सीधी सही पर
बड़ी पेचीदा होती हैं
कभी कच्ची
तो कभी
गाढ़ी होती हैं
लकीरें
वो
जो कच्ची होती हैं
खिंचती हैं
काली सी स्लेट पर
और फिर जब
स्लेट को छोड़ दो
रख दो कहीं
बस यूं ही ख़ुद-ब-ख़ुद
धुंधला जाती हैं
लकीरें
कुछ लकीरें
जब उकरतीं हैं
रेत के अखाड़े में
और बनाती हैं पाला
कबड्डी का
हँसते हैं सभी
खिलखिलाते हैं
जब टूटती हैं साँसें
और बद जाता है दाम
फिर जब
चलती है हवा अखाड़े में
तो मिट जाते हैं
पैरों, पंजों और एड़ियों के
निशाँ
और मिट जाती हैं
लकीरें भी
लेकिन एक बार हमने
बनायी थी इक लकीर
कबड्डी की नहीं
सरहदों की लकीर
उस रोज़ भी
टूटी थीं साँसें
लेकिन इस बार
बहुत सा ख़ून भी
उमड़ आया था उसमें
जिसने
कर दिया था गाढ़ा
उन लकीरों को
कुछ सरफ़िरों ने सोचा भी
कि चलो लाते हैं
कोई पोछा बड़ा सा
और मिटा देते हैं
इन लकीरों को
पर
लाल हो गया पोछा भी
जब पड़ा वो
उस लकीर पे
तब
और भी ताज़ी हो गयीं
लकीरें
और भी गाढ़ी हो गयीं
लकीरें