Tuesday, December 18, 2018

अक्सर आ जाता है, माज़ी से हाल में




अक्सर आ जाता है, माज़ी से हाल में
गुनाह रहता नहीं ठहरकर, क़ैद-ए-ख़याल में

पूछता है सवाल, लहज़े में जवाब के
कैसे दूँ जवाब, लहज़ा-ए-सवाल में

थोड़ा और इंतज़ार, कि तस्वीर बदल जाये
काटी है जिंदगी बस इसी बवाल में

डूबा था उस वक़्त, इंतक़ाम के सुकून में
डूबा हूँ इस वक़्त, उसी के मलाल में


सब रंग मिल कर बदरंग हो गए
फिर आई डेमोक्रेसी, फटे हाल में

Saturday, December 15, 2018

गुच्छा




दशहरे का रावण धधक रहा था। चारों तरफ भीड़-भाड़। चारों तरफ खुशियां। लोग रावण को जलता देख रहे थे। लाउड स्पीकर पर रावण के कराहने की आवाजें चल रहीं थीं। मेले में एक ओर खाने-पीने के स्टॉल लगे थे, जहां लोग पाव-भाजी, चाट-फुलकी, आइसक्रीम का मज़ा ले रहे थे। वहीं दूसरी ओर बच्चों के गोल-गोल झूले, जहां से उठतीं उनके हंसने, रोने और चिल्लाने की आवाज़ें लाउड-स्पीकर की आवाज़ों से टकरा कर बिखर रहीं थीं। चकरी वाला अपनी चकरियों के हुनर से बच्चों को लुभा रहा था। Satan के लाइट वाले सींग लगाए एक दूसरा लड़का टिमटिमाते खिलौने बेच रहा था। टिर्र-टिर्र करता एक और आदमी अपनी आँखों में गुब्बारे लिए छोटे बच्चों को टूँगा रहा था। आसमान से उतरते बौने पैराशूट, उनमें डोलते बौने अमरीकी सैनिक और उनकी बौनी LMG माहौल को काफी प्रतीकात्मक बना रहीं थीं। जगह-जगह तैनात पुलिस वाले पान-गुटखे की पीकें थूक रहे थे, गपशप कर रहे थे और माँ-बहन की गालियां बक रहे थे।

उसने अपनी जेब से मली तमाकू की एक पुड़िया निकाली और एक फांक लेकर एक फाइबर की कुर्सी में बैठ गया। पीछे सटी दुकानों में लोगों को कहते सुना- 'इस बार का रावण पिछली बार से छोटा है'। अतीत की सबसे खास बात ये है कि वो खुद को हमेशा वर्तमान से बेहतर और गौरवशाली होने का वहम बनाए रखता है। हालांकि रावण तो उसे भी छोटा लग रहा था। उसे याद था कि सात-आठ साल पहले रावण जलाते समय हादसा हो गया था। उस हादसे में सुक्कू सतराम की मौत भी हो गई थी। वो उसके परिचितों में था। उसे याद था कि अगले दिन अख़बार में एक छोटे से कॉलम में उस हादसे की खबर छपी थी। सुक्कू सतराम का नाम नहीं दिया था, बस लिखा था- 'एक आदमी की मृत्यु'। अपने किसी परिचित के एक संख्या में सिमट जाने का अनुभव उसने पहली बार किया था। थोड़ा अजीब लगा था उसे। जो लोग ज़िंदा रहते कभी ज़्यादा जगह नहीं घेर पाते, मरने के बाद संख्याओं में सिकुड़ते जाते हैं। दो आदमी मरे, चार घायल, तीन शहीद, 15 ढेर। क्या रावण के कद का बड़ा होना सुखद है? क्या वाक़ई राम के लिए?

उस हादसे के बाद हर साल रावण की लंबाई घटने लगी। विचारों की इन्हीं गलियों में भटकता वो अपने बचपन के बारे में सोचने लगा। तब लाउड-स्पीकर वगैरह नहीं होते थे मेले में। वो लोग राम-लीला मैदान के पीछे के ग्राउंड में क्रिकेट खेलते थे। उसकी बैटिंग तब पूरे ज़िले में मशहूर थी। ये उसका क़स्बा था। जब वो यहाँ आया था तब दो या तीन साल का था। इस क़स्बे से इतर उसकी कोई याद नहीं है। आज पैंसठ सालों बाद वो दादा और नाना बन चुका था। 

फाइबर की कुर्सी समेत सारा मेला एक पृष्ठभूमि में सिमट गया। अतीत के लम्हें विचारों की गलियों से निकल कर मेले के कैनवस पर फोर-ग्राउंड में उछल-कूद करने लगे। जो वक़्त उसने यहाँ गुज़ारा था वो उस कैनवस पर आ कर रंग भरने लगा। उसकी शादी... उसकी पहली तनख्वाह... उसके बच्चों का इस दुनिया में आना... और फिर उनकी शादियाँ... और फिर उनके बच्चे जिन्हें गोदी में लेकर वो बाज़ार जाया करता था... जो बाद में उसके स्कूटर के आगे खड़े हो कर इसी मेले में आया करते थे। उसके माँ-बाप का रुख़सत होना। सब कुछ यहीं था। सभी उसे यहाँ पंडित-जी के सम्बोधन से बुलाया करते। उसे लगने लगा कि उसने एक अच्छी ही ज़िंदगी बिताई है।

वो कुर्सी से उठा और घर के लिए चल पड़ा। तभी उसे लगा कि भीड़ में उसकी जेब से कुछ गिर गया है। उसने ग़ौर से नीचे देखा लेकिन कहीं कुछ नज़र नहीं आया। उसने अपनी जेबें टटोलीं। जेब में उसकी चाबियों का गुच्छा नहीं था। उसने दोबारा नीचे देखा लेकिन गुच्छा नहीं दिखा। उसने सोचा कि चलो डुप्लिकेट चाबी वाले को बुला लेंगे और वो भीड़ से बाहर की ओर निकल पड़ा।

भीड़ से बाहर निकलते ही उसे एहसास हुआ कि अचानक सब कुछ शांत हो गया है। उसने पलटकर देखा तो उसे सब कुछ बदला-बदला सा लगा। खाने-पीने के स्टॉल दूसरे थे। झूले, गुब्बारे, खिलौने सब बदल चुके थे। आसमान से अमरीकी सैनिकों की बमबारी भी नदारद थी। उसने भीड़ को ज़ूम कर के देखा। उसे कोई भी चेहरा पहचाना हुआ सा नहीं लगा। वो चेहरे भी जब उसकी ओर देखते, अजनबी नज़रों से ही देखते। तभी उसकी नज़र पड़ी कि पार्किंग वाली जगह पर अब पार्किंग नहीं रही। मेन-गेट का नाक-नक़्श भी थोड़ा जुदा सा लगा। वो हिम्मत कर के मेन-गेट तक गया लेकिन बाहर की सड़क वो नहीं थी जिसे वो पहचानता था। सहसा उसे ख़याल आया कि वो दरअसल एक सपने के भीतर क़ैद है। उसे ये ख़याल भी आया कि चाबियों का गुच्छा गुम गया है और उस गुच्छे के गुम होने की वजह से ही उसके सपने में सब कुछ बदल गया है। उसने सपने में ही ये निष्कर्ष निकाला कि अगर वो गुच्छा उसे वापस मिल जाए तो सब कुछ पहले की ही तरह हो जाएगा। उसका अपना - जाना-पहचाना।

वो दोबारा उस अजनबी भीड़ की तरफ गया और घुटनों के बल बैठ कर अपना गुच्छा ढूँढने लगा। उसने तय किया कि चाहे कुछ भी हो जाये वो अपने लम्हों को इस तरह खोने नहीं देगा। ख़ाक छानते-छानते उसके घुटनों में रगड़ लग रही थी और उसे लगा कि शायद कुछ ख़ून भी बहने लगा हो। उसकी झुंझलाहट बढ़ती जा रही थी। घुटनों पर ही बैठे-बैठे उसने अपना सिर ऊपर की ओर घुमाया। उसने देखा कि भीड़ के सारे लोग एक घेरा बना कर उसे ही घूर रहे थे। उसी घेरे में उसे उसकी पत्नी भी नज़र आई। उसकी आँखों में एक शिकायत दिखाई दी। सालों पहले किसी छोटी-सी बात पर अपना रौब दिखाने के लिए जब उसने सभी के सामने अपनी पत्नी को पीटा था, उस बेइज्ज़ती की शिकायत। उसकी हिम्मत टूटने लगी। वो नज़रें झुका कर दोबारा मिट्टी टटोलने लगा। इस बार वो कुछ ढूंढ भी नहीं रहा था। उसे लगा कि शायद उसका वो गुच्छा अब उसे दोबारा कभी ना मिले। वो गुच्छा जिसमें उसने अपने मनचाहे लम्हों को चुन-चुन कर इकट्ठा किया था और उसे एक खुशनुमा ज़िंदगी का वहम दिया था। उसने सोचा कि अगर वो चाहे तो ज़ोर से अपने शरीर को झँझोड़ कर अभी इस सपने को तोड़ सकता है। उसने दोबारा चेहरा उठा कर देखा। गौरवशाली अतीत अब जा चुका था। उसकी पत्नी अब वहाँ नहीं थी।

तभी उसने फैसला किया कि वो मैदान से बाहर जा कर इन अजनबी गलियों में अपने नए मकां को ढूँढेगा। लम्हों का एक और नया गुच्छा बनाएगा। शायद एक गौरवशाली भविष्य। ये सोच कर जैसे ही वो उठा उसे मेन-गेट पर उसकी पत्नी दिखाई दी जो उसका इंतज़ार कर रही थी।

Monday, December 3, 2018

धुआँ




उसका सिर दर्द से फटा जा रहा था। अभी वो अपने बिस्तर से उठा भी नहीं था कि पहली बार मोबाइल की घंटी बजी। इत्तेला रोंगटे खड़े कर देने वाली थी। पापा जिस ट्रेन से सफर कर रहे थे उसका एक डिब्बा गोधरा में जला दिया गया था। उसी ट्रेन से उसको और मम्मी को भी जाना था। लेकिन उसकी तबियत ख़राब हो जाने की वजह से वो और मम्मी नहीं जा पाए। उस पहली घंटी के बाद तो घण्टियों का तांता लग गया। कभी कॉल वाली बड़ी घंटी और ना उठाने पर SMS की छोटी घंटी। मम्मी भी तब उसकी दवाई लेने मेडिकल स्टोर तक गईं थीं।

खबर मिलते ही उसने टीवी चालू किया।  डिब्बे में लगी आग की लपटों को अपनी आँखों में बटोरे एक एंकर स्क्रीन पर ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा था। उसने पापा का फोन भी मिलाया लेकिन उस रूट की सभी लाइने व्यस्त थीं। बीच-बीच में वो SMS के इनबॉक्स में जा कर शुभचिंतकों की प्रार्थनाओं को बटोर लेता। उसे हैरानी भी थी कि पापा के इतने सारे हितैषी रातों-रात कहाँ से आ गए। उन्होनें कभी किसी से अपने सम्बन्धों को मधुर रहने दिया हो। सोसाइटी हो या रिश्तेदारी, सभी जगह उनकी रौबदार सरकारी नौकरी की अकड़ ने दूसरों को हमेशा कमतर ही आँका। उसे तो बीच-बीच में इन हितैषियों की प्रार्थनाओं पर शक भी होता था।

आग की लपटों और उससे उपजे धुएँ के साथ काली धूसर आशंकाएँ भी उमड़ रहीं थी जिनका समय के आयाम में फैलना अभी बाक़ी था। लेकिन टीवी स्क्रीन से उठती इंसानी गोश्त की बदबू को उसने सूंघ लिया था। उस धुएँ और आशंकाओं के डर ने उसकी रगों की पटरियों पर दौड़ते सियाह ख़ून की रफ़्तार को और तेज़ कर दिया था। चंद ही मिनटों में उसने ख़ुद को सुलगते हुए एक डिब्बे में क़ैद पाया। उसने देखा कि धुएँ की तैरती अमूर्त्य रेखाओं के बीच ढेर सारी आकृतियाँ अलग-अलग कोनों में भाग रहीं हैं। धू-धू करती किसी सनातन आवाज़ की पृष्ठभूमि के बीच चीखती उन आकृतियों ने तभी अक्षरों, हलंतों, नुक्तों और मात्राओं का रूप ले लिया। देखते ही देखते उन काली पहचानों ने अपनी-अपनी वैयक्तिकता खो दी और उनके बीच से एक नया manifestation उभरा। लिखा था 'ब्रेकिंग न्यूज़'। उस नए साकार manifestation के पीछे एक विडियो फुटेज लूप में डाल दी गई थी। उसे यक़ीन था कि ये फुटेज कालांतर तक अब यूं ही चलती रहेगी।

तभी नेपथ्य से एक आवाज़ सुनाई दी। आवाज़ ने दावा किया कि वो एक संवाददाता है। लूप वाली विडियो फुटेज को ऊपर की बर्थ पर फेंक दिया गया लेकिन डिब्बे में बनी खिड़की से उसे देखा जा सकता था। लगता था कि देश के collective conscience की याद्दाश्त पर किसी को भरोसा नहीं था। बाकी के कम्पार्टमेंट में दिखाई दिया टीआरपी की आंच में झुलसता वही एंकर। एयर कंडीशन न्यूज़-रूम में सुलगता एंकर पूरी शिद्दत से सामूहिक चेतना को यकीन दिला देना चाहता था। उसे ये नहीं पता था कि यक़ीन दिलाना किस बात का है, लेकिन गले की उफनती नसों से वो नेपथ्य के संवाददाता को खरोंचने में लगा था। कुछ भी exclusive ना मिल पाने पर टीआरपी की आंच और तेज़ हो जाती जिससे नसें और भींच जातीं, आवाज़ और तेज़ हो जाती।

वो उस manifestation से, उस टीआरपी की आंच से और नेपथ्य की उस आकाशवाणी से भाग कर दोबारा अपने collective conscience के दड़बे में आने के लिए छटपटाने लगा। तभी अचानक आकाशवाणी बंद हो गई, अनंतकालीन विडियो फुटेज वाली खिड़की भी गायब हो गई, और काले उदास ब्रेकिंग न्यूज़ के manifestation की जगह अवतरित हुआ स्वर्ग से उतरे रंगों का एक चमचमाता स्वप्नलोक - एक कमर्शियल ब्रेक। वो जल्दी से हाँफता हुआ उस जलते हुए डिब्बे से बाहर आ गया।

उसने एक बार फिर पापा का फोन मिलाया और SMS के इनबॉक्स में एक बार फिर गोता लगा कर चंद प्रार्थनाओं को बटोरा। जब आशंकाएँ अपनी चरम तक पहुँच जातीं हैं तो इंसानी दिमाग को एक धोखा होने लगता है। एक वहम - उम्मीद का वहम। पापा का रिज़र्वेशन उस डिब्बे में थोड़े ही था जिसमें आग लगी है! वहम को काटता एक दूसरा वहम - 'Us versus Them' की तरह। लेकिन अगर अब दंगे भड़क उठे तो?

तभी सारे बाज़ारवादी रंग अचानक गायब हो गए। ब्रेक ख़त्म होते ही उदास रंग वाला नया प्रोडक्ट स्क्रीन पर दोबारा launch हुआ। वही एंकर दोबारा स्क्रीन पर लौटा।

इस बार उसकी नसें उतनी भींचीं नहीं लग रहीं थीं। उसने थोड़ा मिनरल वॉटर भी पी लिया था। आते ही उसने सबसे पहले वही शाश्वत वीडियो फुटेज चलाई। पिछली बार की तरह कुछ exclusive ना मिल पाने की झुंझलाहट अब उसके चेहरे पर नहीं थी। एंकर ने स्क्रीन से अपने हाथ बाहर निकाले और उसे उसके गिरेबान से पकड़ कर दोबारा उस झुलसते डिब्बे में खैंच लिया। डिब्बे की ये आग अब कभी भी नहीं बुझने वाली थी, वो समझ चुका था। गिद्ध के समान दूरदृष्टि रखने वाले एक्स्पर्ट्स का एक पैनल स्क्रीन पर अवतरित हुआ। टीआरपी के लिए अदने से संवाददाता पर निर्भरता ख़त्म हुई। सभी एक्स्पर्ट्स को एक-एक खिड़की वाली सीट दे दी गई थी। सारे एक्स्पर्ट्स बारी-बारी अपने-अपने पिंजरे खोलते और अपने-अपने तोते से सलाह-मशविरा करके भविष्यवाणी करते। उनकी सधी-सपाट आवाज़ें उसकी रीढ़ में कंपन पैदा कर रहीं थी। एक नई आग लगाई जा रही थी। उसे लगा कि उसकी सांस भीतर नहीं आ रही है। डर के मारे उसने अपनी आँखें और कान बंद कर लिए। दूर से एक धीमी आवाज़ सुनाई दी। शायद उसके भीतर ही से - 'शाहादत ज़ाया नहीं जाएगी'। तभी एक और ब्रेक आया और अपने आप को अपनी ही बैठक के सोफ़े पर बैठा पाया।

पापा का नंबर दोबारा डायल किया। उस रूट की सभी लाइनें अभी तक व्यस्त थीं। तभी स्क्रीन पर किसी बीमा कंपनी के विज्ञापन के तले एक पट्टी ने गुज़रना शुरू किया। सेंसेक्स 10 अंकों की मामूली बढ़त के साथ खुला। सभी कंपनियों के शेयरों की कीमतें ट्रेन के डिब्बों की तरह धड़धड़ाते गुज़र गईं। उनके पीछे इंसानी ज़िंदगी की कीमत बताते चंद हेल्पलाइन नंबर भी भागे जा रहे थे। इससे पहले कि एंकर दोबारा आ कर उसे उसके सोफ़े से खैंच ले जाए उसने उन भागते नंबरों की एक छाप मोबाइल स्क्रीन पर चिपका कर फोन मिलाया। नंबर इंगेज जा रहा था। वो दोबारा डायल करता कि ब्रेक ख़त्म हो गया और उसका सोफ़ा एक साइड लोअर बर्थ में बदल गया। वो खिड़की से बाहर नीचे की ओर देखने लगा। बाज़ार के भावों की लिस्ट गुज़र रही थी। इसके बाद शायद घायलों या मरने वालों की भी कोई लिस्ट गुज़रे। उसे खयाल आया कि रिज़र्वेशन तो उसका और मम्मी का भी था। उन दोनों के मौजूद ना होने पर अगर उन लोगों का नाम मरने वालों की लिस्ट में डाल दिया गया तो?

तभी मोबाइल की घंटी बजी और स्क्रीन पर पापा का नाम लिखा आया। साथ में दरवाजे की भी घंटी बजी। वो दरवाजा खोल कर अपनी मम्मी को देखना चाहता था। फोन उठा कर पापा से बात करना चाहता था। लेकिन तभी उसके चारों ओर धुएँ का एक गुबार उठा। उसकी आँखेँ जलने लगीं। उसने महसूस किया कि फोन और दरवाजे की घंटी धीमी होती जा रही है। वो कहीं दूर... बहुत दूर निकल आया है। कुछ आवाजें तेज़ होती जा रहीं हैं - 'ज़ाया नहीं जाएगी! ज़ाया नहीं जाएगी! ज़ाया नहीं जाएगी!' उसने एक जुलूस को उमड़ते देखा। अनंत तक फैला जुलूस। धुआँ, जुलूस, नारे। बस! अचानक उसने पाया कि वो भी जुलूस के साथ मुट्ठी भींचे चला जा रहा है। एंकर हंस रहा है। तोते चिल्ला रहे हैं। धुआँ गहरा रहा है। धुएँ के पार, सुदूर कहीं, उसे मम्मी-पापा के धुँधलाते चेहरे दिखाई दिये। पूरी ताक़त से अपने आँख-कान बंद कर लिए और एक बार फिर कमर्शियल ब्रेक का इंतज़ार करने लगा - अपनी दुनिया में वापस लौटने के लिए।

विडियो फुटेज लूप में लगातार चलती जा रही थी।