धड़ाक! रोज़ की तरह आज सुबह
भी अख़बार इसी आवाज़ के साथ मेरे दरवाज़े से टकराया। अख़बार के एडिटोरियल पन्ने पर छपे
अपने लेख को देखकर लगा कि वक़्त के तालाब में एक लहर मुझसे आ टकराई है। इतने दिन इस क़दर मसरूफ़ रही कि तुम्हें कुछ बताने का वक़्त ही नहीं मिला। आज छपे इस लेख की कहानी
शुरू हुई थी पिछले महीने। एक उमस भरी भारी सुबह जब मैं प्रवीण के साथ घर वापस लौटी
थी। ज़िंदगी की वो पहली रात थी जो मैंने जेल में काटी थी। प्रवीण रात भर जेल के
बाहर ही रहा। गाड़ी उसने ठीक मेन गेट के सामने ही रोकी। मेन गेट की डलिया में दूध
के पैकेट पड़े थे। गेट के भीतर सुबह का अखबार। आँगन की लाइट जल रही थी। पानी की
टंकी ओवेरफ़्लो हो रही थी। गाड़ी से उतरते ही सबसे पहले मेरे दिमाग में अख़बारी
दुनियादारी घूमने लगी। मैं सोचने लगी कि इसमें मेरे बारे में क्या छपा होगा! तभी
मेरे निगाह बालकनी की मुंडेर पर बैठे एक नीलकंठ पर पड़ी। मुझे नानी की याद आ गई। वो
कहती थी कि नीलकंठ शंकर भगवान का प्रतीक है। जब भी वो दिखे उसके हाथ जोड़ो। सहसा
मुझे लगा कि क्या मैं प्रतीकों में यक़ीन करने लगी हूँ!
या फिर ये एक भारी मन की सनक से ज़्यादा कुछ नहीं था। प्रवीण लगातार बोलता ही जा
रहा था। लगता था कि उसने अपने मुंह को किसी मटके में बंद कर लिया था और मेरे भारी
मन पर चढ़ा कोई भारी भरकम डिफ़्लेक्टर उसकी मटमैली तरंगों को पृष्ठभूमि में भेजता जा
रहा था। वो कहता जा रहा था कि परेशान होने की कोई बात नहीं है। हम लोग हार नहीं
मानेंगे। अभी और भी बहुत कुछ करना है। और उसने ये भी बताया कि उसने शाम को कोई
मीटिंग भी रखी है।
जीवन में कभी जेल भी जाना
पड़ेगा, ऐसा ख़याल कभी सपने में भी नहीं आया था। माध्यम-वर्गीय परवरिश
में जेल की अवधारणा के साथ एक अपराध की अवधारणा भी जोड़ दी जाती है। लेकिन परवरिश
ख़त्म होने के बाद दुनियादारी आते आते आती है। समझ आता है कि एक चीज़ अपराध है और एक
चीज़ जेल। और कई बार तो इन दोनों का आपस में कोई तआल्लुक भी नहीं होता। अपराधी अगर
एक अरबपति घोटालेबाज़ हो तो वो विदेश जा सकता है और शान-ओ-शौकत से रह सकता है।
सरकार के मंत्री खुद उन्हें सी-ऑफ करने एयरपोर्ट तक जा सकते हैं। अपराधी अगर कोई
राजनेता हो तो हो सकता है कि वो आपको सदन के भीतर गरीबी और भुखमरी पर चिंता व्यक्त
करता मिल जाये। और अगर जो अपराधी कोई मल्टी-बिलियन कॉर्पोरेट घराना हुआ,
तब तो सरकार ख़ुद अपनी पूरी सैनिक ताक़त अपनी ही अवाम से उनके जंगल और उनका पानी
छीनने के लिए झोंक सकती है। राजद्रोह जैसे क़ानून से सरकारें अपने खिलाफ उठती आवाज़
को दबा भी सकतीं हैं और आवाज़ उठाने वाला तुरंत ही एक अपराधी घोषित हो जाता है।
मानहानि के क़ानून से उद्योगपति अपने खिलाफ उठती उँगलियों को अपने ही स्तर पर मरोड़
सकते हैं। और तंत्र के इस तरकश का ब्रम्हास्त्र – अदालत की अवमानना का क़ानून।
अदालतें अपनी आलोचना को जैसे चाहें वैसे कुचल सकतीं हैं। उसके फ़ैसलों की समीक्षा
में सिर्फ उसकी तारीफ के क़सीदे पढे जा सकते हैं। जो आलोचना है भी तो बहुत ज़रूरी है
कि कौन कर रहा है ये आलोचना! कहीं कोई ऐसा तो नहीं जो मज़लूमों के हक़ में कुछ रहा
हो जो कॉर्पोरेट के खिलाफ जा रहा हो। कहीं कोई ऐसा तो नहीं जिसके पास अपना ख़ुद का
एक दर्शक/पाठक वर्ग हो! रात भर मैं जेल में यही सब सोचती रही। और अपने उस लेख के
बारे में भी सोचने लगी जो मेरे दराज़ में पड़ा प्रिंट में जाने का इंतज़ार कर रहा था।
मुझे मालूम था कि इस एक रात की क़ैद का तमाशा मुझे डराने के लिए रचा गया था। मैं
वाक़ई डर गई थी।
जब मैं प्रवीण की गाड़ी से
उतर रही थी, तब हमारे बाजू से एक सफ़ेद रंग की सिडैन गाड़ी
गुज़री। उसकी आधी खुली खिड़की से एक धुन सुनाई दी। धुन बेहद हल्की थी और सिर्फ चंद
सेकंडों तक ही वो सुनाई दी। ऐसा लगा कि वो धुन मेरे अतीत से आ रही हो। मुझे पक्का
यकीन था कि बचपन में नानी के घर में इस धुन का गाना मैंने सुना था। गाड़ी दूर जा
रही थी और मेरे इंद्रियाँ उस धुन का पीछा करने की कोशिश कर रहीं थीं। गाड़ी का ओझल
होना जैसे एक अपशगुन सा लगा। लगा कि वो तरंगें मेरे भीतर से कुछ ले कर चली गईं। भारी
मन की एक और सनक? धुन के ओझल होते ही प्रवीण की मटमैली दलीलें
दोबारा फ़ोरग्राउंड पर मचलने लगीं। मैंने उसकी जवाबी कारवाही की दलीलों को बीच में ही काटते हुए
पूछ – ‘तुम्हें ये धुन याद है? किस गाने की है?’
- ‘धुन?
कौन-सी धुन?’
- ‘अच्छा
अभी मुझे अकेला छोड़ दो। मुझे कुछ वक़्त चाहिए ख़ुद को बटोरने का। मैं तुमको फोन
करूंगी’
प्रवीण चला गया। और मैं
ताला खोलकर भीतर आ गई। सबसे पहले मेरी नज़र मेज़ पर रखी पानी की बोतल पर पड़ी। पहले
नीलकंठ, फिर वो धुन और अब ये बोतल! ये तीसरी दफ़ा मुझे नानी की याद आई
थी। पापा के गुज़र जाने के बाद मम्मी मुझे नानी-घर ले गई थी। तब मेरे उमर कोई नौ-दस
बरस रही होगी। उस दोपहर को मुझे पापा की बहुत याद आ रही थी। नानी ने मुझे एक काँच
की बोतल दी। मैंने पापा को एक चिट्ठी लिखी और उस बोतल में बंद
कर दी। फिर हमने उसे पीछे बहती नदी की लहरों पर बहा दिया। नानी ने बताया कि ये
लहरें इस दुनिया और उस दुनिया को जोड़ती हैं। जब भी कोई त्योहार होता है तो अंत में
सारे देवी-देवता इन्हीं लहरों पर विसर्जित किए जाते हैं अपनी दुनिया में वापस जाने
के लिए। जब कोई मनोकामना मांगनी होती है तो उसके निमित्त एक दीपक जलाकर इन्हीं
लहरों पर विसर्जित करना होता है। मरने के बाद अस्थियों को भी इन्हीं लहरों पर
बहाया जाता है उस दुनिया में भेजने के लिए। नानी कहती थी कि समय का बहाव भी एक
बहती नदी की तरह है। और कई बार हमारे किए गए कामों से जो तरंगें बिछतीं हैं वो
वापस हम से ही आ टकरातीं हैं। उस दिन बहती बोतल को देखकर लगा कि जो मैं कर सकती थी,
मैंने कर दिया। उसके बाद शायद दोबारा पापा को चिट्ठी लिखने की ज़रूरत नहीं महसूस
हुई। लेकिन उस भारी सुबह मेज़ पर रखी बोतल से शायद कोई तरंग उठी और मुझसे आ टकराई।
मन में एक सनक ने करवट ली। मुझे नानी घर जाना है।
मैंने अपना बैग तैयार करना
शुरू किया। प्रवीण को मैसेज कर दिया कि मैं बाहर जा रही हूँ। आगे क्या करना है लौट
कर बताऊँगी। उसने मेरे नए लेख के बारे में पूछा कि प्रिंट में दिया कि नहीं। मैंने
कहा – ‘वापस आ कर भेजूँगी’। मैंने अपने मेज़ की दराज़ खोली। मेरा अमूर्त्य डर
स्थूल रूप में साक्षात मेरे ही लेख के रूप में सामने था। कहते हैं कि संस्थान
घुटने तोड़ देते हैं और उस भारी सुबह मेटाफर ने अपना आभासी रूप तोड़ दिया था। अपने
घुटने मुझे वाक़ई लड़खड़ाते लगे। अब मैं दोबारा खड़ी हो पाऊँगी या नहीं,
चल पाऊँगी या नहीं, ये फैसला मुझे करना था।
बस में मुझे एक खिड़की वाली
सीट मिल गई। बहुत देर तक पीछे भागते गाँव देखती रही। उन्हें देखते-देखते उन गांवों
की याद ताज़ा हो आई, जहां ये सारा सिलसिला शुरू हुआ था। आँखों में
तैरने लगे दूर-दूर तक खाली गांवों के दृश्य। कानों में पानी की लहरों की तरंगें
टकराने लगीं। नज़र आए खाली पड़े मकान, जिनमें बसे लोग तब जा चुके थे। खाली मकानों के
बाहर छोटे-छोटे काठ के खूँटे जो अपने मवेशियों के बगैर सूने खड़े थे। सुनसान मंदिर
और उनके ऊपर फड़फड़ाते सुनसान से लाल झंडे। उन मंदिरों में अपनी जलसमाधि का इंतज़ार
करती हुईं सुनसान मूर्तियाँ। बांध के फाटक खुल चुके थे। पानी की लहरें इधर-उधर भटकतीं
अपना रास्ता खोज रहीं थीं। लहरें! उस दुनिया से इस दुनिया में आतीं हुईं! और इस
दुनिया से एक और किसी (नई?, बेहतर?) दुनिया में जाती हुईं। अफवाह फैलाई गई थी कि ‘विकास’
को उन्हीं लहरों पर सवार होकर इस दुनिया में आना था। इस नव-आगंतुक यजमान के स्वागत
के लिए एक सिंहासन सजाया जाना था जिसकी कीमत एक आबादी राष्ट्र-हित के लिए सिर्फ
अदृश्य होकर ही चुका सकती थी। अदालती फरमान हुआ था – ‘अपनी
ज़िंदगियाँ बटोरो और अपनी इतिहास-गाथाओ, अपनी लोक-कथाओं के मलबे को अपने मवेशियों की पीठ
पर लादो और गायब हो जाओ या फिर किसी बोतल में एक चिट्ठी की शक़्ल में सिमट कर बैठ
जाओ और विकास की लहरों पर सवार होकर कहीं (कहाँ?) चले जाओ’।
जो गायब होने का फरमान हुआ तो गायब होना ही पड़ेगा। जो नहीं हुए तो माननीय अदालत की
तौहीन! एक बेदख़ल आबादी पर अवमानना का मुक़द्दमा!
वही दिन था जब मेरा वो लेख
छपा था जिस पर अदालत बहादुर ने स्वतः संज्ञान लेकर मुझ पर माननीय अदालत की अवमानना
का तमगा लगा दिया। ‘तमाम सबूतों और गवाहों के मद्देनज़र ये अदालत इस
नतीजे पर पहुंची है कि ताज़ीरातेहिंद दफ़ा रफा-दफ़ा के तहत मुलजिमा को एक दिन की
क़ैद-ए-बामशक़्क़त और दो हज़ार रुपयों का जुर्माना भरने का हुक़्म देती है। हुक़्म की
तआमील हो।’ क्या आवाम और अदालत की मर्यादा में छतीस का आंकड़ा
है? क्या एक की कीमत पर ही दूसरे की रक्षा हो सकती है?
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वो एक और गुमसुम सुबह थी
जब मैं बस से उतरी। वहाँ की सुबह उतनी भारी नहीं लग रही थी। लगता था रात में बारिश
हुई थी। बस-स्टैंड पर जगह-जगह पानी के चहबच्चे बिखरे पड़े थे। रोशनी धुली हुई थी।
बसें शांत उनींदी सी खड़ीं थीं मानो अभी सो कर न उठीं हों। चाय
की दुकानों से उठती भाप और धू-धू की आवाज़, काँच के गिलासों की खनक,
अख़बार क़रीने से अलग-अलग करतीं गाडियाँ, ताज़ा सब्ज़ियों की बोरियों की उठा-पटक और उनके बीच
लोगों की एक-दूसरे की माँ-बहन करतीं गालियां। पिछली बार जब उस बस-स्टैंड को देखा
था तब मैं बारह-तेरह साल की थी। तेईस साल बाद किसी को क़ायदे से कैसा दिखना चाहिए?
तेईस साल और बूढ़ा? लेकिन पिछली बार वो कैसा दिखता था मुझे याद नहीं
था। मैंने चारों ओर ग़ौर से देखा कि शायद कुछ जाना-पहचाना नज़र आ जाये। मैंने एक ऑटो
लिया और पीताम्बर की बावड़ी की ओर चल दी।
नानी अकेली रहती थी। मामा
बाजू वाले मकान में रहते थे। वो एक दो-मंज़िला कच्चा मकान था जो तेईस साल पहले शहर
से बाहर था और आज भी कमोबेश बाहर ही था। लगता था जैसे चारों ओर फैलते शहर ने उस एक
रास्ते फैलने से इंकार कर दिया हो। मकान अब पहले से थोड़ा जर्जर हो चुका था। दरवाज़ा
अटका हुआ था। मैं उसे खोल कर भीतर आ गई। पीछे की ओर लगे नींबू के झाड़ों की महक ने मेरा
स्वागत किया। हैंडपंप के गीले लोहे और गोबर की लिपाई पर गिरे पानी की महक भी उस महक
में शामिल हो गई। मैं सीढ़ी चढ़ते हुए ऊपर आ गई। घर थोड़ा-बहुत बदल चुका था और थोड़ा-बहुत
वैसा ही था। मुझे उसकी छत भी थोड़ी नीची लगी। लकड़ी के पार्टिशन से बनी रसोई,
बाहर टीन के पतरे के शेड, ऊपर कवेलू की छत। चूल्हा फूंकने की फुंकनी। कोने में
बने लकड़ी के ऊंचे तखत पर बिस्तरों का ढेर, तखत के बाजू में प्याज़ के बोरे। लकड़ी की दीवार पर टंगी
तसवीरों से झाँकते पुरखे और देवी-देवता। पार्टिशन पर टंगा एक आईना,
बाजू में रखी कंघियाँ, तेल के खाली-भरे डिब्बे,
बोरोप्लस की आधी पिचकी ट्यूब। एक लकड़ी का झूला और बाजू में लकड़ी की एक आराम कुर्सी।
नानी घर पर नहीं थी। मैं आराम
कुर्सी पर बैठ गई। आँख बंद करते ही मैं सोचने लगी कि मैं यहाँ क्यों आई हूँ। एक नीलकंठ,
एक धुन, एक बोतल और एक सनक! क्या मैं अपनी दुनियावी सच्चाईयों से भाग रही
हूँ? क्या हमारे कारनामें वाक़ई कोई लहर बनाते हैं?
क्या वो लहरें कभी हमसे आकर टकरातीं हैं? उन लहरों के उस छोर क्या है?
इन लहरों का पीछा करते-करते कितने लोग बीच ही में डूब जाते हैं?
यही सोचते-सोचते मैंने अपना लेख बैग से निकाला। मैं सोचने लगी कि अगर मैं नानी-घर ना
आती तो प्रवीण और बाक़ी लोग आगे की कारवाही की बात करते। इस लेख को भए छपने भेजने को
कहते। और मैं शायद सबके सामने एक डरपोक, एक छद्म एक्टिविस्ट साबित होती। क्या मैंने अपने लिए
कोई नकली भूमिका गढ़ ली है? एक मुखौटा? मैं यही सब सोच रही थी कि तभी दरवाज़े पर आहट हुई। शायद
नानी आ गईं थीं।
- ‘अरे!
तुम आ गईं?’ नानी दरवाज़े से भीतर आती हुई बोली। मैं खड़े होकर गले
मिलती, इससे पहले उन्होनें मेरे मायूस चेहरे को देख लिया था। उन्हें मेरे
जेल की ख़बर भी पता थी। मैं उनसे गले मिलने ही वाली थी तभी उनके मोबाइल की घंटी बज उठी।
उनकी रिंगटोन में वही धुन सेट थी जो उस भारी सुबह मुझे सुनाई दी थी।
उस वक़्त मुझे लगा कि एक लहर वाक़ई मुझसे आ टकराई है। मुझे लगने लगा कि मैं ठीक वहीं हूँ जहां उस वक़्त
मुझे होना चाहिए। सारा धुंध छंट चुका था। मोबाइल रखकर उन्होनें मेरा चेहरा अपने हाथों में
लिया और बोलीं – ‘चल! अब यहाँ आ गई है ना! सब ठीक हो जाएया!’
और मैंने कहा – ‘जानती हूँ नानी! इसीलिए तो आपके पास आई हूँ’।