Friday, June 27, 2014

एक ज़रा ठहराव चाहता हूँ



एक ज़रा ठहराव  चाहता हूँ 
कंपकंपाती रीढ़ की सिहन नहीं 
चटचटाती आंच का अलाव चाहता हूँ 
एक ज़रा ठहराव चाहता हूँ 


झिरझिराती काई के पिरामिड नहीं
क्षितिज से उमड़ी बयार चाहता हूँ 
डबडबाती आँख कि गड़न नहीं 
झिलमिलाती फुल्की फ़ुहार चाहता हूँ 
एक ज़रा ठहराव चाहता हूँ 


आपाधापी से भरी सुनामी नहीं 
बुड़बुड़ाती बारिश कि नाव चाहता हूँ 
खून से सनी कटार नहीं 
बरगद कि छाँव में 
सुकून भरी मज़ार चाहता हूँ 


एक ज़रा ठहराव चाहता हूँ 

Friday, June 20, 2014

…तभी तो प्रेम ईश्वर के क़रीब है



प्रेम क्या है? इसकी परिभाषा देना जितना मुश्किल है अनुभव करना उतना ही आसान - सिर्फ एक संवेदनशील मन की ज़रुरत है बस, और कुछ नहीं। एक कलाकार प्रेम की इस अनुभूति को आकार देने की कोशिश करता है। चित्रकार अपने चित्र में, मूर्तिकार अपनी मूर्ति में और कवि अपने शब्दों में। "…तभी तो प्रेम ईश्वर के क़रीब है" उत्तमी केशरी जी के द्वारा रचित कविता संग्रह इस कोशिश में सौ प्रतिशत सफल है। प्रकाशक विजया बुक्स, दिल्ली के द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक १५० पन्नों की है। हार्ड कवर वाली इस पुस्तक में कुल १५० कविताएं हैं। सभी कविताएं नयी कविताएं हैं। पुस्तक का मूल्य २९५/- रुपये है।

सभी कविताएं दिल को छू लेने वाली हैं। प्रेम के ना ना प्रकार के रूप हैं अथवा उसकी अनुभूति के, इस बात का अन्वेषण करती एक दस्तावेज़ की तरह लगती है यह किताब। प्रेम, प्रेमी-प्रेमिका के दरमियाँ पसरे आयामों को संकुचित करता अपनी उपस्थिति का अहसास कराता है। वियोग में खालीपन का अहसास कराता भी प्रेम है। प्रेम प्रकृति से हो चांदनी का चांदोबा त्वचा के पोरों से रिसता हुआ हीमोग्लोबीन में मिल जाता है और महीन धमनियों और शिराओं से होता हुआ दिल की गहराइयों में अपनी शीतलता छोड़ता है। प्रेम स्वयं से हो तो गौरैया के आँखों की पुतलियों में अपने चहकते अक्स को देख सकते हैं। उत्तमी जी भाषा में एक देसीपन है, एक सोंधापन है। अक्सर ही प्रेम की रूमानियत और रूहानियत को रेखांकित करने के लिए तमाम लेखक-कवि गण उर्दू का सहारा लेते हैं कि उर्दू की नफासत रेडीमेड मिल जाती है। लेकिन उत्तमी जी निहायत ही देसी भाषा का इस्तेमाल करते हुए शब्दों से चित्रकारी करती लगतीं हैं। उनके उपमान दिखाई देते हैं। प्रकृति को बहुत ख़ूबसूरती के साथ दिखाया है। मसलन "जब खिल उठी थी" की ये पंक्तियाँ :


तब
महक उठा था मन
महुआ की सुगंध-सा।
खिल उठे थे
आँगन में गुलदाउदी,
डाहलिया
और
हरसिंगार के कई फूल।


महिलाओं और दलितों के विषय भी बहुत खूबसूरती के साथ रखे हैं।  "एक संकल्प यह भी" की ये पंक्तियाँ :

मटरू मोची की बेटी टुनियाँ
अपने मन में पाले हुए है
एक आकांक्षा सवर्ण-सी।


गाँव की पृष्ठभूमि को इस तरह चित्रित किया है कि आप उसकी छोटी-छोटी बारीकियों को अपने मस्तिष्क की गहराइयों में कैद अतीत को बाहर आता महसूस कर सकते हैं। "जब गाँव याद आता है" की कुछ पंक्तियाँ:


भोर होते ही
प्रभाती गाते थे
सनफूल दादा।
इसलिए कि
धनियां फूआ के आँगन में
फैली तनी पेड़ पर
चहचहाने लगता था
चिड़ियों का झुण्ड।
अलसुबह
माँ कूटने लगती थी
ढेंकी में धान।


इस किताब की मेरी सबसे पसंदीदा कविता है "प्रत्यय", जिसकी कुछ पंक्तियाँ ये हैं :

माँ
जब लेती थी आटा की लोइयाँ
घुमाती थी बेलन से
बनाती आकार गोल-गोल
मानो वह रोटी नहीं
सूरज हो।

कभी माँ,
रोटी बेलती तो
कभी चूल्हे में सूखे जलावन डालती,
फूँक मारती और खाँसती


कुल मिलाकर पुस्तक बहुत ही अच्छी है।


Friday, June 13, 2014

मामला कब ठंडा होगा?



पिछले इतवार की बात है। रात के करीब साढ़े ग्यारह पौने बारह बज रहे होंगे। हम लोग अपने घर में सोने की तैयारी में थे। तभी मेरे ढाई साल की बेटी ने पानी मांगा और मेरे पत्नी रसोई की तरफ पानी लेने बढ़ी। मैं बेडरूम में ही अपनी बेटी के साथ था। तभी मेरे पत्नी ने ज़ोर ज़ोर से आवाज़ दी -
"अभिषेक ! अभिषेक !"
आवाज़ ऐसी कि ज़ोर की भी और धीरी भी। कुछ ऐसी कि जब इंसान चाहता तो है ज़ोर से बोलना लेकिन कोई दूसरा ना सुन ले इस कर थोड़ी दबा कर भी बोलता है। चूंकी मैं बेडरूम में था मैंने वहीं से पूछा -
"क्या हुआ?"
उसने पलट कर बोला - "जल्दी आओ"।
मैं जल्दी से हॉल में पहुंचा। उसने कहा - "सुनो"।
हम लोग अपने हॉल में दीवार से सटे सोफ़े के नजदीक आ गए। दीवार पर बनी एक खिड़की से बाहर झाँकने लगे। बाहर शोर शराबे की आवाज़। कुछ औरतें शायद रो रहीं थीं। आदमियों की भी आवाज़। कुछ स्पष्ट सुनाई नहीं दे रहा था बस हो हो हा हा की तरह का कुछ शोर सुनाई दे रहा था। मैंने तुरंत अपने घर की तरफ देखा। हॉल की लाइट बंद थी। बेडरूम की लाइट भी बंद थी। बेडरूम में जो अटैच बाथरूम था उसकी बत्ती ज़रूर जल रही थी। मैंने तुरंत दौड़ कर बाथरूम की लाइट बंद की। मैं जिस इलाके में रहता हूँ वहाँ हिन्दू मुस्लिम दोनों रहते हैं। रहते क्या हैं काफी अच्छे से रहते हैं। आस पास दुकाने भी हिंदुओं और मुसलमानों दोनों की हैं। एक बाजू वाले पड़ोसी हिन्दू और दूसरे वाले मुस्लिम हैं। मेरे तो मकान मालिक भी एक मुस्लिम हैं। बाकी कोई विचार मेरे दिमाग में नहीं आया। अभी चंद रोज़ पहले ही एक मुस्लिम को पुणे में जिस तरह दाढ़ी बढ़ाने और टोपी पहनने की वजह से मार दिया गया था वही घटना मेरे दिमाग में सबसे पहले आई। लगा कि यहाँ भी तो कुछ हो नहीं गया। हालांकि बैंगलोर में इसकी उम्मीद ना के बराबर थी लेकिन फिर पुणे में भी तो उनके मोहल्ले वाले यही कह रहे थे कि वहाँ भी सब सामान्य हुआ करता था। लोग अच्छे से रहते थे। वो लड़का भी सॉफ्टवेअर इंजीनियर था। बाहर से आए लोगों ने किया जो किया और वो भी फेसबुक की किसी सामाग्री को ले कर के जिसके बारे में बाद में बताया गया कि वो फ़र्ज़ी थी। हालांकि बाहर के शोर में किसी तरह की कोई नारेबाजी नहीं थी लेकिन शायद दिमाग में नारेबाजी उठ खड़ी हुई थी। गौर से सुना कि कहीं कोई हर हर महादेव या जय श्रीराम या अल्लाह हो अकबर के नारे तो नहीं। नहीं, ऐसे कोई नारे नहीं थे। फिर भी मैंने अपनी पत्नी से कहा -
"पीछे की तरफ जाओ। आना (मेरी बेटी) को भी साथ ले जाओ। बिलकुल आवाज़ ना करना। रसोई की लाइट भी बंद कर दो।"
वो मेरी बात मानते हुए पीछे की ओर चल पड़ी बच्ची के साथ। मैं धीरे से दरवाजे पर आया। बिलकुल धीरे, बगैर किसी आवाज़ के दरवाजा खोला। हमारे घर में दरवाजे के बाहर एक चैनल है जिसे सुरक्षा की दृष्टी से मकान मालिक ने बनाया था। उसमें रात में हम लोग ताला डाल के सोते हैं। मैंने चैनल का ताला नहीं खोला। तभी मेन गेट से पार मेरी निगाह एक आदमी पर पड़ी । वो आराम से टहलता हुआ चला जा रहा था। तब मुझे समझ आया कि कोई 'वैसी' बात नहीं है। मैंने चैनल खोला फिर मेन गेट। बाहर आया, देखा - पड़ोस के आगे वाले अपार्टमेंट में शायद किसी की अचानक तबीयत खराब हो गई थी और उसी वजह से हो हल्ला मचा था। उनकी ही पत्नी या बच्चे रो रहे थे और आदमी लोग गाड़ी निकाल के उन्हें अस्पताल ले जा रहे थे।

कुछ समय बाद में जब मैं वापस घर आया और अपनी पत्नी और बच्ची के साथ बैठा था तो महसूस किया उस दहशत को जिसमें थोड़ी देर पहले क़ैद था। बाद में एक दफा उन लोगों का भी खयाल आया जिनके घर के बाहर कोई भीड़ सच में आई थी। हम सभी लोगों में असुरक्षा कितनी ज़्यादा भीतर तक पैठ चुकी है। काफी देर तक हम लोग यही चर्चा करते रहे। दूसरे दिन समाचारों में पता चला कि पुणे में मुसलमानों ने दाढ़ी हटा ली है और टोपी भी कुछ दिनों के लिए नहीं पहनने का फैसला किया है। तब तक जब तक मामला ठंडा ना हो जाये। आखिर ये मामला कब ठंडा होगा?

Friday, June 6, 2014

'बिस्कुट'


जेठ का महीना था। पहाड़ों पर बर्फ़ पिघलने लगी थी। सत्तू एक टिमटिमाती बत्तियों और चकरियों वाली वज़न मापने की मशीन के स्टैंड पर बैठा था। नज़रें सामने लगे टी-स्टॉल के स्टोव की लौ से होते हुए किसी शून्य को जा रहीं थीं। मुड़े हुए घुटने और उन पर मुड़े हुए हाथ - किसी बेजान बुत सा बैठा था। ये धरासू का बस स्टैंड था। धरासू उत्तराखंड में ऋषिकेश से तक़रीबन दो सौ किलोमीटर की दूरी पर एक कसबा है। 


थोड़ी देर वहाँ बैठने के बाद सत्तू उठा और साइकिल स्टैंड से अपनी साइकिल निकाल कर चल पड़ा। थोड़ी ही देर में उसकी साइकिल बस स्टैंड के इलाक़े से बाहर निकल कर एक पगडंडी पर रेंगने लगी। धरासू चारों तरफ पहाड़ों से घिरा था। हर तरफ़ हरियाली और प्रकृति के चमत्कार। झरने, पेड़, इंद्र का धनुष और बारिश। वो साइकिल से उतर कर उसे घसीटता हुआ चढ़ाई चढ़ने लगा। पहाड़ी इलाक़ों ये सबसे बड़ा कष्ट है - जहाँ तक ढलान हो आराम से चलो पर चढ़ाई आते ही कसरत शुरू। वहाँ ऊंचे टीले पर एक मंदिर है। पुजारी भी वहीं बाजू में एक कुटिया बना के रहता है। कोई कहता है कि ये मंदिर ज़मीन क़ब्ज़िआने का तरीक़ा है। पर सत्तू को क्या। वहाँ पहुँच कर साइकिल एक पेड़ से टिका दी और मंदिर पे बने शेड में सुस्ताने लगा। पहाड़ों की चढ़ाई वाक़ई थकान भरी होती है। 

"क्या हुआ ? " - पुजारी ने पूछा। 

"कुछ नहीं" - सत्तू बोला - "बस ऐसे ही"

"आज इस समय ?"

"काम में मन नहीं लग रहा था। वैसे भी जेठ के महीने में बारिस आये तो राहगीर कहाँ से आयें ?"

"सो तो है। तुम्हारी बच्ची कैसी है ? का बोला डाक्टर ?"

"बोला कि कोई बड़ी बीमारी है। ये सुसरी बीमारियां भी गरीबों की ही दुस्मन हैं। अमीर आदमी तो इलाज करा लेवे, गरीब कहाँ को जाए ? बस भोले बाबा की ही सरन है, जो न कराये सो है।"

"चिंता न करो। भोला बाबा जरूर कुछ करेगा। ये लो आगी लगाओ।" - पुजारी बाबा माचिस आगे बढ़ाते हुए बोला। 

सत्तू माचिस जलाता है। बाबा चिलम सुलगाता है। चिलम सुर्ख़ लाल हो कर जलने लगती है जैसे किसी माणिक के अंदर कोई जुगनू बंद हो। अभी चिलम टूटे और जुगनू उड़ जाए।  कुछ देर बाद सत्तू को गांजा असर करने लगता है। सत्तू वहीँ शेड में पड़े-पड़े सो जाता है। 

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"उठो! उठो! देखो बाहर प्रलय आ गया।" - पुजारी की आवाज़ से सत्तू जागता है। "बाहर ऐसी बारिश आयी कि सब बह गया।"

"कौन बताया ?"

"मुन्ना आया था। तुम्हारी महरिया तुम्हें ढूंढ रही थी जो तुम बस स्टैंड पे नहीं थे। बता रहा था कि केदारनाथ में भोले बाबा को छोड़ कर सब कुछ बह गया। हज्जारों-हज्जार आदमी, बच्चा, बूढ़ा, औरतियां सब बह गए। प्रलय आ गया रे प्रलय आ गया।"

"अब ?"

"अब का ? सुने हैं सेना आ रही है बचाने को।"

"किसको ?"

"अबे बुड़बक ! जो बच गए हैं उनको और किसको। सुने हैं यहीं धरासू में कैम्प लगेगा।"

"अच्छा !!"

"हां। चलो तुम घर जाओ, सब चिंता करते होंगे।"

सत्तू अपनी साइकिल ले कर ढलान पर लुढ़कता हुआ घर की ओर चल पड़ता है। 


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"सुनो ! मुन्ना आया है। कहता है कि कैंप लगा है। मदद के वास्ते लोकल की पब्लिक को बुलाया है।"

"कौन बुलाया है ?"

"वो सब हमें नहीं पता। मुन्ना बाहर खड़ा है, खुदई पूछ लो।"

सत्तू बाहर आता है। 

"अबे सुना है कैंप लगा है।"

"तो ?"

"तो चल चलते हैं। पांच-पांच रुपिया का बिस्कुट चार-चार सौ में बिक रहा है।"

"अच्छा !!"

सत्तू सोच में पड़ जाता है - "बिटिया के इलाज को चाहिए बीस हजार। अगर पचास पैकिट बिक गए तो इलाज का खर्च पूरा। और लागत सिर्फ़ अढ़ाई सौ रूपया। वाह ! भोला बाबा बड़ा दयालु है।"


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सत्तू कैंप के पास पहुँचता है। सेना के जवान भी हैं और पब्लिक भी। 

"इन्हीं को बचा के लाये हैं" - सत्तू सोचता है। 

औरतें बच्चे रो रहे हैं। आदमियों की आँखों में भी दहशत है। आँखों से पता लगता है कि साक्षात मौत देख कर आये हैं। महाकाल के दरसन खातिर गए थे तांडव देख कर आये हैं। बच्चे भूख से बिलख रहे हैं। लड़के लोकल वालों को आँखों देखा हाल सुना रहे हैं - "हर तरफ पानी ही पानी ! लगता था पूरा हिमालय पिघल गया। चारों और लाशें ही लाशें। जो बचे थे वो लाशों के ऊपर सो कर रात गुज़ारे। कुछ बच्चे तो भीग के निमोनिया से मर गए।"

"अंकल ! भूख लगी है" - एक चार-पांच साल की बच्ची ने सत्तू का हाथ हिलाकर बोला। सत्तू का ध्यान टूटता है। 

"तुम्हारे माँ-बाप कहाँ हैं ?"

"पता नहीं"

"पैसे हैं ?"

"पैसे ?"

बच्ची के पूछने के तरीक़े से सत्तू समझ गया कि इसके पास पैसे नहीं हैं। 

अब इसे बिस्कुट दे दूं तो अपनी बच्ची को कैसे बचाऊँ ? इसके तो माँ-बाप बह चले, मैं भी अपनी बच्ची खो दूं क्या?

"बगैर पैसे के ना दूंगा" - सत्तू बोला। 

बच्ची आगे चल दी। शायद किसी और से खाने के लिए पूछने को। 

मैं क्यों दूँ ? मैं ना दूंगा। कोई-ना-कोई तो दे ही देगा। और जो कोई ना देगा तो सेना वाले तो देंगे ही। मैंने थोड़े ही कहा था कि यहाँ आओ। फिर मेरी कौन जिम्मेवारी बनती है। कोई पाप कहे कि पुन्य। और भोले बाबा अपने दरसनार्थियों को मार के कौन पुन्य का काम किये ? भगवान् मारे तो कुछ नहीं और आदमी के लिए पाप-पुन्य? सत्तू एक चट्टान पे बैठा सोच ही रहा था कि तभी एक शोर से सत्तू का ध्यान भंग होता है। सत्तू भाग के वहाँ जाता है।

लोग घेरा बनाये खड़े थे। सेना का एक जवान एक बच्ची को उठा के ला रहा था। 

"ये तो वोहि बच्ची है !" - सत्तू ने देखकर सोचा। 

"क्या हुआ ?" - उसने भीड़ में खड़े एक आदमी से पूछा। 

"पता नहीं। शायद बेहोश हो या शायद मर गयी हो।"

"अभी तो ठीक थी?"

"पता नहीं शायद निमोनिया हो या शायद भूखी हो। पैर फिसल के पत्थर से सिर टकराया है। पता नहीं बचे ना बचे।"

सत्तू पे अचानक जैसे पहाड़ टूट गया हो। सारी संवेदनाओं ने एक साथ जैसे काम करना बंद कर दिया हो। काटो तो खून नहीं। उस बच्ची का चेहरा याद करने कि कोशिश कर रहा था पर दिमाग में अपनी ही बच्ची दिख रही थी अस्पताल के पलंग पे पड़ी। 

"हे भोले बाबा ! ये का करा दिए ? इतना बड़ा पाप करा दिए। कहाँ जाएँ अब ?"

"भैया ! क्या बेच रहे हो ?" - एक आवाज़ से वो चौंका। सामने एक अधेड़ उम्र की औरत खड़ी थी। मन में तो आया कि कह दे ज़मीर बेच रहा हूँ, पर होठों से कुछ ना निकला। अपने झोले का मुंह खोलते हुए बिस्कुट के पैकिट उसके सामने कर दिए। 

"कितने पैसे हुए ?"

"बेचने को नहीं हैं, खाने को हैं। खा लो।" - सत्तू बोला और आगे बढ़ गया। 

पीठ पीछे उस औरत को किसी से कहते सुना - "भोले बाबा मदद जरूर करेंगे, हमको पूरा भरोसा था। "