Sunday, November 22, 2015

ययाति के मिथक - 2

नीपल समुदाय का पूरा ताना-बाना नीपों ही से जुड़ा था। हम सागर की गहराइयों में नीप तलाशते, उन्हें तराशते, उन पर तरह तरह की नक्काशियाँ उकेरते, उन्हें रंगते। उनसे मालाएँ, गहने, मूर्तियाँ, खिलौने, गोटियाँ बनाते। उन्हें पीस कर उनसे रंगोली बनाते। रंगोली के लिए लेकिन खंडित नीपों का इस्तेमाल किया जाता। नीपों की भी एक अायु होती है। मछलियों के मरने के बाद धीरे-धीरे नीप भी पपड़ियों के मखौटे लगाने लगते और बिखरने लगते उन मखौटों की आड़ में। घर उतने बेजान भी नहीं होते शायद। खाली घरों को खंडहर बनते देर नहीं लगती। ऐसे खंडहरों को उनके रंगों के हिसाब से अलग-अलग अलग किया जाता। उन्हें पीस कर रंगोली की शक्ल दी जाती और उन्हें थैलियों में भर कर बेचा जाता। बेचने के लिये हम अपना सारा सामान अपने प्रान्त में भेजते। वहां से सारे ईवध और सारे नाम्बी में उन्हें बेचा जाता। कई बार लोग यहाँ से जीवाल मछली पकड़ कर ले भी गये पर वो मछली कहीं और जिन्दा रह ना पाई। 

जीवाल मछली कई नस्लों की होतीं थीं। जो उथले पानी वाली होतीं, वे छोटी होतीं और उनके नीप भी छोटे होते। बड़ी मछलियाँ थोड़ी गहराई में रहतीं। उनके नीप भी बड़े होते। नीप की कीमत कई बातों पर निर्भर करती। अव्वल तो नीप कितना बड़ा है। लेकिन केवल आकार ही एक मात्र मापदंड ना होता। उसकी पारदर्शिता, चमक, रंग, उम्र और हालत भी बहुत महत्तवपूर्ण होते। पीले और भूरे बहुत साधारण रंग माने जाते। इन रंगों के नीप बेहद आसानी से मिल जाते थे। गुलाबी, नारंगी, आसमानी जैसे हल्के रंग थोड़े महंगे बिकते। गहरे रंगों में नीले, हरे, महरून रंग मांग में थे। लेकिन सबसे ज़्यादा महंगे थे लाल और काले नीप। ईवध की एक दंतकथा के अनुसार एक बार एक ऐसा नीप मिला था जिसका ऊपरी भाग लाल और भीतरी भाग नीला था। उसे कुक्षी नाम दिया गया। उसकी दोनों परतों के बीच पानी भरा था और पानी में हवा का एक बुलबुला भी क़ैद था। जिस नीपल को वह नीप मिला था, उसने उससे एक अंगूठी बनाई जिसमें उस बुलबुले को ही नग की तरह इस्तेमाल किया गया था। अंगूठी पर जब रोशनी पड़ती तो बुलबुला मिलेजुले लाल और नीले रंग बिखेरता। उसकी कीमत आँकने के लिये जब उसे प्रान्त में विषेशज्ञ के पास ले जाया गया तो उसने उसे दुनिया की सबसे महंगी अंगूठी माना। उसे दारुक देश के राजा ने खरीदा। कथा के अनुसार, एक दिन राजा अपने बेटे के साथ जंगल गया जहां उसके बेटे को एक सांप ने काट लिया। राजा अपने बेटे से बहुत प्यार करता था। उसने घोषणा करवाई कि जो हकीम उसके बेटे को फिर से जीवित कर देगा उसे वो अपनी कुक्षी की अंगूठी दे देगा। अंगूठी के लालच में बहुत से हकीमों ने अपने हाथ आजमाए पर कोई उसे जीवित न कर पाया। निराश राजा उसे दफनाने ले जाने लगा। तभी एक हक़ीम आया और उसने राजा से कहा कि वैसे तो तुम्हारे बेटे की आयु ख़त्म हो चुकी है लेकिन अगर तुम अपनी कुछ आयु अपने बेटे को दान करने के लिए तैयार हो तो मैं उसे जीवित कर सकता हूँ। राजा अपनी आधी आयु देने को तैयार हो गया। हकीम ने अपने एक हाथ से राजा का हाथ पकड़ा और दूसरे से उसके बेटे का। उसने राजा की आधी उम्र उसके बेटे को दे दी। बेटा जीवित हो उठा। वचनानुसार राजा ने कुक्षी की अंगूठी हकीम को दे दी। हकीम चला गया। राजा ने सोचा कि अगर वो हकीम से ये विद्या सीख ले तो वो अपनी प्रजा से लगान के रूप में आयु की मांग कर सकता है। इस तरह वो और उसका बेटा अमर हो जाएंगे। उसने अपने एक गुप्तचर को हकीम का पीछा करने का आदेश दिया। एक दिन उसने गुप्तचर के माध्यम से हकीम को फिर बुलवाया। हकीम दोबारा पहुंचा तो राजा ने उसकी विद्या सीखने की इच्छा ज़ाहिर की, लेक़िन हक़ीम ने मना कर दिया। राजा ने उसे बंदी बना लिया। उसकी कुटिया की तलाशी ली गई, लेकिन उम्र बढ़ाने की विद्या सम्बन्धित कोई किताब या दस्तावेज़ वहां न मिला। लेकिन वहां कुक्षी की अंगूठी मिली जो एक छोटे संदूक में बन्द थी। सन्दूक में एक किताब भी थी जिससे उसे पता चला कि हक़ीम ने उस अंगूठी को अपराजेय बनाया है। अंगूठी को इस्तेमाल करने की विधि भी किताब में थी। राजा ने अंगूठी पहन ली। अगले दिन राजा हकीम से मिलने कारागार गया। हक़ीम  ने जैसे ही राजा की उंगली में अंगूठी देखी, वो वहीं मर गया। उसके मरते ही अंगूठी तप कर लाल हो गयी। राजा की उंगली जल गयी। राजा ने अंगूठी उतार कर ज़मीन पर फेंक दी। अंगूठी थोड़ी देर में ठण्डी हो गई लेकिन किसी श्राप के डर से राजा उसे पहनने से डरने लगा। उसने उसे संदूक में किताब समेत वापस रख कर जंगल में दफना दिया। कुछ दिन बाद राजा और उसका बेटा मर गये लेकिन वो अंगूठी आज भी दारुक में कहीं दफ्न है।

दंतकथा चाहे जो कहती हो, लेकिन एक कुक्षी ने प्रांत और उस नीपल की किस्मत ही बदल दी थी। कुक्षी ने कई मुहावरों और कहावतों को भी जन्म दिया। जैसे कुक्षी तराशना, जिसका मतलब था कोई बहुत पेचीदा काम करना। एक कहावत थी - खंडित कुक्षी से रंगोली ही बनती है। कोई बेवकूफी कर दे तो कहते - बुलबुला उड़ा दिया। यहाँ तक कि जब नीप तलाशने सागर का रुख़ करते तो देवी जीवा से कुक्षी दिखलाने की दुआ मांगते। जीवा हमारी आराध्या थी। जीवाल मछलियों को देवी जीवा का ही रूप माना जाता था और इसलिए उन्हें पवित्र भी माना जाता था। मछली को खाने के पहले भी देवी का शुक्रिया ज़रूर अदा किया जाता।


नीप का कारोबार बहुत बड़ा था। गांव के बाहर पूर्व दिशा की ओर एक जंगल था। लकड़ा कारोबारी जंगल से लकड़ा लाते और बाज़ार में बेचते। लकड़ा बाज़ार वहीं जंगल के मुहाने पर ही था। मेरे नाना भी एक लकड़ा कारोबारी थे। कई बार दिन के वक्त उनके पास जाता था। वे बताते थे कि दो तरह के लकड़े ही ज़्यादा मांग थे। एक तो मोटे लकड़े जो नाव और मंधारा बनाने मे इस्तेमाल होते थे। दूसरे, हरे बाँस; लम्बे और लचकदार; झामी बनाने के लिए। नीप तलाशने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले जहाज को मंधारा कहा जाता। मंधारा एक बहुत बड़ा जहाज था। मैं भी कई बार बाबा के साथ मंधारा पर गया था। बाबा एक गोताख़ोर थे। जहाज पर तीन तरह के लोग होते थे। एक तो जहाज चलाने वाले, दूसरे गोताखोर और तीसरे कहलाते थे तर्रे जो झामी कसते थे और बाकी के काम करते थे। झामी एक बहुत बड़ा गुब्बारा था जो बाँस के एक ढाँचे के ऊपर गाय के चमड़े को चढ़ा कर बनाया जाता था। बाबा दूसरे गोताखोरों के साथ इसमें बैठते और पानी के नीचे जाते। नीचे जाने के लिए इसमें चारों ओर लगे जाल में भारी पत्थर रखे जाते। पत्थर के वजन से गुब्बारा नीचे जाता और नीचे गोताखोरों के लिए एक ठिकाने की तरह इस्तेमाल में आता। जैसे किसी बाल्टी में बर्तन को उल्टा कर के दबाने पर अंदर की हवा बाहर नहीं निकलती, उसी तर्ज़ पर झामी काम करता। गोतोख़ोर गोता लगाने के पहले गर्वासी भी पहन लेते। गर्वासी एक ख़ून चूसने वाली काई थी। उसे कलाई में लपेटा जाता। बाबा बताते थे कि इसकी वजह से पानी में साँस जल्दी नहीं फूलती। शायद ख़ून के बदले हवा देती हो गर्वासी। एक बार उत्सुकतावश में मैंने भी लपेट लिया था उसे अपनी कलाई पर। ऐसा लगा कितनी सौ चींटियाँ एक साथ काट रहीं हों। घबरा कर मैं उसे खींचने लगा। लेकिन खींचने से वो और ज़ोर से चिपक जाती। मैं डर से चिल्लाने लगा। बाबा और दूसरे गोताखोर हंसने लगे। बाबा ने उसे धीरे-धीरे निकाला तो आराम से निकल गई। उस दिन मैंने सोचा कि गोताख़ोर तो नहीं बन सकता मैं। बगैर सांस के बहुत देर तक गर्वासी के भरोसे रहना आसान न था। गर्वासी को बर्दाश्त करने के लिए भी बहुत शान्त मन चाहिये। 

No comments:

Post a Comment