वे कोई बहुत बड़े नेता नहीं थे। अपने मोहल्ले में ही ज़्यादातर नेतागिरी चलती रहती थी। और नेतागिरी भी क्या! छुटभैयापन कहिए। पढ़ाई उन्होनें बीच में ही छोड़ दी थी तो कानून की ज़्यादा समझ थी ही नहीं। उनकी युगदृष्टि में नेता होने का अर्थ दबंग से अधिक नहीं था। प्रजातन्त्र में विधायिका की ज़िम्मेदारी के बारे में उन्होनें कभी कोई चिंतन नहीं किया था। वे चुनाव-प्रचारों पर मरे-मिटे जाते थे। उनके लिए नेतागिरी की सफलता तो तभी थी जब विपक्षी उम्मेदवार की ज़मानत ज़ब्त हो जाए। उन्होनें पार्षदी का चुनाव भी ऐसे लड़ा था जैसे कोई प्रधानमंत्री का चुनाव हो।
मोहल्ले की चौपाल पर भाषण देने के लिए भी वो कई-कई बार रिहर्सल करते। मोहल्ले की मस्जिद के मौलवी से ऊर्दू मिश्रित हिन्दी में मैटर तैयार करवाते। भाषण के बीच-बीच में शेर-ओ-शायरी के भी छींटे होते ताकि लोग बिलकुल भी ऊब महसूस ना कर सकें। उनके पार्षदी के चुनावी भाषण में भी देश की सीमा पर लड़ रहे जवानों का ज़िक्र होता, पाकिस्तान का ज़िक्र होता। अगर कोई ऑफ-स्टेज उनकी हिपोक्रिसी की ओर ध्यान दिलाता तो वे कहते कि भैये! चुनाव लड़ना, भाषण देना एक आर्ट है और हर आर्ट का एक शिल्प होता है और हर शिल्प के अपने एलेमेंस्ट्स (elements) होते हैं। जैसे बिरयानी में बग़ैर दम के कोई दम नहीं रहता, वैसे ही पाकिस्तान के बिना चुनावी भाषण का भी दम निकल जाता है।
ख़ैर! नेताजी पार्शदी का चुनाव जीत गए, लेकिन उसके बाद उन्हें समझ आया कि केवल छिटपुट-छिटपुट पाकिस्तान-पाकिस्तान करने से कुछ नहीं होगा! थोड़ा अग्रेशन लाना होगा। उन्होनें प्रदेश की राजधानी के दफ़्तर में आवागमन बढ़ाया। जब भी राजधानी में किसी पुस्तक-विमोचन का विरोध करना हो, कोई बंद ओरगानाइज़ करवाना हो या कोई पुतला जलाना हो नेताजी ओवरनाइट ट्रेन से राजधानी पहुँच जाते। प्रदेश-अध्यक्ष जी के भाषणों को वे बार-बार सुना करते। अपने भाषणों की रचना पर भी विशेष ध्यान देते। देश के ताज़ा मुद्दों पर एक दो भाषण तो हमेशा ही रेडी रखते। अपने भाषण के मैटर के लिए अध्यक्ष जी के तमाम भाषण और साक्षात्कार चाट डालते। लेकिन एक पार्षद चाहकर भी कितने ही भाषण दे पाता।
एक दिन उन्होनें एक नई स्ट्रेटजी के तहत लोकल न्यूज़ चैनल को एक मूर्खतापूर्ण बयान दे ही डाला। सोशल मीडिया में लोग खिल्ली उड़ाने लगे, उनके नाम पर चुटकुले और मीम्स (memes) बनने लगे। विपक्ष ने उनको प्रॉक्सी ले कर उनकी पार्टी को मूर्खों की पार्टी घोषित करने का ट्विटर-आंदोलन छेड़ दिया। कुछ कार्टून आर्टिस्टों ने तो ऐसे कार्टून बनाए जिनमें नेताजी और अध्यक्ष जी दोनों को एक ही फ्रेम में डाल दिया। नेताजी तो ख़ैर एक मामूली पार्षद थे, असल खिल्ली तो अध्यक्ष जी की उड़ रही थी।
और इस तरह नेताजी अध्यक्ष जी की नज़रों में आ ही गए। अध्यक्ष जी ने जब अख़बारी कार्टून और सोशल मीडिया मीम्स देखे तो चंद गुर्गे लगा दिये नेताजी के मूर्खतापूर्ण बयान को डिफेंड करने के लिए। यही मौका था कि जब पार्टी के आईटी सेल में नेताजी के चर्चे होने लगे। नेताजी ने तत्काल एक ओजस्वी वीडियो बनाया जिसमें पाकिस्तान को प्रॉक्सी लेकर मुसलमानों को दिल खोल कर गालियां दीं। नेताजी सोशल मीडिया में छाने लग गए। सेनसेशनल बनते ही नेताजी की महत्त्वाकांक्षाएँ कुलांचें मारने लग गईं। विधान सभा चुनाव आए, टिकट वितरण हुआ लेकिन तब पार्षद जी को उनकी औक़ात दिखा दी गई।
नेताजी टिकट ना मिल पाने से निराश तो ज़रूर हुए लेकिन अगले ही दिन विपक्षी ख़ेमे में चले गए। विपक्षी ख़ेमा पिछले कई चुनावों से ये सीट हार रहा था। कोई भी स्थापित कार्यकर्ता इस सीट पर लड़ना नहीं चाहता था। नेताजी को टिकट तो आसानी से मिल गया। लेकिन विपक्षी खेमा अपने आपको सेकुलर-सेकुलर चिल्लाता था। नेताजी ना तो सीमा के सैनिकों की दुहाई दे पा रहे थी, ना पाकिस्तान को प्रॉक्सी लेकर हिन्दू-मुसलमान ही कर पा रहे थे। उनकी बोली में कहें तो उनकी बिरयानी में दम चढ़ ही नहीं पा रहा था। विपक्षी उम्मीदवार ने दिल खोलकर पाकिस्तान-पाकिस्तान किया और नेताजी को पाकिस्तानी एजेंट तक बता डाला।
नेताजी की ज़मानत ज़ब्त हो गई।