हमारा समाज दरअसल एक बदलाव के दौर से गुज़र रहा है। कोई भी समाज गुज़रता है। हर दौर में गुज़रता है। दरअसल इतिहास कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो गुज़र चुकी है। हम अपनी-अपनी ज़िंदगियों को जोड़-जोड़ कर जो एक समाज बनाते हैं उसकी अपनी एक ज़िंदगी होती है। और इस समाज की ज़िंदगी की घटनाओं को ही हम इतिहास और वर्तमान के दायरे में बांटते चलते हैं। मुझे अक्सर ही लगता है कि एक ऐसा भी तत्व है जो हम सभी के समग्र से परिभाषित होता है। ये ठीक वैसा ही है जैसे हमारा अपना शरीर। हमारा शरीर अरबों-खरबों कोशिकाओं से मिलकर बना होता है। रोज़ न जाने कितनी ही कोशिकाएँ मरती हैं, पैदा होतीं हैं। उन कोशिकाओं से मिल कर कई अंग बनते हैं जिनमें वे अपना-अपना काम करते हैं। इन कोशिकाओं की अपनी एक individual ज़िंदगी होती है। उन्हें individually ऑक्सिजन चाहिए, पोषण चाहिए। न जाने क्यों मुझे ये लगता है कि इन कोशिकाओं को ये कभी पता भी होगा कि उनके जैसे अरबों-खरबों से मिल कर एक शरीर बना है जो चलता है, फिरता है, खाता है, दफ्तर जाता है, घर पर काम करता है। जैसे कोशिकाएँ अपना काम करतीं हैं किसी दूसरे आयाम के एक अनजाने विराट के लिए, क्या ये मुमकिन हैं कि हम लोग भी ठीक उन्हीं कोशिकाओं की तरह अपना-अपना काम नहीं कर रहे हों। रोज़ न जाने कितने मरते हैं, कितने जन्मते हैं। अपनी-अपनी individual ज़िंदगियाँ इस समग्र में जीते हैं। लेकिन किसी और आयाम से देखने पर क्या हम भी उन्हीं कोशिकाओं की तरह ना होंगे जिन्हें अपने विराट के बारे में कोई जानकारी नहीं है। जो ये नहीं समझ पा रहे कि उन जैसे अरबों-खरबों से मिल कर एक और आकार, कोई मेटा-शरीर भी कहीं होगा।
क्या ये समाज, देश, मानवता या ज़िंदगी उसी मेटा का हिस्सा है? जब शरीर की ये कोशिकाएँ बीमार हो जातीं हैं तो शरीर भी बीमार हो जाता है। इसका तर्क उल्टा भी किया जा सकता है। गर शरीर बीमार है तो यकीनन उसके अवयव भी बीमार होंगे।
आज के दौर में जब हम अपने समाज, देश और मानवता को देखते हैं तो लगता है कि बीमारी तो निश्चित रूप से है। अलग-अलग समाज अलग-अलग गुट बनाकर एक दूसरे पर हमले कर रहे हैं। न केवल वैचारिक, बल्कि हिंसा पर भी अक्सर ही आमादा होते हैं। अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में तना-तनी है। अगर मेटा बीमार है तो निश्चित ही हम भी बीमार होंगे। चाहे आज सोशल-मीडिया या पारंपरिक मीडिया को देखें तो indiviiduals की ओर से प्रेरित नफ़रतों के सैलाब को आसानी से देख सकते हैं। और अक्सर ही हमारे इर्द-गिर्द, हमारे जाने-पहचाने चेहरे इन भीड़ों का हिस्सा होते हैं। अभी हाल ही में अमरीका में 2 भारतीयों को एक सरफिरे ने कत्ल कर दिया। क्या ये बात अचानक उसके मन में आई होगी कि चलो आज किसी गैर-मुल्की को मारा जाये? मुझे ऐसा नहीं लगता। ज़्यादा संभावना इस बात की है कि बहुत लंबे समय से नफरतों के इन गुटों में चाहे online हो या offline उसका affiliation रहा होगा। इसे ही brainwash कहा जाता है। तमाम आतंकी संगठन और कट्टर पंथी लोग इंसान की इस प्रकृति का इस्तेमाल करना जानते हैं। मैंने पढ़ा था कि तालिबान ने छोटे उम्र के बच्चों को अपने संगठन में शामिल करने लिए वहाँ के मदरसों को सबसे पहले अपना निशाना बनाया। हिटलर ने भी अपनी आत्म-कथा Mein Kampf में लिखा है कि किस तरह बच्चों में एक विशेष भावना भरना ज़रूरी है अपनी नाज़ी पार्टी के उद्देश्यों के लिए। दरअसल तार्किक रूप से देखा जाये तो हमारे इर्द-गिर्द के सामान्य विद्यालय जो सामान्य शिक्षा देते हैं वो भी एक तरह की brainwashing ही है। फर्क ये है कि ये शिक्षा नफरत से भरी हुई नहीं है लेकिन काम ये भी वैसे ही करती है। एक व्यक्ति को एक विशेष तरह के माहौल में बहुत समय तक रखो तो वो भी अंततः वैसा ही हो जाता है। लेकिन आज के दौर में सूचना प्राप्त करने के साधन बदल चुके है। आज इंटरनेट की वजह से ये आलम है कि हमारे इर्द-गिर्द हर तरह की सोच, हर तरह की नफरत बहुत ही आसानी से हमारी पीढ़ी तक पहुँच रही है। आप एक facebook लॉगिन करके खुद ही brainwash हो सकते हैं, बगैर ये समझे कि आप brainwash हो रहे हैं। यकीन जानिए कि आपको अपनी नफरत उतनी ही उचित प्रतीत होती होगी जितनी एक घोषित आतंकवादी को अपनी नफरत सही लगती होगी। जैसा कि मैंने पहले कहा कि जब शरीर बीमार होता है तो यकीनन उसकी कोशिकाएँ बीमार होंगी। ये कोशिकाएँ अगर किसी बाहरी तत्व जैसे bacteria या virus की वजह से बीमार हों तो एक बात है लेकिन ये उस phenomenon को आप क्या कहेंगे जब ये कोशिकाएँ खुद ही शरीर को मारने पर आमादा हो जाएँ? कैंसर।