खरगोन, मेरा ननिहाल। उसी शहर में मेरी मम्मी का भी ननिहाल है जिसे सब लोग सरमण्डल का बाड़ा कहते हैं। बाड़ा अंग्रेजों के ज़माने की कोई सरकारी इमारत थी शायद। बीचों-बीच एक बड़ी इमारत थी और चारों तरफ चार बाड़े थे। दो आजू-बाजू, एक सामने और एक पीछे। चारों बाड़ों में काफी सारे कमरे थे जिनमें काफी सारे किरायेदार रहते थे। सरमण्डल के बाड़े के भीतर आने के लिए एक बड़ा लाल रंग का लकड़ी का किले-नुमा दरवाज़ा था। पीछे के बाड़े में गाय-भैंसें बांधी जातीं थीं।
मेरा बचपन मेरे दादाजी के ग़ैर-ज़रूरी अनुशासन (या डर?), पापा के ग़ैर-ज़रूरी अनुशासन (या डर?) और अपने ननिहाल की खिलंदड़ ज़िंदगी के बीच झूलता रहा। एक ओर जहां दादाजी के घर में रेडियो पर भी गाने नहीं चलते थे, वहीं दूसरी ओर मेरी मम्मी के ननिहाल में पूरा परिवार बड़े-बड़े स्पीकरों की तेज़ आवाज़ गानों पर देर रात तक नाचा करता था। अपने घर से जब कभी मैं ननिहाल जाया करता था तो एक क़िस्म की आज़ादी महसूस किया करता था। उन गलियों में लगता था कि जैसे दिन कभी गुज़रते नहीं थे, बस आ-आ के वहीं जमा होते जाते थे। भीड़ बढ़ाते जाते थे। और उसी भीड़ में फिर ख़ुद ही बिलबिलाते थे। कभी दुपहिया गाड़ियों पर चढ़कर गुर्राते थे। हॉर्न बजाते थे। फिर उन्हीं के आगे फुदक-फुदक कर बचते निकलते चलते थे। आवारागर्दी करते थे। अकड़ते थे। पान खा कर इधर-उधर थूकते थे। बेशर्मी से ठिठोली करते थे। बेवजह चिल्लाते थे। ज़ोर-ज़ोर से ताल ठोंककर हँसते थे और आखिर उन्हीं गलियों में अपनी बदहवासी समेटे, इधर-उधर भागते बेवकूफ़ पतंगों की तरह कहीं टकराकर ढह जाते थे। रात को लोहे के पतरे और टीन के शटर और लकड़ी के फाटक और चिकनी फ़र्शी के ओटले और तिरपाल के शेड और बिजली के खंबों से फड़फड़ाती चिन्दियाँ और आधी फटी इश्तेहारों की कतरनें सफ़ेद रंग की एक अनमनी ख़ामोशी ओढ़ाने की कोशिश करतीं। लेकिन अगली ही सुबह मस्जिदों के भोपुओं से निकलती अज़ाने उन चादरों को खींच देतीं थीं और उनकी आबादी में एक और दिन जोड़ देती थीं।
बरसात के मौसम में वो दिन काले छातों में अपने सिरों को दुबकाए, रबर की हवाई चप्पलों से गीली मिट्टी के छित्तों को उछालते फिरते थे। पुरानी इमारतों की पुरानी दीवारों पर काई की नई खेती करते थे। उनकी दीवारों पर सरक-सरक कर नक़्शे बनाते थे। कभी पतरे की छतों से रिस-रिस कर भीतर पतीलों में टपकते थे, कभी उन्हीं पतरों से शोर मचाते बाहर रखे ड्रमों में इकट्ठा होते थे। सरकारी बिजली के गुल होने पर उमस भरे अख़बारों के पंखे झलते थे, वर्ग-पहेली भरते थे और जामुन की दरदरी जीभ से बच्चों को चिढ़ाते थे।
गर्मी की छुट्टियों में वो सारे दिन जमा होकर आमों से भरी बाल्टियों के पानी में डूबे रहते और जिन्हें हमें बस निकाल-निकाल के चूसना होता और गुठली को जितनी ताक़त से दूर तलक फेंक सकते फेंकना होता। रात में छत पर बिछे गद्दों पर लेटकर आसमान तकना होता था। कभी एक दूसरे को डरावनी कहानियाँ सुनानी होतीं थीं, कभी टॉयलेट ह्यूमर पर गला फाड़-फाड़ कर हँसना होता था। शादियों के समय आनन-फानन जैसे चिरकुट गानों पर नाचना होता। और ये सब-कुछ साल-दर-साल, हर छुट्टियों में बस होता चला जाता था। लेकिन उन्हीं दिनों एक डॉक्टर ने एक ऑपरेशन में लापरवाही की और वे दिन जिनके बारे में लगता था कि कहीं नहीं जाएंगे, उनमेें से कुछ हमेशा के लिए अलविदा हो गये।
जब हम छोटे होते हैं तो हम बहुत से काम ज़िंदगी में पहली बार करते हैं। और बहुत सी बार हम किसी के जैसे बनने की नकल करते हैं। और बहुत सी बार हम किसी के पिछलग्गू होते हैं। उसके जो हर चीज़ में आपको कूल लगता है। कोई होता है जिसके छोटे हो गए कपड़े पहनते हैं, जिसकी पतंग की घिर्री पकड़ते हैं, बेसिकली हर चीज़ में उसकी साइड-किक बनने की कोशिश करते हैं और साइड-किक होने में गर्व भी महसूस करते हैं। अक्सर लोगों का बड़ा भाई ये रोल प्ले करता है। मेरे लिए वो थे मेरी मम्मी के ममेरे भाई और मेरे (दूर के?) मामा। गोटू मामा। वो मुझसे कुछ ही साल बड़े थे। उनके घर के बाहर वाले कमरे में लकड़ी का एक बड़ा झूला था। वो स्केट्स पहन कर उसके इर्द-गिर्द रोल करते। मैं भी उनके स्केट्स ट्राय करता लेकिन गिर जाता। उसी कमरे की दीवार पर चॉक से तीन लाइने खींचकर विकेट बनाते और वन टिप वन हैंड क्रिकेट खेलते। Desperate खिलाड़ियों का सीमित जगह वाला ये जुगाड़ू क्रिकेट फ़ारमैट मैंने उन्हीं से सीखा था।
उनके मौसाजी अक्सर विदेशों का दौरा किया करते और कभी-कभी उनके लिए वहाँ से चॉकलेट और सिक्के ले आते। उन्होनें कुछ सिक्के मुझे भी दिये थे और शायद अभी तक मेरे मम्मी के पास कहीं रखे हों। सिक्कों पर तो लिखा होता था कि किस देश के हैं लेकिन चॉकलेट के बारे में उनका जवाब काफी जेनेरिक होता - फॉरेन की चॉकलेट हैं। उनके पास कैरम था जिसपर मैंने खेलना सीखा था। बहुत समय तक मैं उसे स्टाइगर बोलता था और उनकी चाल की नकल करने की भी कोशिश करता था।
एक बार उन्होनें गर्मी की छुट्टियों में कॉमिक्स किराए पर देने की दुकान खोली। उन्होनें उसके लिए बाक़ायदा एक ठप्पा सील भी बनवाई थी। उसपर उन्होनें उसे 'वाचनालय' लिखवाया था - अमित वाचनालय। वाचनालय मतलब लाइब्रेरी उन्होनें बताया था। तब मैंने कहा था कि वो पुस्तकालय होता है। उन्होनें बोला था कि वाचनालय मतलब ऐसी लाइब्रेरी जहां बैठकर पढ़ना होता हो। मैंने बोला था - 'लेकिन हमारे यहाँ कोई कहाँ बैठेगा?'। उसके पहले मैं कभी लाइब्रेरी नहीं गया था। हमारे स्कूल में भी कोई लाइब्रेरी नहीं थी। लेकिन यहाँ गर्मियों की छुट्टियों में अमित वाचनालय रोज़ शाम छः बजे खुल जाता। बाड़े के किलेनुमा लाल दरवाजे के बाहर काफी जगह थी। बस वहीं ज़मीन पर पानी छिड़क कर मई-जून की शाम को पहले थोड़ा ठंडा किया जाता और फिर दीवार से बंधी रस्सियों पर कॉमिक्स लटका दी जातीं। सामने एक दरी बिछा दी जाती और बाक़ी कॉमिक्स उसके ऊपर। एक कॉमिक्स एक दिन - किराया 25 पैसे। डाइजेस्ट - 50 पैसे। जब भी नया सेट आता तो कभी-कभी सील का ठप्पा मैं लगाता। महसूस होता कि कोई बहुत ज़रूरी ओहदे वाला काम हो। वाचनालय बंद होते-होते कोई न कोई कुल्फी वाला निकलता और हम लोग कुल्फी खाते।
उनकी एक पुरानी साइकिल थी नीले रंग की। उसकी हाइट इतनी कम थी की आसानी से चलाया जा सकता था। मैंने उसी से साइकिल चलाना सीखा था। बाद में उनके पास एक दूसरी नीले रंग की साइकिल आ गई थी सीधे हैंडल वाली जिसके आगे डंडे पर वो मुझे बैठा लेते थे और हम लोग वीडियो गेम की दुकान जाते थे। वीडियो-गेम भी मैंने उन्हीं के साथ खेलना सीखा था। काफी बाद में जब वो बीमार रहने लगे तब उनके कमरे में भी एक वीडियो गेम रखा रहता था। लेकिन तब उनके सिरहाने एक घंटी भी लगी होती थी कि वो मदद के लिए किसी को बुला सकें।
वो ड्राइंग करते थे। एक बार उन्होनें अपने कमरे में मुझे अपनी ड्राइंग्स दिखाईं थीं। मैंने भी देखा-देखी कॉमिक्स के कार्टून सामने रख कर कॉपी करना शुरू कर दिया। उन दिनों मेरी एक मौसी पेंटिंग सीखने जाती थीं और मैं भी उनके साथ उनकी क्लास पहुँच गया ड्राइंग सीखने। पहले ही दिन मुझे आई-ब्रो बनाने दी गई। मैं 2 दिन तक आई-ब्रो बना-बना के कंटाल गया और क्लास बंद हो गई। आज सोचता हूँ तो लगता है दरअसल मुझे ड्राइंग सीखना ही नहीं था। शायद मुझे बस उनके जैसा कूल बनना था। उनकी एक ड्राइंग जो उन्होनें मुझे दिखाई थी उसमें मोगली बघीरा की पीठ पर बैठा था और बघीरा एक लंबी छलांग लगा रहा था। बैक-ग्राउंड में नारंगी रंग का सूरज था। उनके जाने के कुछ सालों बाद मैंने वो ड्राइंग अपनी मम्मी की डायरी में चिपकी देखी। अगर डायरी अब तक उनके पास हो तो शायद वो ड्राइंग भी अब तक हो।
वो पतंग उड़ाते थे और क्या ख़ूब उड़ाते थे। बाक़ी सब लोग जब कोई पेंच काटते हैं तो कटी पतंग उड़ जाती है और गली के बच्चे उसे लूटते फिरते हैं। जितना मुझे याद है वो पेंच काट कर, कटी पतंग के ही चारों तरफ गोल-गोल अपनी पतंग घुमाते थे और कभी-कभी कटी पतंग के झूलते माँजे के सहारे उसे भी अपनी पतंग के साथ खींचकर उतार लेते थे और गली के लड़कों को लूटने का मौका नहीं देते थे। ये कला मैंने किसी और को दिखाते नहीं देखा। जब वो पतंग उड़ाते थे तो मैं बस घिर्री पकड़े खड़ा रहता था। जब पतंग दूर आसमान में पहुँच जाती तो वो मुझे भी पकड़ा देते। वो अपने दोस्तों के साथ पीछे के बाड़े में जा कर काँच से माँजा बनाते और मुझे सब बड़ा कूल लगता - ब्रेकिंग बैड के पिंकमन की तरह। वो आटे की लेई और चावल से पतंग चिपकाते मैं फूँक मार-मार के सुखाता। वो पतंग खरीदने जाते तो सर से बीच वाली लकड़ी दबा के देखते, मैं दोहराता। मुझे पता भी नहीं था कि वो देख क्या रहे हैं, लेकिन मैं भी वोही करता जो वो करते। एक बार इसी टोटके के चक्कर में मुझसे एक पतंग टूट गई। इससे पहले कि दुकान वाला देखता मामा ने जल्दी से मेरे हाथ से ले के उसके ढेर में वापस रख दी। हमारे पैसे बच गए।
उनके दादाजी ने एक शेर का शिकार किया था। उनके कमरे के बाजू में एक कमरा था जहां उस शेर के सिर को मसाला वगैरह भर के रखा हुआ था। उस कमरे में अंधेरा ही रहता था। मुझे उस शेर की मुंडी से बहुत डर लगता था। मैं बचपन से ही डरपोक था। एक बार वो मुझे उस कमरे में ले के गए थे। उन्होनें लाइट बंद कर दी और मुझे टार्च की रोशनी में उसकी आखें दिखाईं। मैंने पहली बार उसे इतने अंधेरे में देखा था और पहली बार मुझे डर भी नहीं लगा था।
उनके घर में एक कमरा था जिसे सब लोग सामने वाली खोली (या बीच वाली?) बोलते थे। पता नहीं क्यों। उस सामने वाली खोली में एक खिड़की थी जिसमें नीचे की तरफ एक छेद था। दोपहर में हम सारे खिड़की-दरवाजे बंद कर देते तब उस छेद से बाहर गुजरने वाले लोगों, साइकिलों, कुल्फी वालों की परछाइयाँ दिखतीं। हम लोग उसे पिक्चर (सिनेमा) बोलते थे। कभी-कभी हम लोग एक दो लोगों को बाहर फुटबॉल वगैरह से खेलने को बोलते और उनकी परछाई की पिक्चर देखते। घुप्प अंधेरा और दीवार पर तैरती परछाइयाँ। उनकी तबीयत ख़राब होने के बाद काफी समय वो उसी कमरे में रहे। एक पलंग, बाजू में उल्टी लटकीं बोतलें, एक घंटी, सामने वीडियो-गेम और परछाइयाँ।
वो दिसंबर '93 की एक सुबह थी। उनकी तबीयत ज़्यादा बिगड़ गई थी। मम्मी ने मुझे सुबह-सुबह उठाया था। जब मैं उनके कमरे में पहुंचा, वहाँ काफी लोग इकट्ठा थे। उनकी मम्मी उनके सिरहाने बैठीं थीं। उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं थे। मैं वहाँ थोड़ी देर खड़ा रहा। अचानक उनकी नाक से खून की दो धार निकलीं। उनकी मम्मी ने रुई से पोंछा और किसी तरह का कोई अतिरिक्त भाव नहीं दिया। शायद मन में उम्मीद रही हो। बाद में डॉक्टर ने बताया कि वो नहीं रहे। बाहर वाले कमरे का झूला हटाया गया और उन्हें वहीं लेटाया गया। मैंने पहली बार किसी को गुज़रते देखा था। दीवार पर तब कोई परछाई नहीं थी।
जिन दिनों के ना गुज़रने का भरोसा हो और जब वे गुज़र जाएँ तो क्या रह जाता है?
शायद साथ बीते चंद लम्हों की एक बहुत छोटी सी फेहरिस्त!!