"ले तो रही हूँ.", मुंह से रुमाल हटाते हुए भीमा बोली.
"तो फिर ये खांसी बहनचोद बंद काहे नहीं होती?", कहते हुए
बुधिया दरवाज़े से बाहर बीडी फूंकने चला गया.
भीमा चुप रह गयी. क्या कहती? खांसी नहीं टीबी है! जैसे बुधिया जानता न
हो! बुधिया हमेशा उसकी बीमारी को खांसी ही कहता. शायद बीमारी का नाम बदलने से
तकलीफ भी थोड़ी कम हो जाती हो. बीमारी
शरीर ही नहीं मन को भी तोड़ देती है. जब से तपस्या मैडम गयीं थीं तब से ज़िंदगी ही बदल
गयी.
तपस्या मैडम पास वाली बिल्डिंग के चौथे माले पर रहतीं थीं. वो दिल्ली
की रहने वाली थीं. भीमा उन्हें मैडम जी कहा करती. पति से उनका तलाक़ हो चुका था. अब
अपनी माँ के साथ अकेली रहती थी. किसी कंपनी में काम भी करतीं थीं. सात साल की एक
बेटी भी थी उनकी- प्रिया. भीमा साल भर पहले झाडू-पोछे के लिए उनके यहाँ काम पर लगी
थी. जब भीमा ने झाडू-पोछे के लिए दो हज़ार मांग लिए तो उन्होंने बिना किसी चिक-चिक
के दे भी दिए. भीमा और दूसरी बाइयों का एक सीधा उसूल होता था कि जो रेट हो उससे
पांच सौ ज़्यादा मांगो. मैडम लोग खुद ही चिक-चिक करके पांच सौ कम करवा देतीं हैं. भीमा
जब भी वहाँ जाती मैडम जी अक्सर अपनी बर्तन वाली के लिए चिल्लाती रहतीं. बर्तन वाली
पुष्पा भीमा के पड़ोस वाली खोली में रहती थी. अक्सर ही काम से गोल मार लेती थी. वैसे
उनकी मां उतनी बूढ़ी नहीं थीं पर उनके घुटने जवाब दे चुके थे, इसलिए घर के काम में
उनका कोई सहयोग न होता. और मैडम जी को अगर दफ्तर जाने के समय खुद बर्तन करना पड़ता
तो उनका पारा हाई हो जाता. एक दिन मैडम जी की तबियत ठीक नहीं थी. उन्होंने ने भीमा
से बर्तन करने बोला. भीमा ने कहा - "नहीं मैडम जी. मैं सिर्फ सिर्फ झाडू-पोछा
करती हूँ. खाना-बर्तन नहीं करूंगी."
"अरे पैसे ले लेना न! बेगारी नहीं कराउंगी तेरे से मैं",
मैडम ने कहा था.
"मैडम. हम एस सी हैं. खाना-बर्तन नहीं करते."
पहले तो मैडम को आश्चर्य हुआ ये सुन कर कि इन बड़े-बड़े शहरों में अभी
तक बाइयों के काम के बटवारे भी उनकी जात के आधार पर होते हैं. लेकिन फिर उन्होंने
कहा - "देख मैं जात बिरादरी नहीं मानती. तेरे पैसे मैं पांच हज़ार कर देती हूँ
और तू खाना भी बना और बर्तन भी कर." और उन्होनें पुष्पा को छुडवा दिया. तब से
आज तक पुष्पा ने भीमा से बात भी नहीं की.
भीमा की साल भर की एक बेटी भी थी - मिन्जुरा. भीमा उसे भी अपने साथ ले
जाती मैडम जी के घर. प्रिया को मिन्जुरा को खिलाने में बहुत मज़ा आता था. अपने सारे
खिलौने ला ला कर उसके हाथ में पकडाती, उससे तोतली बोली बोल कर उसे बोलना सिखाती,
उसे अपने साथ टीवी पर कार्टून दिखाती. प्रिया ने ही उसे बताया था - "आंटी..
आंटी.. पता मिन्जुरा को ये बार्बी वाली डॉल बहुत पसंद है. हमेशा इसी से खेलती है.
देखना अभी इससे ले लूं तो कैसे रोएगी!". ये कह कर उसने वो डॉल मिन्जुरा से
छुडा ली. मिन्जुरा के छोटे से चेहरे पर भाव बदलने शुरू हुए. पहले भवें सिकुडीं, फिर
छोटे-छोटे होंठ सिकुड़कर नीचे की ओर मुड़ गए, फिर आँखें डबडबा उठीं और आखिर में होंठ
खुले और रोने की एक जोर की आवाज़ गले से निकली. मैडम जी, प्रिया और भीमा तीनों मिन्जुरा
की ये हरकत देखकर बहुत हँसे थे.
एक दिन मैडम जी ने दफ्तर से छुट्टी ली थी. उस दिन दोपहर में उन्होंने
एक आदमी को बुलाया था. भीमा रसोई में उनके लिए चाय बना रही थी. बाहर होती चर्चाएँ
उसके कानों में भी पड़ रहीं थीं. आदमी समझा रहा था कि इतने लाख जमा करवा दोगे इतने
साल के लिए तो कितना ब्याज मिलेगा. अलग अलग स्कीमों के नाम. बाद में भीमा ने मैडम
जी से पूछा था उसके बारे में तो उन्होंने बताया था कि वो एक बैंक से आया था और वो
उन्हें फिक्स्ड डिपाजिट के बारे बता रहा था. "आज अगर मैं प्रिया के लिए कुछ
पैसे बैंक में फिक्स्ड डिपाजिट करवा दूं... करीब दस-पंद्रह साल के लिए... तो जब वो
करीब बीस-बाईस साल की हो जाएगी तो उसको काफी सारा पैसा मिलेगा. उससे उसकी पढाई या
शादी वगैरह में काफी मदद मिल जाएगी."
"मिनिमम ट्वेंटी फाइव थाउजेंड", भीमा ने उस आदमी को कहते
हुए सुना था जब वो उन्हें ट्रे में चाय सर्व करने गयी थी.
कई दिनों बाद उसने एक दिन धीरे से प्रिया से पूछा था - "प्रिया
बेबी! ये ट्वेंटी फाइव थाउजेंड कितना होता है?"
"पच्चीस हज़ार", प्रिया ने कहा था.
कुछ महीनों बाद मैडम जी को अमेरिका जाने का कोई ऑफर आया. उन्होंने भीमा
से पूछा - "तू चलेगी?"
"मैं क्या करूंगी वहाँ?"
"जो यहाँ करती है. माँ का, प्रिया का ध्यान रखना, खाना-बर्तन
वगैरह करना और क्या. वहां तो पढाई भी सबके लिए मुफ्त होती है. तेरी बेटी भी वहीं
पढ़ लेगी. साल के चार जोड़ कपडे दिलवाउंगी. रहना-खाना हमारे साथ. लेकिन बार बार आने
को नहीं मिलेगा. हर महीने अपने पति को पंद्रह हज़ार तक भेज पायेगी. सोच के
बताना."
घर आ कर भीमा ने बुधिया को ये बात बताई. बुधिया की एक पंचर बनाने की दुकान
थी. उससे कोई इतनी कमाई तो होती नहीं थी. बुधिया तो खुश हो गया. और भीमा... वो तो
बस सपने बुनने में लगी थी. बीच-बीच में बुधिया कुछ पूछता तो उसे खलल जान पड़ता. उन
सपनों में तो वो अमेरिका पहुँच भी चुकी थी और वहां के एक स्कूल में उसकी बेटी पढ़ने
भी लगी थी. प्रिया बेबी और मैडम जी के जैसी फर्राटेदार इंग्लिश भी बोलने लगी थी.
फिर मिन्जुरा बड़ी भी हो गयी थी. और मैडम जी की तरह बड़ी अफसर भी बन गयी थी. "मिन्जुरा
मैडम... मिन्जुर मैडम जी...", वो अपने आप से बोली भी थी. लेकिन सपनों की उड़ानों
में हवाएं हमेशा मद्धम ही होती हैं. तूफ़ान तो असल जिंदगियों में आते हैं.
कुछ ही दिनों बाद भीमा को तेज़ खांसी उठने लगी, लगातार बुखार रहने लगा.
जांच करवाई तो टीबी निकली. उधर जाने के दिन करीब आते जा रहे थे. भीमा कर्जा ले ले
के इलाज करवाने में लगा था. किसी तरह बीमारी जल्दी ठीक हो जाए तो बाद में पैसे तो
सब चुका ही देंगे. कर्जा धीरे-धीरे इतना बढ़ गया कि पंचर की दूकान बंद हो गयी और बुधिया
मजदूरी करने में लग गया.
फिर एक दिन मैडम जी घर आयीं और उन्होंने कह दिया - "देख भीमा!
मैं तो तुझे ले चलती पर तेरी हालत ही अभी जाने लायक नहीं है. मुझे वहां खुद कितना काम
रहेगा, फिर माँ को देखना. अब अगर तेरी भी हालत ऐसी ही रही तो मैं कैसे मैनेज कर
पाउंगी? एक काम कर तू ये कुछ पैसे रख और अपना इलाज करा. मैं किसी और को ढूंढ लेती
हूँ."
भीमा कुछ न बोली. क्या कहती. हाथ जोड़े और पैसे ले लिए. मैडम जी चली
गयीं. भीमा ने पैसे गिने... पूरे पच्चीस हज़ार. भीमा ने पैसे एक डब्बे में छुपा
लिए.
दिन बीतते गए और वो दिन भी आया जब मैडम जी को दिल्ली जाना था. एक महीने
बाद दिल्ली से ही उनको अमेरिका निकलना था. भीमा सुबह से उठ कर तैयार होने लगी.
बुधिया भी सुबह से अनमना था. डपटते हुए पूछा - "कहाँ जा रही है ऐसी हालत
में?"
"मैडम जी से आख़िरी बार मिल आऊँ"
"क्या करेगी मिल के? उन्होंने तो वैसे भी मना कर दिया. अब क्या
वहाँ जा के आरती उतारेगी उनकी?"
भीमा ने बुधिया की बात अनसुनी कर मिन्जुरा को तैयार करने में लगी रही.
फिर उसने डिब्बा खोला और पैसे अपने आँचल में छुपा लिए.
भीमा जब मैडम जी के घर पहुँची तो बाहर टैक्सी खड़ी थी. भीमा मैडम जी के
आगे हाथ जोड़ के घुटने के बल बैठ गयी.
"क्या बात है भीमा? ये क्या कर रही है?"
"मैडम जी! मिन्जुरा को अपने साथ ले जाओ. इसकी ज़िंदगी बन जाएगी.
यहाँ रहेगी तो मेरी ही तरह झाड़ू-पोछा करती रह जायेगी."
"ऐसे कैसे होगा भीमा? ऐसे थोड़े होता है?
"मैं आपके हाथ जोडती हूँ. मेरी बीमारी की सज़ा मेरी बेटी को ना
दो. ये पैसे भी ले लो. इससे इसका खाता खुलवा देना."
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बुधिया बीडी बुझा के अन्दर आ गया. पलंग पर भीमा फिर से नींद के आगोश में
जा चुकी थी. उसके एक हाथ में एक रूमाल था और दूसरा हाथ एक प्लास्टिक की गुडिया के
ऊपर जिसे वो नींद में कभी-कभी थपकी दे देती थी.