ रहे यूरोप के एक पूंजीवादी देश की कहानी है। अभी हाल में अनुराग कश्यप की एक फिल्म आई थी 'Ugly' (अग्ली), जिसमें 2014 का मुंबई दिखाया गया है और एक बच्ची के किडनैप के बैकड्रॉप में जो कहानी बुनी है वो यही बताती है कि इंसान भीतर से इतना सड़ चुका हैं कि इंसानियत में अब फफूंद लग चुकी है। 'लगे रहो मुन्नाभाई' का एक दृश्य है जिसमें एक बूढ़ा पिता, जिसने ताउम्र मेहनत कर के अपने बेटे को पढ़ाया लिखाया, आज खुद उनकी ही दुनिया में फिट नहीं हो पा रहा। ठीक फ्रांज़ काफ्का के ग्रेगोर साम्सा की तरह।

इस लघु उपन्यास को आप Amazon से खरीद सकते हैं।

No comments:

Post a Comment