विज्ञान के तमाम तर्क जहाँ ख़त्म होते हैं, भावनाएं वहीँ से जन्म लेती हैं। व्यक्तिव का निर्माण देश, काल और परिस्थिति के बगैर सम्भव नहीं है। व्यक्तित्व एक परिस्थितिजन्य परत है लेकिन स्वप्रेरणा से इसे एक कृति बनाया जा सकता है। इस परत के सुदूर अंतस में क्या है ? क्या आत्म से साक्षात्कार सम्भव है ? क्या अपनी तमाम मान्यताओं और उनसे जन्मे पूर्वाग्रहों को छोड़ पाना सम्भव है ?
प्रायः हम सभी अपने लिए एक भूमिका चुन लेते हैं और ताउम्र उसे ढोते फिरते हैं। अपनी सोच को एक खूंटे से बांधकर जो एक घेरा बनता है उसे दुनिया समझते हैं और उस खूटें को ईश्वर। क्या प्याज़ के छिल्के की तरह व्यक्तित्व के सारे आवरण हटाने पर कुछ शेष रह जाता है ? क्या आत्मा की परिकल्पना उसी बीज के होने की अवधारणा है ? इन तमाम प्रश्नों के उत्तर वही दे सकता है जो अपने सारे आवरण, सारे मुखौटे हटा पाने में सक्षम हो।
कायाकल्प एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है। सुदूर अंतस में सिर्फ 'अर्थ' हैं। शब्दों के अर्थ नहीं होते, बल्कि अर्थ को व्यक्त करने के लिए शब्द बनते हैं।
जो प्रकट है - वे शब्द हैं। मूल में एक ही अर्थ है जो प्रकट होने के लिए शब्द गढ़ता है। वह जो सूक्ष्म से सूक्ष्मतम और विशाल से विराट है - शब्द है। विराट को अपनी सीमाओं से मापना व्यर्थ है। नज़रों कि अपनी सीमा है , आकाश की नहीं। लघु को मापना भी व्यर्थ है , क्योंकि वह हमारे लघुत्तम पैमाने से भी लघु है। अनगिनत शब्द अनगिनत ब्रम्हांड रच सकते हैं। शब्द - अनादि है , अनंत है। अर्थ - निहीत है , व्याप्त है , मूल है।
ग़ालिब ने उस अर्थ को ईश्वर और ख़ुद को शब्द मानते हुए लिखा है -
न था कुछ तो ख़ुदा था
कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने में
न होता मैं तो क्या होता
कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने में
न होता मैं तो क्या होता