Sunday, November 22, 2015

ययाति के मिथक - 3

नाव बनाने वाले पश्चिम में समुन्दर किनारे ही व्यापार करते, जबकि लकड़ी के अन्य कारोबारी जंगल के पास ही अपना काम करते थे। पत्थर के कारोबारी भी समन्दर किनारे ही बैठते। झामी को पानी में नीचे ले जाने के लिए उसके चारों ओर पत्थर बांधने पड़ते थे। सारे पत्थर एक वजन के होते ताकि झामी का संतुलन न बिगड़े। बाबा बताते थे कि प्रयाद में कुछ लोगों ने हवा में उड़ने वाली झामी भी बनाई है। मैंने बाबा से पूछा कि हवा में उड़ती झामी से क्या फायदा? अाकाश में तो नीप मिलते नहीं। बाबा हंस दिये। गाँव के दक्षिण में मूर्तिकार बैठते। मेरी सबसे पसंदीदा जगह मूर्ति बाज़ार ही थी। पत्थरों, लकड़ियों और नीपों की मूर्तियाँ, खिलौने, गहने बनते थे। बाबा जब मंधारा जाते मैं मूर्ति बाज़ार निकल लेता। ठक-ठक ठुन-ठुन की आवाज़ें पूरे माहौल में तैरतीं और उन आवाज़ों के बीच से आकृतियाँ उभरतीं दिखतीं। उन आकृतियों से पता चलता कितना कुछ है जो अव्यक्त है। अव्यक्त को व्यक्त करते मूर्तिकार दो दलों में थे। कुछ मूर्तिकार पारम्परिक मूर्तियाँ बनाते। इनमें देवी-देवताओं की मूर्तियाँ होतीं, बच्चों के खिलौने होते और होतीं तस्वीरें। अक्सर ही राजा महाराजा अपनी तस्वीरें भेजते और उन तस्वीरों को देख कर मूर्तिकार मूर्ति बनाते। बाज़ार में कुछ चित्रकार भी अपना काम करते थे। अक्सर लोग अपनी या अपने बच्चों की मूर्तियाँ बनवाते तो चित्रकार से चित्र ले कर मूर्तिकार को दे देते। अगली बार जब वे आते तो अपनी मूर्ति उठा लेते। मूर्ति बनवाने वाला कोई राजा महाराजा हो तो प्रान्त उनके राज्य तक मूर्ति भिजवा देता। जो दूसरा दल था वह मूर्तिकला को पवित्र मानता था और मांग आधारित काम करना कला का अपमान समझता था। मेरा भाई इसी दल में उठा बैठा करता। भाई को मूर्तिकला का बहुत शौक था। उसका नाम था प्रहस्त।

मेरी माँ का नाम बाणी था। बहुत वर्ष पहले की बात है, जब माँ की शादी नहीं हुई थी। वह लकड़ा-बाज़ार से मूर्तिकारी सीखने रोज़ मूर्ति-बाज़ार आया करती। उस समय पराश से खोजियों का एक दल आया था। उन्होंने समन्दर किनारे ही डेरा डाला था। जीवाल मछली के बारे में बहुत पड़ताल करते। बहुत कुछ लिखा करते। नीपों के बारे में भी बहुत खोज करते। उस दल में एक लड़का था- इक्षानु। इक्षानु को भी मूर्तिकला का शौक था। इत्तफ़ाक से दोनों एक ही प्रशिक्षक के अधीन कलाकारी सीखने पहँचे। छैनी-हथौड़ी की ठक-ठक ठुन-ठुन और उन आवाज़ों के बीच उभरती ढेरों आकृतियाँ। वे दोनों ही बहुत प्रतिभाशाली थे। उनकी प्रतिभा को देखते हुए उनके प्रशिक्षक ने उन्हें अपनी ही दुकान पर काम दे दिया। लेकिन इक्षानु ख़ुश नहीं था। उसका मानना था कि ‘बहुत सी चीज़ों की मूर्तियाँ नहीं बनाई जा रहीं। हम लोग सिर्फ देख सकने वाली चीज़ों की मूर्तियाँ बना रहे हैं। जो चीज़ें हम देख नहीं पाते, सिर्फ महसूस करते हैं या सिर्फ सोचते हैं उन्हें भी मूर्तिकला में जगह मिलना ज़रूरी है। आप मन में उठती किसी पुरानी टीस को मूर्ति में कैसे उतारेंगे? प्रेम को कैसे मूर्त रूप में उतारेंगे? इन बातों पर भी विचार होना चाहिये।’ पुराने मूर्तिकार उसकी बातों को अनसुना करते। कुछेक नए मूर्तिकार ज़रूर उसकी बातें सुनते। 

कुछ समय बाद उसका खोजी दल भी चला गया लेकिन इक्षानु अक्षज में ही रह गया। उसने अपना एक नया दल भी बनाया जो सिर्फ कला में नए प्रयोग के लिए मूर्ति बनाते। बाणी उनके दल की प्रमुख मूर्तिकार हो गई। उन लोगों ने कुछ मूर्तियाँ बनाईं भी जो ठीक ठाक दामों में बिकीं। इसी बीच बाणी ने एक नई कला का आविष्कार किया। पेड़ की छाल पे गोंद से चित्र बना कर उस पर रंगोली फेंकी जाती। गोंद की वजह से रंगोली चिपक जाती। इस तरह की चित्रकारी की सबसे खास बात होती उस पर उभरे रंगों का खुरदुरापन। बाणी की इस कला को कई लोगों ने सराहा। प्रान्त ने भी नमूने के तौर पर कई चित्र रख लिए। हालांकि काफी समय तक उस कला को मंज़ूरी मिली नहीं थी। लेकिन इन सब गतिविधियों के बीच बाणी और इक्षानु भी करीब अा गए। एक दिन पराश से एक आदमी आया जिसके साथ कुछ दिनों का बता कर इक्षानु पराश चला गया। उसके जाने के महीने भर बाद ही बाणी को पता चल गया कि वह गर्भवती है। जब बहुत दिनों तक इक्षानु न आया तो प्रान्त में उसे ढूंढने की शिकायत दर्ज़ करवाई। समय बीतता गया पर न तो इक्षानु कभी लौट कर आया ना ही उसका कहीं कुछ पता चला। इधर बाणी ने एक लड़के को जन्म दिया जिसका नाम उसने रखा प्रहस्त। बाणी ने अपने पिता का घर छोड़ कर मूर्ति बाज़ार के पास ही घर ले लिया। अपने बेटे के साथ वह वहीं रहने लगी। हालांकि इक्षानु का ज़रूर कहीं अता-पता नहीं था पर उसका दल लगातार बढ़ रहा था। बहुत से नए लोग इक्षानु की अमूर्त्य कला में रुचि रखते। काफी समय दल की कमान संभालने के बाद बाणी ने वह दल छोड़ दिया। कला की साधना से कहीं ज़्यादा ज़रूरी रोज़ी-रोटी हो चली थी। नई कला हालांकि पनप रही थी पर उसमें उतनी कमाई न थी। उसके जाने के बाद मताली नाम के एक शख़्स ने दल की कमान संभाली।

प्रहस्त बचपन से ही अन्तर्मुखी था। अपनी उम्र के बच्चों के संग भी न खेलता। उसकी दुनिया उसकी माँ ही थी। जब वह काम पर जाती तो वह भी संग जाता। बचपन से ही मूर्तियाँ बनते देखना उसे बहुत अच्छा लगता। माँ ने उसे छैनी-हथौड़ी भी पकड़ा दिये। अब ठक-ठक ठुन-ठुन की आवाज़ें उस तीन साल के बच्चे के हाथों से भी चलने लगीं और उन आवाज़ों ने धीरे-धीरे सबको बता दिया ये बच्चा एक दिन नाम्बी का सबसे बड़ा मूर्तिकार बनेगा। उसकी बनाई मूर्तियों में इतनी सफाई होती कि बड़े-बड़े मूर्तिकार भी वाह किये बिना न रह पाते। धीरे-धीरे बाणी उसे पिता इक्षानु के बारे में भी बताने लगी। जिस तरह उसके हाथ बेदाग़ मूर्तियाँ गढ़ते, उसके मन ने भी अपने पिता की ऐसी ही एक छवि गढ़ ली थी - बेदाग़। वह उसे इक्षानु की कलाकृतियाँ भी दिखाने लगी। धीरे-धीरे वह भी अमूर्त्यता की ओर आकर्षित होने लगा। कला में अपने पिता को ही अपना आदर्श मानने लगा। पहले-पहल सममित आकृतियाँ बनाता। धीरे-धीरे अमूर्त्य कलाकृतियों में भी रुचि लेने लगा। उन्हें वह अमूर्तियाँ कहता और। उसने बाणी की रंगोली और छाल की विधा को मूर्तिकला से जोड़ा। पहले अमूर्त्य आकृतियाँ लकड़ी या पत्थर पर कुरेदता। फिर उनके कुछ हिस्सों में गोन्द लगाकर रंगोली उड़ेलता। शुरुआत में लोगों में वे खुरदुरी, रंगीन और अमूर्त्य मूर्तियाँ इतनी लोकप्रिय नहीं हुईं। लेकिन कालान्तर में वैसी मूर्तियों की भी भारी मांग आने लगी। बचपन से ही वह अपने समय से थोड़ा आगे था। 

धीरे-धीरे समय उन ठक-ठक ठुन-ठुन की धाराओं में बहता चला गया। प्रहस्त नौ बरस का हो गया। एक दिन बाणी ने उससे कहा - “क्यों नहीं अब तुम नीपों की मूर्तियाँ बनाते”।

नीपों की मूर्तियाँ बनाने के लिए हाथ बहुत सधा होना चाहिये। नीप लकड़ी या पत्थर जितना मजबूत नहीं होता। एक ग़लत चोट से नीप चटक जाता। हालाँकि पहले उसे मजबूती देने के लिए दीलिम नाम के एक घोल मे ज़रूर डाला जाता, लेकिन फिर भी नाज़ुक तो वह था ही। गिरने पर भले ना टूटे पर पर हथौड़ी की चोट अलग होती है। यूँ तो नीप बाज़ार में मिलते थे पर सीखने के लिहाज़ से बाज़ार से खरीदना बहुत महंगा पड़ता, इसलिए लोग किनारे जाकर ख़ुद ही ढूंढ लेते। रात को उनकी चमक की वजह से ढूंढना थोड़ा आसान होता, इसलिए रात को बहुत से लोग नीप ढूंढने आते। हालाँकि किनारे पर उतने सुंदर नीप नहीं मिलते लेकिन सीखने के उद्देश्य से वे ठीक ही होते। बाणी दिन में काम करने जाती और शाम ढलने पर प्रहस्त के साथ किनारे जा पहुँचती। प्रहस्त किनारे रेत में नीप ढूंढता और वह उथले पानी में घुटनों तक धोती चढ़ाए तैरती परछाइयों का पीछा करती। थोड़ी देर बाद दोनों वहीं किनारे पर बैठ जाते और उन परछाइयों में खो जाते। शाम को लोग झुंड बनाकर वहीं किनारे बैठ जाते। गाते, बजाते, नाचते, हँसते। कई सारे अलग-अलग टोले, अलग-अलग टापू, टापुओं के बीच सुलगती आग, धुएं की अमूर्त्य आकृतियाँ, तैरती हुईं, उड़ती हुईं, मिटती हुईं। उन आकृतियों के बीच लोग हाथों में हाथ डाले नाचते। ये सब एक रिवाज़ की तरह ही तो था जो रोज़ परछाइयों के स्वागत के लिए दोहराया जाता। जैसे-जैसे रात आगे बढ़ती, गीतों में भी शान्ति आती जाती। धीरे-धीरे सब कुछ थम सा जाता। लहरों की अावाज़ें। गीतों की आवाज़ें। धीरे-धीरे लोग वहीं लेट भी जाते रेत में और देखते रहते आसमान में नीपों के सरदार को। कुछ आँख बन्द किए यूं ही पड़े रहते। लहरों की तरंगें। गीतों की तरंगें। टकराती रहतीं किनारे पर और उनके शब्द टपकते रहते कानों में। पर वे बस पड़े रहते, बेसुध। वैसा सुकून दुनिया के शायद ही किसी कोने में मिलता हो।

शाम ढलने पर गोताख़ोरों के दल भी किनारे पहुँचते। उन्हें नाव ले कर समन्दर का रुख़ जो करना होता। अन्धेरे में चमकते नीपों से उन्हें अन्दाज़ा लगता कि अगले दिन किस जगह गोता लगाना है। उन दलों में दानिश नाम का एक लड़का भी आया करता था। लम्बा कद, चौड़ा सीना, घुंघराले बाल। बहुत ही खिलंदड़ किस्म का लड़का। दिन भर हर किसी से मज़ाक करता घूमता। अपने दल में सबका चहेता। गोताखोरी में सबसे तेज़। आधे-आधे घंटे गर्वासी के भरोसे पानी में सांस रोके रखता या कभी यूँ ही अकेले निकल पड़ता आधी रात को झामी ले कर। शाम को समन्दर किनारे गाने बजाने में सबसे आगे। देर रात तक रेत पर पड़े रहने वालों में भी सबसे आगे। समन्दर ही उसकी दुनिया थी। वही दानिश इधर कई दिनों से इस औरत को किनारे आते देख रहा था। पहली नज़र का आकर्षण कहें या नीयति, रोज़ शाम उसकी निगाहें उस औरत को ढूंढा करतीं। एक दिन शाम को वह उसके टोले में जा बैठा। आग जली, अमूर्त्य आकृतियाँ भी तैरने लगीं और तभी उसने बाणी को अपने साथ नाचने के लिए इशारा किया। बाणी भी उठ खड़ी हुई। यहीं से दोनों के बीच जान-पहचान बढ़ती चली गई। 


दानिश बाणी से आठ बरस छोटा था। दोनों रोज़ शाम मिलने लगे। दानिश समन्दर से बाणी के लिए नीप ले आता। बाणी प्रहस्त को रेत में नीप ढूंढने को कहती और ख़ुद दानिश के साथ पूरी शाम बातें करती रहती। प्रहस्त को माँ का यह रूप बिलकुल न सुहाता। प्रहस्त के मन में जो छवि इक्षानु की थी, दानिश उसके ठीक उलट था। कहाँ उसका पिता एक दार्शनिक कलाकार कहाँ यह तैराक। ये बात दानिश भी बख़ूबी समझता और बाणी भी। लेकिन दानिश उन लोगों में से नहीं था जो ख़ुद को किसी पर थोपना चाहता हो। और जहाँ तक बाणी का सवाल था तो इक्षानु के जाने के बाद सालों तक तन्हां जीवन बिताते-बिताते वो भी थक चुकी थी। ऐसी ही एक रात जब परछाइयाँ तैर रहीं थीं और किनारे पर टापुओं के बीच सुलगती आग धीरे-धीरे बुझने लगीं थीं और यावी के गीत गाए जा रहे थे और लोग लेटे हुए, बैठे हुए, आँखें खोले हुए, बन्द किए हुए, खोए हुए पड़े थे और प्रहस्त रेत में नीप तलाश कर चुकने के बाद यूं ही किसी टापू पर बैठा था, बाणी और दानिश इन टापुओं से दूर एक दूसरे का हाथ थामे किनारे पर टहलते जा रहे थे। कभी दूर से आती लहरें उनके पैरों से टकरातीं। कभी दूर से अाते यावी गीत उनके कानों से टकराते। धीरे से बाणी ने अपना सिर दानिश के कन्धे पर टिका दिया। दानिश ने भी अपना एक हाथ घुमा कर उसके कन्धे पर रख दिया। धीरे से उसे अपनी बंडी की जेब में हाथ डाला और उसमें से पत्ते की एक छोटी सी पोटली निकाल कर बाणी के हाथों में रख दी। पोटली का मुंह छाल की रस्सी से बन्द था। बाणी ने दानिश का हाथ अपने कन्धे से हटाया और ठिठक कर वहीं खड़ी हो गई। झुकी हुई गर्दन और नज़रें उस बन्द पोटली पर। दानिश ने उसकी ठोड़ी पकड़ कर उसका सिर ऊँचा भी किया पर नज़रें तब भी पोटली पर ही टिकीं थीं। बाणी की आँखों के सामने परछाइयों के बीच इक्षानु का चित्र तैर गया। ठक-ठक ठुन-ठुन की आवाज़ें उसके कानों में पड़ने लगीं। कई सारी अमूर्त्य आकृतियाँ उसे पैरों के समीप की रेत में दिखीं जिन्हें पीछे हटतीं लहरें रगड़-रगड़ कर मिटाने में लगीं थीं। इक्षानु अपना एक घुटना टिका कर उन रेतीली आकृतियों में बैठ गया। बाणी ने टापुओं की ओर देखा। प्रहस्त कहीं दूर धुएं की अमूर्तियाँ बनाता नज़र आया और वे अमूर्तियां हवा में तैरती हुईं। बाणी ने दानिश की ओर देखा। आँखों से दो मोटे-मोटे नीप निकल कर पोटली पर लुढ़क लिए। उसने अपने एक हाथ से रस्सी खींची। पोटली का मुंह खुल गया। भीतर नीप की एक अंगूठी थी। अंगूठी दानिश ने उठा ली। बाणी ने अपना हाथ अागे बढ़ा दिया। दानिश ने अंगूठी पहना दी। आसमान में नीपों का सरदार आ चुका था। ज़मीन पर परछाइयां तैर रहीं थी। कानों में गीत तैर रहे थे। हवा में अमूर्तियाँ तैर रहीं थीं। बाणी और दानिश एक दूसरे की बाहों में समाए थे। लहरें पैरों पर टकरा रहीं थीं और इर्द-गिर्द की अमूर्तियाँ मिटा रहीं थीं और कुछ नई आकृतियाँ बना रहीं थीं।

ययाति के मिथक - 2

नीपल समुदाय का पूरा ताना-बाना नीपों ही से जुड़ा था। हम सागर की गहराइयों में नीप तलाशते, उन्हें तराशते, उन पर तरह तरह की नक्काशियाँ उकेरते, उन्हें रंगते। उनसे मालाएँ, गहने, मूर्तियाँ, खिलौने, गोटियाँ बनाते। उन्हें पीस कर उनसे रंगोली बनाते। रंगोली के लिए लेकिन खंडित नीपों का इस्तेमाल किया जाता। नीपों की भी एक अायु होती है। मछलियों के मरने के बाद धीरे-धीरे नीप भी पपड़ियों के मखौटे लगाने लगते और बिखरने लगते उन मखौटों की आड़ में। घर उतने बेजान भी नहीं होते शायद। खाली घरों को खंडहर बनते देर नहीं लगती। ऐसे खंडहरों को उनके रंगों के हिसाब से अलग-अलग अलग किया जाता। उन्हें पीस कर रंगोली की शक्ल दी जाती और उन्हें थैलियों में भर कर बेचा जाता। बेचने के लिये हम अपना सारा सामान अपने प्रान्त में भेजते। वहां से सारे ईवध और सारे नाम्बी में उन्हें बेचा जाता। कई बार लोग यहाँ से जीवाल मछली पकड़ कर ले भी गये पर वो मछली कहीं और जिन्दा रह ना पाई। 

जीवाल मछली कई नस्लों की होतीं थीं। जो उथले पानी वाली होतीं, वे छोटी होतीं और उनके नीप भी छोटे होते। बड़ी मछलियाँ थोड़ी गहराई में रहतीं। उनके नीप भी बड़े होते। नीप की कीमत कई बातों पर निर्भर करती। अव्वल तो नीप कितना बड़ा है। लेकिन केवल आकार ही एक मात्र मापदंड ना होता। उसकी पारदर्शिता, चमक, रंग, उम्र और हालत भी बहुत महत्तवपूर्ण होते। पीले और भूरे बहुत साधारण रंग माने जाते। इन रंगों के नीप बेहद आसानी से मिल जाते थे। गुलाबी, नारंगी, आसमानी जैसे हल्के रंग थोड़े महंगे बिकते। गहरे रंगों में नीले, हरे, महरून रंग मांग में थे। लेकिन सबसे ज़्यादा महंगे थे लाल और काले नीप। ईवध की एक दंतकथा के अनुसार एक बार एक ऐसा नीप मिला था जिसका ऊपरी भाग लाल और भीतरी भाग नीला था। उसे कुक्षी नाम दिया गया। उसकी दोनों परतों के बीच पानी भरा था और पानी में हवा का एक बुलबुला भी क़ैद था। जिस नीपल को वह नीप मिला था, उसने उससे एक अंगूठी बनाई जिसमें उस बुलबुले को ही नग की तरह इस्तेमाल किया गया था। अंगूठी पर जब रोशनी पड़ती तो बुलबुला मिलेजुले लाल और नीले रंग बिखेरता। उसकी कीमत आँकने के लिये जब उसे प्रान्त में विषेशज्ञ के पास ले जाया गया तो उसने उसे दुनिया की सबसे महंगी अंगूठी माना। उसे दारुक देश के राजा ने खरीदा। कथा के अनुसार, एक दिन राजा अपने बेटे के साथ जंगल गया जहां उसके बेटे को एक सांप ने काट लिया। राजा अपने बेटे से बहुत प्यार करता था। उसने घोषणा करवाई कि जो हकीम उसके बेटे को फिर से जीवित कर देगा उसे वो अपनी कुक्षी की अंगूठी दे देगा। अंगूठी के लालच में बहुत से हकीमों ने अपने हाथ आजमाए पर कोई उसे जीवित न कर पाया। निराश राजा उसे दफनाने ले जाने लगा। तभी एक हक़ीम आया और उसने राजा से कहा कि वैसे तो तुम्हारे बेटे की आयु ख़त्म हो चुकी है लेकिन अगर तुम अपनी कुछ आयु अपने बेटे को दान करने के लिए तैयार हो तो मैं उसे जीवित कर सकता हूँ। राजा अपनी आधी आयु देने को तैयार हो गया। हकीम ने अपने एक हाथ से राजा का हाथ पकड़ा और दूसरे से उसके बेटे का। उसने राजा की आधी उम्र उसके बेटे को दे दी। बेटा जीवित हो उठा। वचनानुसार राजा ने कुक्षी की अंगूठी हकीम को दे दी। हकीम चला गया। राजा ने सोचा कि अगर वो हकीम से ये विद्या सीख ले तो वो अपनी प्रजा से लगान के रूप में आयु की मांग कर सकता है। इस तरह वो और उसका बेटा अमर हो जाएंगे। उसने अपने एक गुप्तचर को हकीम का पीछा करने का आदेश दिया। एक दिन उसने गुप्तचर के माध्यम से हकीम को फिर बुलवाया। हकीम दोबारा पहुंचा तो राजा ने उसकी विद्या सीखने की इच्छा ज़ाहिर की, लेक़िन हक़ीम ने मना कर दिया। राजा ने उसे बंदी बना लिया। उसकी कुटिया की तलाशी ली गई, लेकिन उम्र बढ़ाने की विद्या सम्बन्धित कोई किताब या दस्तावेज़ वहां न मिला। लेकिन वहां कुक्षी की अंगूठी मिली जो एक छोटे संदूक में बन्द थी। सन्दूक में एक किताब भी थी जिससे उसे पता चला कि हक़ीम ने उस अंगूठी को अपराजेय बनाया है। अंगूठी को इस्तेमाल करने की विधि भी किताब में थी। राजा ने अंगूठी पहन ली। अगले दिन राजा हकीम से मिलने कारागार गया। हक़ीम  ने जैसे ही राजा की उंगली में अंगूठी देखी, वो वहीं मर गया। उसके मरते ही अंगूठी तप कर लाल हो गयी। राजा की उंगली जल गयी। राजा ने अंगूठी उतार कर ज़मीन पर फेंक दी। अंगूठी थोड़ी देर में ठण्डी हो गई लेकिन किसी श्राप के डर से राजा उसे पहनने से डरने लगा। उसने उसे संदूक में किताब समेत वापस रख कर जंगल में दफना दिया। कुछ दिन बाद राजा और उसका बेटा मर गये लेकिन वो अंगूठी आज भी दारुक में कहीं दफ्न है।

दंतकथा चाहे जो कहती हो, लेकिन एक कुक्षी ने प्रांत और उस नीपल की किस्मत ही बदल दी थी। कुक्षी ने कई मुहावरों और कहावतों को भी जन्म दिया। जैसे कुक्षी तराशना, जिसका मतलब था कोई बहुत पेचीदा काम करना। एक कहावत थी - खंडित कुक्षी से रंगोली ही बनती है। कोई बेवकूफी कर दे तो कहते - बुलबुला उड़ा दिया। यहाँ तक कि जब नीप तलाशने सागर का रुख़ करते तो देवी जीवा से कुक्षी दिखलाने की दुआ मांगते। जीवा हमारी आराध्या थी। जीवाल मछलियों को देवी जीवा का ही रूप माना जाता था और इसलिए उन्हें पवित्र भी माना जाता था। मछली को खाने के पहले भी देवी का शुक्रिया ज़रूर अदा किया जाता।


नीप का कारोबार बहुत बड़ा था। गांव के बाहर पूर्व दिशा की ओर एक जंगल था। लकड़ा कारोबारी जंगल से लकड़ा लाते और बाज़ार में बेचते। लकड़ा बाज़ार वहीं जंगल के मुहाने पर ही था। मेरे नाना भी एक लकड़ा कारोबारी थे। कई बार दिन के वक्त उनके पास जाता था। वे बताते थे कि दो तरह के लकड़े ही ज़्यादा मांग थे। एक तो मोटे लकड़े जो नाव और मंधारा बनाने मे इस्तेमाल होते थे। दूसरे, हरे बाँस; लम्बे और लचकदार; झामी बनाने के लिए। नीप तलाशने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले जहाज को मंधारा कहा जाता। मंधारा एक बहुत बड़ा जहाज था। मैं भी कई बार बाबा के साथ मंधारा पर गया था। बाबा एक गोताख़ोर थे। जहाज पर तीन तरह के लोग होते थे। एक तो जहाज चलाने वाले, दूसरे गोताखोर और तीसरे कहलाते थे तर्रे जो झामी कसते थे और बाकी के काम करते थे। झामी एक बहुत बड़ा गुब्बारा था जो बाँस के एक ढाँचे के ऊपर गाय के चमड़े को चढ़ा कर बनाया जाता था। बाबा दूसरे गोताखोरों के साथ इसमें बैठते और पानी के नीचे जाते। नीचे जाने के लिए इसमें चारों ओर लगे जाल में भारी पत्थर रखे जाते। पत्थर के वजन से गुब्बारा नीचे जाता और नीचे गोताखोरों के लिए एक ठिकाने की तरह इस्तेमाल में आता। जैसे किसी बाल्टी में बर्तन को उल्टा कर के दबाने पर अंदर की हवा बाहर नहीं निकलती, उसी तर्ज़ पर झामी काम करता। गोतोख़ोर गोता लगाने के पहले गर्वासी भी पहन लेते। गर्वासी एक ख़ून चूसने वाली काई थी। उसे कलाई में लपेटा जाता। बाबा बताते थे कि इसकी वजह से पानी में साँस जल्दी नहीं फूलती। शायद ख़ून के बदले हवा देती हो गर्वासी। एक बार उत्सुकतावश में मैंने भी लपेट लिया था उसे अपनी कलाई पर। ऐसा लगा कितनी सौ चींटियाँ एक साथ काट रहीं हों। घबरा कर मैं उसे खींचने लगा। लेकिन खींचने से वो और ज़ोर से चिपक जाती। मैं डर से चिल्लाने लगा। बाबा और दूसरे गोताखोर हंसने लगे। बाबा ने उसे धीरे-धीरे निकाला तो आराम से निकल गई। उस दिन मैंने सोचा कि गोताख़ोर तो नहीं बन सकता मैं। बगैर सांस के बहुत देर तक गर्वासी के भरोसे रहना आसान न था। गर्वासी को बर्दाश्त करने के लिए भी बहुत शान्त मन चाहिये। 

Wednesday, November 18, 2015

ययाति के मिथक (उपन्यास) - 1

नियति क्या है? क्या ये महत्त्वपूर्ण है? क्योंकि जब आप नियति की बात करते हैं तो किरदार गौण हो जाते हैं। लेकिन वे किरदार ही हैं जो अपनी-अपनी ज़िंदगियों के सिरों को जोड़कर नियति को गढ़ते हैं। शब्दों से इतर कहानी क्या है? अगर नुक्ते  और लकीरें, मात्राओं, हलन्तों और अक्षरों की शक्लें अख़्तियार ना करें तो क्या शब्द बनेंगे? और शब्द अगर हजारों, लाखों की तादात में एक के बाजू एक खड़े ना हों तो क्या कहानी बनेगी? या फिर ये कहानी स्वयं ही थी जो व्यक्त होना चाहती थी और इस कड़ी में सबसे पहले नुक्ते और लकीरें अवतरित हुए। फिर उन नुक्तों और लकीरों ने मात्राओं, हलन्तों और अक्षरों को जन्मा जिन्होनें फिर मिल कर शब्द बनाए, और फिर उन शब्दों ने मिलकर कहानी। तो क्या ये माना जाये कि कहानी तो  तब से मौजूद थी जब नुक्ते और लकीरें हुआ भी नहीं करते थे। नियति।

आज ययाति को आज़ाद हुए पूरा एक साल हो गया है। मेरी कहानी इस मुक्ति संग्राम की कहानी भी है। कहानी जब काल्पनिक होती है तो सुनाने वाले की कल्पना पर निर्भर करती है। परंतु जो कहानियाँ वास्तविक होतीं हैं वो सुनाने वाले के नज़रिये पर निर्भर करतीं हैं। हम सभी अपनी अपनी ज़िंदगियाँ अपने अपने आयामों में जीते हैं लेकिन ये आयाम जब आपस में एक दूसरे से टकराते हैं, उलझते हैं, मिलते जुलते हैं, तो उनसे बने कोनों में, कोटकों में और पोरों में छुपी होती हैं कहानियाँ। सुनाने वाला उन पोरों को टटोलता है, कुरेदता है और उस कहानी को सबके सामने लाता है। ययाति की कहानी मेरा अपना दृष्टिकोण है। इस ग्रह पर लाखों लोग हैं और इस कहानी के शब्द उनकी ज़िंदगियों के ऊपर उकर के बने हैं। वे तमाम ज़िंदगियाँ इस कहानी में अक्षरों, हिज्जों, हलन्तों, मात्राओं, लकीरों और नुक्तों के रूप में मौजूद हैं। लिहाजा सबके पास अवश्य ही अपना एक संस्करण होगा। ये मेरा संस्करण है। ये संस्करण इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि वो मैं ही था जिसने इस संग्राम की नींव रखी थी। जटायु में। मेरा नाम धनंजय है। मैं नाम्बी का रहने वाला हूँ। 

हमारी ज़िंदगियाँ हमारे द्वारा किए गए चुनावों पर आगे बढ़ती रहतीं हैं। लेकिन परिस्थितियाँ... वे परिस्थितियाँ जिनमें हम चुनाव के लिए बाध्य होते हैं, अक्सर ही किसी अन्य के चुनाव का परिणाम होती हैं। हम सभी को बचपन में जो परिवेश मिलता है या यूं कहें कि ज़िंदगी की जो शुरुआती परिस्थितियाँ मिलती हैं, वे उस ग्रह पर उत्पन्न समूची परिस्थियों और उनकी कोख से फूटे समूचे चुनावों का समग्र परिणाम होती हैं। मुझे मेरा बचपन नाम्बी महाद्वीप के ईवध देश में मिला था। ईवध के पश्चिमी छोर पर थीओडो सागर के किनारे एक गाँव है अक्षज, जहां एक नीपल परिवार में मेरा जन्म हुआ। हमारा गाँव पूरे ईवध में खूबसूरत परछाइयों के गाँव के नाम से प्रसिद्ध था। रात में जब सागर में यावी की रोशनी पड़ती तो गाँव की दीवारों पर पानी की रंग बिरंगी परछाइयाँ तैरने लगतीं। रात में सोने के वक़्त बाबा चिमनी बुझाते तो सामने की दीवार पर रंग बिखर जाते। ये रंग दरअसल सागर में पड़े नीपों की वजह से आया करते। बाबा बताते कि सागर के इस हिस्से में जीवाल मछली रहती है। बाकी सारी मछलियाँ अपने अंडों को तोड़कर बाहर जातीं हैं लेकिन जीवाल मछलियाँ अपने अंडों को कभी नहीं तोड़तीं। ये अंडे ही नीप कहलाते। जैसे जैसे अंडे के अंदर जीवाल मछली बड़ी होती नीप में एक गोल छेद आकार लेने लगता। जब मछली पूरी तरह बड़ी हो जाती तब तक उसका नीप भी पक जाता और मजबूत हो जाता। सिर्फ एक झिल्ली से उसका मुंह ढंका रहता। मछली झिल्ली तोड़कर बाहर जा जाती लेकिन ताउम्र उसी नीप में रहती। वह नीप ही उसका घर होता। धीरे धीरे ये नीप अलग अलग रंगों में बदल जाते, हल्के पारदर्शी हो जाते, चमकने भी लगते और रात में जब यावी की रोशनी पड़ती तो दूर गावों की दीवारों तक अपने अस्तित्व की गूंज को बिखेरते। मुझे वे झिलमिलातीं परछाइयाँ बहुत अच्छी लगतीं। रात को देर तलक सामने की दीवार पर उन्हें देखा करता। कई बार मैं उन्हें देखने छत पर चढ़ जाता जहां से ऐसा लगता कि पूरा गाँव ही जलमग्न हो। कभी कभी रात में किनारे पर भी चला जाता। वहाँ से समंदर बहुत खूबसूरत दिखाई पड़ता। किनारे की तरफ के उथले पानी में चमक ज़्यादा होती जबकि आगे जैसे जैसे पानी गहराता जाता चमक भी मद्ध्म पड़ती जाती। उन रोशनियों की वजह से हमारे गाँव में अंधेरा सिर्फ अमावस को होता जब यावी की रोशनी होती। मुझे अमावस बिलकुल भी पसंद नहीं थी। लेकिन पूनम की रात जब यावी अपने पूरे रूप में होता तो लगता जैसे आसमान में नीपों का  सरदार गया हो और अपने सरदार को देखकर सारे नीप दुगनी ताकत से अंधेरे को परास्त करने में जुट जाते। यूं तो हर रात ही समन्दर किनारे जश्न की होती पर पूनम की रात बहुत ज़्यादा चहल पहल वाली हुअा करती। हम सब बच्चे किनारे की रेत पर दौड़ते, रेंगते अौर रेत में नीप ढूंढते। बच्चों को नीपों के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं थी। हम सब दौड़-दौड़ के बड़ों के पास जाते और उन्हें अपने खोजे नीप दिखलाते और इस उम्मीद में उनका मुंह ताकते कि वो कह दें कि ये नीप तो नायाब है, लेकिन वो कभी नहीं कहते। वे नीप भले ही नायाब ना रहे हों लेकिन ग़ुज़रते वक्त के साथ लम्हें ज़रूर नायाब हो जाते हैं। आज जब उस समय के बारे में सोचता हूं तो लगता है जाने किस युग की बात हो। कुछ भी तो ऐसा नहीं था, जैसा अब है। जैसे जैसे सवेरा होता, इरा की रोशनी वक्त की चादर की तरह आती और समेट लेती सारे रंगों को और रह जातीं यादें, लम्हों सी झिलमिलाती, कुछ हमारे भीतर, कुछ सागर की सतह पर। 


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उपन्यास लेखन का यह मेरा प्रथम प्रयास है। हर हफ्ते एक भाग पोस्ट कर सकूं, ऐसी अाशा है।

Saturday, February 21, 2015

लकीरें




सीधी सही पर 
बड़ी पेचीदा होती हैं 
कभी कच्ची 
तो कभी 
गाढ़ी होती हैं 
लकीरें 

वो 
जो कच्ची होती हैं 
खिंचती हैं 
काली सी स्लेट पर 
और फिर जब 
स्लेट को छोड़ दो 
रख दो कहीं 
बस यूं ही ख़ुद-ब-ख़ुद 
धुंधला जाती हैं 
लकीरें 

कुछ लकीरें 
जब उकरतीं हैं 
रेत के अखाड़े  में 
और बनाती हैं पाला 
कबड्डी का 
हँसते हैं सभी 
खिलखिलाते हैं 
जब टूटती हैं साँसें 
और बद जाता है दाम 
फिर जब 
चलती है हवा अखाड़े में 
तो मिट जाते हैं 
पैरों, पंजों और एड़ियों के 
निशाँ 
और मिट जाती हैं 
लकीरें भी 

लेकिन एक बार हमने 
बनायी थी इक लकीर 
कबड्डी की नहीं 
सरहदों की लकीर 
उस रोज़ भी 
टूटी थीं साँसें 
लेकिन इस बार 
बहुत सा ख़ून भी 
उमड़ आया था उसमें 
जिसने 
कर दिया था गाढ़ा 
उन लकीरों को 

कुछ सरफ़िरों ने सोचा भी 
कि चलो लाते हैं 
कोई पोछा बड़ा सा 
और मिटा देते हैं 
इन लकीरों को 
पर 
लाल हो गया पोछा भी 
जब पड़ा वो 
उस लकीर पे 
तब 
और भी ताज़ी हो गयीं 
लकीरें 
और भी गाढ़ी हो गयीं 
लकीरें 

Friday, February 20, 2015

मेरे सामने वाली दिल्ली में




मेरे सामने वाली दिल्ली में 
मेरे देश का PM रहता है 
अफ़सोस ये है कि वो हरदम 
बस गुजरात गुजरात रटता है 

MRS Srisena भी चली गयी 
बराक भी आकर चला गया 
जब सूट की controversy बढ़ी  
सारा उद्योग जगत भी उमड़ गया 
अब आया जा के समझ मेरी 
जो दिखता है वो बिकता है 

तीस्ता के पीछे पुलिस पड़ी 
बिहार में मांझी की crisis बढ़ी 
चर्च जलते रहे पूरी दिल्ली में 
पर इनके मुंह से ना पट्टी हटी 
अब छप्पन इंच का सीना भी 
बस कोरा #Jumla लगता है 

Tuesday, February 17, 2015

जहांआरा




खुद की ही इमारत में 
वो क़ैद होकर रह गया
झाँकता अब किस तरफ
बस कसमसाकर रह गया

तराशा था उसने कभी
मुहब्बतों से इक निशां
आखिरी लम्हों में वो खुद
नफ़रतों से ढह गया

पिंजरे में है उसके लेकिन
खिड़की भी एक छोटी सी
खुद की क़बर से खुद की क़बर को
देखता वो रह गया

कभी देखता बेड़ियों को
कभी जहांआरा को
मेरी बेटी मेरी बेटी
कहता ही वो रह गया
ज़िल्लतें सब सह गया

Saturday, February 7, 2015

लो फिर आया केजरीवाला


दिल का हाल कहे दिलवाला 
सीधी सी बात न मिर्च मसाला 
कह के रहेगा कहने वाला 
दिल का हाल कहे दिलवाला 

दोनों हाथों से सब्सिडी दे दी 
ऐसी तैसी सारे बजट की 
खाली होने लगा सारा खज़ाना 
भागना पड़ गया कर के बहाना 
भाग के जब लेकिन वापस आया 
कांग्रेस ने अब की ठेंगा दिखाया 
डेमोक्रेसी का सर्कस है ये 
लो फिर आया केजरीवाला 
कह के रहेगा कहने वाला 
दिल का हाल कहे दिलवाला 

Friday, February 6, 2015

दिल का हाल कहे दिलवाला



दिल का हाल कहे दिलवाला
सीधी सी बात न मिर्च मसाला
कह के रहेगा कहने वाला
दिल का हाल कहे दिलवाला

तेरे को लेने मैं एयरपोर्ट आया
चाय भी अपने हाथों बनाया
लाखों रुपैये के सूट में आया
रेडियो पे मन की बात कराया
वापस जा के भूल गया तू
न्युक्लीअर डील को भूल गया तू
गांधी की मुझको दे दी दुहाई
बराक ये तूने क्या कर डाला
कह के रहेगा कहने वाला
दिल का हाल कहे दिलवाला

डेमोक्रेसी की वाट लग गयी
जनता की सब खाट लग गयी
आधा ले के गया अडानी
बाक़ी आधा गया अम्बानी
अब सुनो ये गड़बड़ झाला
बाँध के पट्टी मुंह पर ताला
वापस घूम के आएगा सब
थोड़ा सा चेक में बाक़ी हवाला
कह के रहेगा कहने वाला
दिल की हाल कहे दिलवाला