Tuesday, February 28, 2017

कैंसर



हमारा समाज दरअसल एक बदलाव के दौर से गुज़र रहा है। कोई भी समाज गुज़रता है। हर दौर में गुज़रता है। दरअसल इतिहास कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो गुज़र चुकी है। हम अपनी-अपनी ज़िंदगियों को जोड़-जोड़ कर जो एक समाज बनाते हैं उसकी अपनी एक ज़िंदगी होती है। और इस समाज की ज़िंदगी की घटनाओं को ही हम इतिहास और वर्तमान के दायरे में बांटते चलते हैं। मुझे अक्सर ही लगता है कि एक ऐसा भी तत्व है जो हम सभी के समग्र से परिभाषित होता है। ये ठीक वैसा ही है जैसे हमारा अपना शरीर। हमारा शरीर अरबों-खरबों कोशिकाओं से मिलकर बना होता है। रोज़ न जाने कितनी ही कोशिकाएँ मरती हैं, पैदा होतीं हैं। उन कोशिकाओं से मिल कर कई अंग बनते हैं जिनमें वे अपना-अपना काम करते हैं। इन कोशिकाओं की अपनी एक individual ज़िंदगी होती है। उन्हें individually ऑक्सिजन चाहिए, पोषण चाहिए। न जाने क्यों मुझे ये लगता है कि इन कोशिकाओं को ये कभी पता भी होगा कि उनके जैसे अरबों-खरबों से मिल कर एक शरीर बना है जो चलता है, फिरता है, खाता है, दफ्तर जाता है, घर पर काम करता है। जैसे कोशिकाएँ अपना काम करतीं हैं किसी दूसरे आयाम के एक अनजाने विराट के लिए, क्या ये मुमकिन हैं कि हम लोग भी ठीक उन्हीं कोशिकाओं की तरह अपना-अपना काम नहीं कर रहे हों। रोज़ न जाने कितने मरते हैं, कितने जन्मते हैं। अपनी-अपनी individual ज़िंदगियाँ इस समग्र में जीते हैं। लेकिन किसी और आयाम से देखने पर क्या हम भी उन्हीं कोशिकाओं की तरह ना होंगे जिन्हें अपने विराट के बारे में कोई जानकारी नहीं है। जो ये नहीं समझ पा रहे कि उन जैसे अरबों-खरबों से मिल कर एक और आकार, कोई मेटा-शरीर भी कहीं होगा।

क्या ये समाज, देश, मानवता या ज़िंदगी उसी मेटा का हिस्सा है? जब शरीर की ये कोशिकाएँ बीमार हो जातीं हैं तो शरीर भी बीमार हो जाता है। इसका तर्क उल्टा भी किया जा सकता है। गर शरीर बीमार है तो यकीनन उसके अवयव भी बीमार होंगे।

आज के दौर में जब हम अपने समाज, देश और मानवता को देखते हैं तो लगता है कि बीमारी तो निश्चित रूप से है। अलग-अलग समाज अलग-अलग गुट बनाकर एक दूसरे पर हमले कर रहे हैं। न केवल वैचारिक, बल्कि हिंसा पर भी अक्सर ही आमादा होते हैं। अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में तना-तनी है। अगर मेटा बीमार है तो निश्चित ही हम भी बीमार होंगे। चाहे आज सोशल-मीडिया या पारंपरिक मीडिया को देखें तो indiviiduals की ओर से प्रेरित नफ़रतों के सैलाब को आसानी से देख सकते हैं। और अक्सर ही हमारे इर्द-गिर्द, हमारे जाने-पहचाने चेहरे इन भीड़ों का हिस्सा होते हैं। अभी हाल ही में अमरीका में 2 भारतीयों को एक सरफिरे ने कत्ल कर दिया। क्या ये बात अचानक उसके मन में आई होगी कि चलो आज किसी गैर-मुल्की को मारा जाये? मुझे ऐसा नहीं लगता। ज़्यादा संभावना इस बात की है कि बहुत लंबे समय से नफरतों के इन गुटों में चाहे online हो या offline उसका affiliation रहा होगा। इसे ही brainwash कहा जाता है। तमाम आतंकी संगठन और कट्टर पंथी लोग इंसान की इस प्रकृति का इस्तेमाल करना जानते हैं। मैंने पढ़ा था कि तालिबान ने छोटे उम्र के बच्चों को अपने संगठन में शामिल करने लिए वहाँ के मदरसों को सबसे पहले अपना निशाना बनाया। हिटलर ने भी अपनी आत्म-कथा Mein Kampf में लिखा है कि किस तरह बच्चों में एक विशेष भावना भरना ज़रूरी है अपनी नाज़ी पार्टी के उद्देश्यों के लिए। दरअसल तार्किक रूप से देखा जाये तो हमारे इर्द-गिर्द के सामान्य विद्यालय जो सामान्य शिक्षा देते हैं वो भी एक तरह की brainwashing ही है। फर्क ये है कि ये शिक्षा नफरत से भरी हुई नहीं है लेकिन काम ये भी वैसे ही करती है। एक व्यक्ति को एक विशेष तरह के माहौल में बहुत समय तक रखो तो वो भी अंततः वैसा ही हो जाता है। लेकिन आज के दौर में सूचना प्राप्त करने के साधन बदल चुके है। आज इंटरनेट की वजह से ये आलम है कि हमारे इर्द-गिर्द हर तरह की सोच, हर तरह की नफरत बहुत ही आसानी से हमारी पीढ़ी तक पहुँच रही है। आप एक facebook लॉगिन करके खुद ही brainwash हो सकते हैं, बगैर ये समझे कि आप brainwash हो रहे हैं। यकीन जानिए कि आपको अपनी नफरत उतनी ही उचित प्रतीत होती होगी जितनी एक घोषित आतंकवादी को अपनी नफरत सही लगती होगी। जैसा कि मैंने पहले कहा कि जब शरीर बीमार होता है तो यकीनन उसकी कोशिकाएँ बीमार होंगी। ये कोशिकाएँ अगर किसी बाहरी तत्व जैसे bacteria या virus की वजह से बीमार हों तो एक बात है लेकिन ये उस phenomenon को आप क्या कहेंगे जब ये कोशिकाएँ खुद ही शरीर को मारने पर आमादा हो जाएँ? कैंसर।

Friday, February 17, 2017

और तभी...



एक बार फिर उसने बाइक की किक पर ताकत आज़माई.  लेकिन एक बार फिर बाइक ने स्टार्ट होने से मना कर दिया. चिपचिपी उमस तिस पर हेलमेट जिसे वो उतार भी नहीं सकता था. वो उस लम्हे को कोस रहा था जब इस मोहल्ले का रुख़ करने का ख़याल आया. यादें उमस मुक्त होतीं हैं और शायद इसलिए अच्छी भी लगती हैं. अक्सर ही आम ज़िंदगी हम जिए चले जाते हैं लेकिन कहीं कुछ ख़ास नज़र नहीं आता. अचानक एक दिन यही पल यादों के फॉर्मेट में दिमाग में कुलबुलाने लगते हैं तो एक नमकीन ज़ायका आने लगता है. 17 साल पहले जब वो दसवीं ग्यारहवीं में पढता था तो इन गलियों में आया करता था. यूं तो वो उसकी ही क्लास में पढ़ती थी पर इतवार, गर्मियों की छुट्टियां, शाम को स्कूल छूटने के बाद का समय वो इसी मोहल्ले में गुज़ारा करता. क्रिकेट के मैच बदने, उसके घर के पड़ोस के लड़कों से दोस्ती बढ़ाने या कभी कोई किताब या कॉपी मांगने या वापस करने के बहाने वो मोहल्ले में अक्सर ही मौजूद रहा करता. कई बार सोनू निगम के सस्ते टी सिरीज़ अल्बम लाल दिल वाले गिफ्ट रैपर में लपेटे अपनी जेब में खोसे घूमा करता कि कभी कोई मौक़ा मिले तो मोहब्बत का इज़हार कर सकूं. जब 17 साल बाद इसी शहर में बदली हुई तो दिल जैसे एक धड़कन स्किप कर गया. सबसे पहला ख़याल एक बार फिर से उसी मोहल्ले में जाने का ही आया. अब तो हालांकि उसकी शादी हो चुकी थी और उसे यकीन था कि उसकी हमउम्र रही उसकी मोहब्बत भी अब किसी से ब्याह कर ही चुकी होगी. दुबारा जाने की इच्छा ज़रूर हुई थी लेकिन इसमें मोहब्बत कम थी, रोमांच और नास्टैल्जिया ज़्यादा था. उसके मोहल्ले में दोबारा जाना इतने सालों बाद. वो दुकान जहां वो थम्स अप पीया करता था और कभी-कभी उसके भाई को भी पिलाया करता था. उसके घर के सामने का मैदान जहाँ वो इतवार को मैच खेलने जाता था और कभी कभी वो अपने बाल सुखाने छत पर आती थी. उसे आज भी याद है अपना वो छक्का जब गेंद उसकी छत पर पहुँच गयी थी और उसने वापस फेंकी थी. उससे नज़रें मिलीं थीं तो बिलकुल तेंदुलकर वाली फीलिंग आई थी. लड़की ने हालांकि बाद में उसका दिल तोड़ दिया पर वो खुद को उसकी ज़िंदगी में शामिल होने से रोक पाती? टीनेज का प्यार गुनगुनी धूप की तरह होता है. न जाने कितने ही दिल रोज़ दुनिया में टूटते हैं पर उन टूटे दिलों में दर्ज़ प्यार साबुत रह जाता है. वो प्यार यादों की परतों और रंध्रों में उतर जाता है। जैसे कुल्हड़ में चाय डालने पर मिट्टी का सौंधापन चाय में उतर आता है, जैसे कई बार ज़िंदगी के लाइव पलों में किसी बैकग्राउंड म्यूजिक का कोई अहसास होता है वैसे ही वो प्यार कई बार अकेले में कंपनी देता है और कई बार उस दौर के गानों को भी हम फर्स्ट पर्सन में जी लेते हैं.  लेकिन आज वो उस प्यार की वजह से कम बल्कि अपने अतीत की वजह से ज़्यादा आया था.

आज मौसम सुबह से ही ठंडक लिए था. रात को बारिश हुई थी. दफ्तर से लंच में वो बाइक उठा के चल पड़ा अपने याद शहर की ओर. कोई पुराना दोस्त ना मिल जाए उस मोहल्ले में इसलिए उसने हेलमेट भी पहन लिया था. नब्बे के दशक में जो सड़कें बहुत चौड़ी लगतीं थीं वो उसे कुछ संकरी सी लग रही थीं. टीनेज की हर चीज़ बड़ी होती थी शायद. तजुर्बा सबका आकार बराबर कर देता है. पहले कार भी कुछ ही लोगों के पास हुआ करती थी, लेकिन अब तो हर घर के बाहर एक कार खड़ी थी. बैंकों को पार्किंग स्पेस खरीदने के लिए भी अलग से एक लोन शुरू करना चाहिए. थम्स अप वाली दूकान की जगह एक मेडिकल स्टोर खुल गया था. सामने वाले मैदान में एक मंदिर खड़ा हो गया था. बच्चे न जाने कहाँ क्रिकेट खेलते होंगे अब? मैदान के सामने महबूब की गली के बाहर रोड में पानी भर गया था. जो उसकी छत थी अब वहां मकान की दूसरी मंज़िल है जिसके बाहर AC की एक आउटडोर यूनिट गरम हवा फुफकार रही थी. सभी मकानों की पुताइयों का रंग बदल चुका था और बहुतों में तो कोई रेनोवेशन भी हुआ था. उसका याद शहर उजड़ा-उजड़ा सा लग रहा था. बस अब वो वापस दफ्तर पहुंचना चाहता था. बाइक उसके घर के सामने भरे पानी से निकालते वक़्त अचानक रुक गयी. साइलेंसर में शायद पानी चला गया था .पैर टिकाये तो जूता गीला हो गया और उसमें भी पानी भर गया. बादल छंट चुके थे और उमस बढ़ने लगी थी. उसने बाइक को पानी से बाहर खींचा तो दूसरा जूते में भी पानी घुस गया. कई देर तक किक मारता रहा और झल्लाता रहा. हेलमेट उतार नहीं सकता था कहीं कोई पुराना साथी मिल जाए तो हंसी होगी कि अभी तक इसी गली में? वो नीचे बैठ कर स्पार्क प्लग चेक करने लगा.  तभी उसे हेलमेट के फ्लैप से एक औरत नज़र आयी जो उसी दरवाज़े से निकली थी. और तभी उसके चेहरे पर मुस्कान लौट आयी. उसकी बाइक एक साइकल में बदल गयी और हाथों में स्पार्क प्लग की जगह एक चेन आ गयी. और तभी सारे मकानों के रंग बदलने लगे. सारी सड़कें फिर से चौड़ी होती चलीं गयीं. मंदिर गायब हो गया. गाड़ियां गायब हो गयीं. सोनू निगम की आवाज़ बैकग्रॉउंग म्यूजिक देने लगी और तभी... उसकी धड़कन एक बार फिर स्किप हो गई.