Sunday, July 31, 2016

कितने पाकिस्तान



पाकिस्तान क्या है? क्या सिर्फ एक देश जिसने भारत से अलग हो कर अपना वजूद तलाशने की कोशिश की? या फिर पाकिस्तान एक सोच है? एक सोच जिसमें कि एक ही देश के लोग अपने बीच एक सेकटेरियन मानसिकता को पहले उपजाते हैं, फिर उसको सींचते हैं और फिर हाथों में हंसिये और कुदाल ले कर उसी फसल को काटते हैं। एक ऐसी सभ्यता जो 5000 सालों से तमाम ज्वार भाटों के बीच अक्षुण्ण बनी रही, तो ऐसा क्या हो गया जो रातोंरात अचानक एक नए देश की ज़रूरत आन पड़ी?

क्या इतिहास सिर्फ वही होता है जो किताबों और पन्नों पर कलम से रिसती स्याही से कुरेदा गया हो? टाइपराइटर पर हिज्जों के हथौड़े जब तलक वक़्त के कागज को लहू लुहान ना कर दें, क्या इतिहास पैदा नहीं हो सकता? क्या साम्राज्यवादी नस्लों ने जिस प्रपगैंडा को लिपिबद्ध किया है सिर्फ वही इतिहास है? दरअसल सच्चा इतिहास तो एक निरपेक्ष दृष्टा होता है। ब्रिटिश ने जो हिंदुस्तान का इतिहास लिखा, औरंगजेब के समय जो शिबली नोमानी की कलम से बहा वो एक प्रपगैंडा है ठीक वैसे ही जैसे वर्णाश्रम को कर्म प्रधान बताने की तमाम कोशिशें ब्राह्मणवाद ने अपनी कलम से उकेरी हैं। सच्चा इतिहास वह है जो उन शोषितों और दलितों की आत्माओं पर टंकित है जिन्होनें उस इतिहास को जिया है। और अगर ऐसा नहीं है तो कोई बताए कि मंटो का टोबाटेक सिंह उन इतिहास की किताबों में कहाँ है? कहाँ है गंगौली के फुन्नन मिया? सच्चा इतिहास तो लोगों के मन मस्तिष्क और हृदय में घटित होता है और इसका एक ही साक्षी है - खुद समय।

कल्पना कीजिये कि यदि समय की अदालत लगे और उसमें उन सभी पक्षों को हाजिर होना पड़े जो अपनी शक्लों पर काला पोत कर इन तमाम किताबों पर चिपकी मात्राओं की ओट में छुपे हुए थे। जब औरंगजेब से दारा शिकोह का हिसाब मांगा जाये, हिन्दू राजाओं से दारा से गद्दारी करने का हिसाब मांगा जाये, अंग्रेजों से विभाजन का हिसाब मांगा जाये और अमेरिका से हिरोशिमा-नागासाकी का हिसाब मांगा जाये। कमलेश्वर की 'कितने पाकिस्तान' एक ऐसी ही अदालत का लेखा जोखा है। एक अनूठी कल्पना जिसमें मानव इतिहास के 5000 सालों को साढ़े तीन सौ पन्नों में उतारा गया है। कमलेश्वर की इस अदालत का दरवाजा खटखटाटी हैं वे लाशें जो कभी आक्रांताओं और विजेताओं की शौर्य गाथाओं के बोझ तले कुचली जाती थीं और आज के समय में वे न्यूज़ चैनलों पर दौड़ती न्यूज़ पट्टी को अपने सिरों पर ढोते हुए तेज़ी से गुज़र जाती है। कोलैटरल डैमेज के आकड़ों और पाई चार्टों में अपने प्रतिनिधित्व के लिए एक एक पिक्सल को मोहताज होकर स्पोन्सर्स का मुंह ताकती लाशें झकझोरते हुए कहती हैं कि बस अब और पाकिस्तान नहीं।

बिपन चन्द्र ने अपनी किताब History of Modern India में लिखा था कि किसी देश की आम जनता की आवश्यकताएँ अपने आप में ही सेकुलर होती हैं। सड़कें बनेंगी तो सबके लिए बनेंगी, अस्पताल बनेंगे तो सबको अच्छी स्वास्थ सेवाएँ मिलेंगी, शिक्षा, रोजगार, छत, बिजली, साफ पानी, सभी के लिए यही प्राथमिकताएँ हैं। गाँव-गाँव तक अगर बिजली पहुंचेगी तो वो हिन्दू के घर का भी बल्ब जलाएगी और मुसलमान के घर का भी। आम जनता की जरूरतें अपने आप में धर्मनिरपेक्ष होती हैं। लेकिन जब जनता को ये यकीन दिलाया जाये कि किस तरह उनकी ज़रूरतें तभी पूरी हो पाएंगी जब वे अलग हो जाएंगे। जब जनता को यकीन दिलाया जाता है कि बाबर ने हिंदुओं पर आक्रमण किया था, ना कि दिल्ली के मुसलमान शासक इब्राहिम लोदी पर। बाबर ने मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनाई और एक लाख चौहत्तर हज़ार हिंदुओं को अयोध्या में मारा गया था जबकि पंद्रहवीं सदी में अयोध्या की आबादी ही ज़्यादा से ज़्यादा चार हज़ार रही होगी। राम तो लोकप्रिय ही हुए तुलसीदास की रामचरित मानस के बाद। उस समय तो वैष्णवों के सबसे बड़े आराध्य कृष्ण कन्हैया ही थे। तुलसीदास ने रामचरित मानस लिखी बाबर के मरने के बाद। बाबर की राजधानी आगरा से मथुरा बाजू में था जो लोकप्रिय कृष्ण का स्थान था, वो बाजू वाला ज़्यादा लोकप्रिय स्थान तोड़ने के बजाए अयोध्या जा कर मंदिर क्यों तोड़ेगा? अंग्रेजों के जरिये जिस बाबरनामा को इतिहास का हिस्सा बनाया उसके वे पन्नें फटे हुए थे जिसमें उस यात्रा का ज़िक्र था जब वो फैजाबाद से आगरा गया। उन फटे हुए पन्नों के बारे में ही अफवाह उड़ाई गई कि उनमें ही बाबरी मस्जिद का जिक्र था। उसकी बेटी गुलबदन के लिखे हुमायूँनामा में उन फटे पन्नों का ज़िक्र कुछ यूं आता है कि बाबर की बीवी मेहम बेगम और बेटी गुलबदन पहली बार काबुल से आगरा आ रहीं थीं तो बाबर फैजाबाद से ही वापस आगरा उन्हें मिलने को आया गया था। वो कभी अयोध्या गया ही नहीं। बाबर की कब्र के ऊपर का शिलालेख भी अंग्रेज़ी इतिहासकारों के पढ़ने के बाद मिटा दिया गया। खुद बाबर की कब्र को आगरा से खोद कर काबुल ले जाया गया। काबुल में उसका क्या था? काबुल से तो वो हार कर एक नए वतन की तलाश करने हिंदुस्तान आया था। दरअसल ये सब हुआ 1857 की क्रांति के बाद जिसमें हिन्दू-मुसलमान साथ-साथ अंग्रेजों का विरोध कर रहे थे। इस तरह एक बेलगाम साम्राज्यवादी ताकत ने अपने मंसूबे पूरे करने के लिए पाकिस्तान तो तभी बना दिया था। वर्तमान समय में अमेरिकी इलैक्शन में भी डोनाल्ड ट्रम्प के द्वारा अमेरिका में भी एक पाकिस्तान कुछ ऐसे ही बनाया जा रहा है। खुद पाकिस्तान में भी बांग्लादेश एक और पाकिस्तान बन के उभरा। हिंदुस्तान में तो दलितों को ब्रह्मा के पैर में बने किसी गर्भाशय से पैदा हुआ बता कर एक पाकिस्तान बना दिया गया था। रसूल के बाद मौलवियों, उलेमाओं, काजियों और खलीफाओं ने इंसान और उस निराकार ब्रम्ह के बीच जगह-जगह दाढ़ियों, टोपियों, हिजाबों और बुर्कों के खेत लगा दिये जिनमें लगी अफीम की फसल ने आने वाली नस्लों में शियाओं का एक पाकिस्तान और एक सुन्नियों का पाकिस्तान बना डाला। खुद हिंदुओं ने गीता के कर्मवाद को छोड़ कर निरंकुश ब्राह्मणवादी वर्णवाद को खाद पानी देकर अपना-अपना पाकिस्तान बना लिया था।

5000 सालों में जो भी बड़ी घटनाएँ हुईं जिसने इस धरती के इतिहास जो मोड़ा वो कमलेश्वर ने बहुत रोचक ढंग से किताब में उतारा है। शुद्धतावादी इसे उपन्यास न मानकर अनुपन्यास कहते हैं, लेकिन कमलेश्वर का कहना है कि मैंने इसे उपन्यास समझ कर लिखा और लोगों ने इसे उपन्यास ही समझ कर पढ़ा।

कमलेश्वर ने नई कहानी विधा को समृद्ध बनाने में बहुत बड़ा योगदान दिया है। मैंने उन्हें कॉलेज के समय दैनिक भास्कर के संपादकीय पन्ने पर पढ़ना शुरू किया था। मुझे याद है कि अखबार में सबसे पहले यही चेक करता था कि कमलेश्वर का लेख आया है कि नहीं। उसके बाद हिन्दी सिनेमा में उनके योगदान के बारें में एक किताब 'कथाकार कमलेश्वर और हिन्दी सिनेमा' पढ़ी। उनके लिखे उपन्यास 'काली आंधी' पर गुलज़ार ने 'आंधी' और 'आगामी अतीत' पर 'मौसम' फिल्में बनाईं। उसी किताब में मैंने पहली बार 'कितने पाकिस्तान' के बारे में पढ़ा था। सन 2000 में निकला यह उपन्यास इतना बिका कि तीन महीने में ही दूसरा संस्कारण निकाला गया। इसकी पाइरेटेड फोटोकॉपियाँ भी खूब ब्लैक में बिकीं।

इतिहास पर ज़बरदस्त पकड़, भाषा में ज़बरदस्त ईंटेंसिटी और लिखावट में बेजोड़ प्रवाह। समय के इतने लंबे दौर में बार-बार आगे-पीछे आना-जाना बहुत अच्छा अनुभव है। ऐसा ही एक प्रयोग अश्विन सांघी ने रोजाबाल वंशावली में भी किया जिसमें वो कहते हैं कि प्राचीन समय की एशियाई सभ्यता हमारी समझ से कहीं ज़्यादा समृद्ध थीं। ये सिर्फ इत्तेफाक नहीं है कि यहूदियों के अब्राहम (Abraham) का A अगर आगे से हटा कर पीछे लगा दें तो ये ब्रम्हा (Brahama) हो जाता है। अमीश की Shiva Trilogy में भी ज़िक्र है कि महादेव शिव तो तिब्बत के थे और उनके पहले जो महादेव हुए थे 'रुद्र' वो पश्चिम एशिया के थे। उनके प्राचीन ग्रन्थों को देखें तो अग्नि देवता हैं 'अहुरमज़दा'। सभी अच्छी शक्तियों को कहा जाता था 'अहुर' जो कि 'असुर' से निकला शब्द है और उनके ग्रन्थों में जो बुरी शक्तियाँ हैं उन्हें कहा जाता है 'दैव'। ये ग्रंथ इतिहास का हिस्सा हैं। ये संस्कृतियाँ और सभ्यताएँ जो बनी, फली फूलीं और मिटीं या साम्राज्यवादियों ने जिन्हें मिटाया और जगह-जगह पाकिस्तान बनाने का एक जो ये सिलसिला शुरू किया अब बस। बहुत पाकिस्तान देख लिए दुनिया ने! अब और नहीं! और नहीं! और नहीं!

नोट:
इस किताब को आप Amazon से खरीद सकते हैं। किताब की कीमत है 182 रुपये।

Friday, July 15, 2016

खुशवंतनामा - मेरे जीवन के सबक


खुशवंत सिंह की एक उपन्यास 'ट्रेन टु पाकिस्तान' मैंने अपने कॉलेज के समय पढ़ी थी। वो उपन्यास आज भी मेरे पसंदीदा उपन्यासों में एक है। हाल ही में इंटरनेट सर्फ करते हुए मैं उनकी लिखी खुशवंतनामा तक पहुंच गया। यह किताब आत्मकथा नहीं है, निबंध भी नहीं हैं, न ही कोई दर्शन, लेख या चुटकुलों की किताब है। किताब ये सब कुछ न होते हुए भी कुछ कुछ सब कुछ है। ऐसा लगता कि खुशवंत सिंह ब्लॉग लिखना चाहते थे और किताब लिख बैठे। अलग-अलग विषयों पर छोटे-छोटे लेख हैं। विषय भी धर्म, गांधी, पत्रकारिता, लेखन, हास्य आदि से लेकर विस्कि और खाने-पीने तक की विविधता लिए हुए हैं।

खुशवंत सिंह कट्टर धर्मनिरपेक्ष लोगों में से एक हैं। लिबरल सोच और फ़्रीडम ऑफ स्पीच के ज़बरदस्त पैरोकार। उन्होनें जो देखा और जो महसूस किया वो बिंदास लिखा। देश में बढ़ती असहिष्णुता के बारे में भी उन्होनें लिखा। मैं भी उनकी इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ। असहिष्णुता देश में एक ज़हर की तरह फैलती जा रही है। जब अखलाक ही दादरी में हत्या हुई थी तब सत्ता पक्ष के तमाम लोग उन साहित्यकारों को निशाना बनाने में लगे थे जिन्होनें अपने पुरस्कार वापस किए थे। जबकि अवार्ड वापसी एक पुराना हथियार है अपना विरोध प्रकट करने का। नेटिव अमेरिकन्स के द्वारा फिल्मों में इंडियन्स को नीचा और गंवार दिखाने को लेकर के मर्लोन ब्रांडो ने मोशन पिक्चर कम्यूनिटी पर रेसिस्ट होने का आरोप लगाया था। और इसके लिए अपना विरोध जताते हुए उन्होनें गॉड फादर के लिए बेस्ट एक्टर का ऑस्कर अवार्ड वापस कर दिया। रबिन्द्रनाथ टैगोर ने नाइटहुड की अपनी उपाधि जलियाँवालाबाग हत्याकांड के विरोध में ब्रिटिश सरकार को वापस कर दी थी। इसी तरह खुशवंत सिंह ने भी अपना पद्म भूषण 1984 में इंदिरा गांधी द्वारा स्वर्ण मंदिर में सेना भेजने के विरोध में वापस कर दिया था। हाल ही में साहित्यकारों ने जब अवार्ड वापस किए तो इसकी गूंज न्यूयॉर्क टाइम्स तक सुनाई दी। सरकार की किरकिरी होने पर उन्होनें साहित्यकारों को ही निशाने पर लिया। इस पूरी कवायद का सबसे दुखद पहलू ये रहा कि नयनतारा सहगल, रोमिला थापर से ले कर उदय प्रकाश और यहाँ तक कि अशोक वाजपेयी जैसी महान शख़्सियतों की इंटेग्रिटी पर सवालिया निशान लगाया गया। सरकार के सुर में सुर मिलाते हुए जनता खुशी से झूमे जा रही थी। व्हाट्सएप और फेसबुक पर बुद्धिजीवियों के चरित्रहनन का फैशन चल पड़ा। जो समाज अपने बुद्धिजीवियों की नहीं सुनता और सरकारी वर्ज़न पर ज़्यादा भरोसा करता है ऐसे समाज का अंत बस निकट ही है। संस्कृत का एक श्लोक है -

लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडयन्
पिबेच्च मृगतृष्णिकासुसलिलं पिपासर्दितः ॥
कदाचिदपि पर्यटन् शशविषाणमासादयेत्
न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥

एक बार रेत से भी तेल निकल सकता है, एक प्यासे आदमी को भी एक बार मरीचिका में पानी मिल सकता है, इधर-उधर भटकते हुए किसी को शायद खरगोश के सींग भी मिल जाएँ लेकिन एक पढे-लिखे जिद्दी मूर्ख को समझाया नहीं जा सकता। जब किसी का मन पूर्वाग्रहों से ग्रसित हो तो वो लॉजिक नहीं समझ सकता। शायद इसी से सबक लेते हुए सत्ता पक्ष ने अपनी पूरी ऊर्जा साहित्यकारों, फ़िल्मकारों, चित्रकारों, इतिहासकारों और यहाँ तक कि वैज्ञानिकों तक को कांग्रेस का एजेंट बताने में लगा दी और पब्लिक के दिमाग में एक ऐसा चित्र ठूंस दिया कि जो भी सरकारी वर्ज़न से असहमत है वो गद्दार है। अब न कोई महंगाई पर बात करे न विदेश नीति पर और न ही रोहित वेमुला पर। ये दुनिया के तमाम शासक वर्गों का सबसे खूबसूरत ख्वाब है कि उनकी जनता उन्हीं के सुर में सुर मिलाये। कोई भी ऐसा सवाल न उठाए जिससे सत्ता पक्ष की नाकामयाबी उघड़े। खुशवंत सिंह ने किताब में इस बारे में आगाह किया है। जनता चुनाव तो सत्ता पक्ष का करती है लेकिन खुद उसे विपक्ष में ही बैठना चाहिए ताकि सरकार जवाबदेही से बंधी रहे। आपने अपना वोट दे दिया और आपकी पसंद की सरकार भी बन गई। एक लोकतन्त्र में आपका जो रोल मतदाता का था वो आपने अदा कर दिया। क्या हमेशा ही मतदाता बने रहेंगे? अब नागरिक के रोल में भी तो आओ। कुछ कड़े सवाल तो करो सरकार से।

आस्था पर भी खुशवंत सिंह ने बहुत अच्छा लिखा है। खुशवंत सिंह खुद को नास्तिक (अनीश्वरवादी; atheist) मानते हैं लेकिन साथ ही उन्हें धर्म दर्शन पढ़ना अच्छा लगता है। मैं भी एक अनीश्वरवादी हूँ और मुझे भी दर्शन पढ़ना अच्छा लगता है। इस मामले में मैं खुद को खुशवंत सिंह के ज़्यादा नजदीक पाता हूँ बनिस्बत भगत सिंह के। खुशवंत सिंह ने ताउम्र पगड़ी रखी। धर्म में भरोसा न करते हुए भी ऐसा करना अपनी परम्पराओं के सम्मान के अतिरिक्त और कोई वजह तो मुझे नहीं देता। जबकि दूसरी ओर भगत सिंह भी अनीश्वरवादी थी। उन्होनें अपनी पगड़ी हटा दी थी। हालांकि ऐसा उन्हें अंग्रेजों से बचने के लिए करना पड़ा लेकिन बाद में उन्होनें इसका ज़िक्र करते हुए कहा था कि उनका बस चले तो अपने पहचान से हर उस चिन्ह को हटा दें जो किसी भी तरह सिक्खी से ताल्लुक रखता है। पिछली कांग्रेस सरकार ने जो मूर्ति लगवाई है संसद परिसर में वो ये है:



जानबूझकर एक अनीश्वरवादी के सिर पर पगड़ी रखी जा रही है ताकि अपनी पार्टी के 1984 में किए गए पापों को पगड़ी से ढांपा जा सके । अभी हाल में एक 'जॉइन आरएसएस' का विज्ञापन देखा था जिसमें भगत सिंह की कांग्रेस की पहनाई पगड़ी को फोटोशॉप के जरिये भगवा कर दिया गया और उनके हाथ में एक भगवा झण्डा थमा दिया गया। नीचे एक कैपशन कुछ एस तरह चिपका दिया गोया भगत सिंह खुद कह रहे हो कि आओ और आरएसएस जॉइन करो। एक वामपंथी क्रांतिकारी का आरएसएस से क्या लेना देना? भगत सिंह के बारे में अगर और जानना है तो मलविन्दरजीत सिंह वढैच की लिखी भगत सिंह को फांसी - वॉलयूम 1 और भगत सिंह को फांसी - वॉलयूम 2 पढ़ना चाहिए।

खैर एक प्रश्न है जो हमेशा मुझे दुविधा में डालता है कि नास्तिक होने के बाद क्या मुझे अपनी परम्पराएँ छोड़ देनी चाहिए? या फिर उन्हें फॉलो करते रहना चाहिए सिर्फ इस बात के लिए कि वो हमारी 'परम्पराएँ' हैं। मेरे दादाजी मूर्तिपूजा के इस कदर विरोधी थे कि वो दिवाली की पूजा में भी शरीक नहीं होते थे। इस तरह से वो मुझे भगत सिंह के खेमे में नज़र आते हैं। जबकि मैं दिवाली की पूजा में न केवल शामिल होता हूँ बल्कि घर में झालर तागने से ले कर पटाखे चलाने तक बड़ा उत्साहित भी रहता हूँ। मैं इसे धार्मिक अनुष्ठानों से इतर एक परंपरा के रूप में ज़्यादा देखता हूँ। हमारी सभ्यता 5000 सालों से इस ज़मीन पर है और इसने न जाने कितने उतार चढ़ाव देखें। न जाने कितनी ही संस्कृतियों से प्रभावित हुई और न जाने कितनों को प्रभावित किया। एक सभ्यता ने इस सफर में, जो अभी भी जारी है, न जाने कितनी परम्पराएँ विकसित कीं। उनमें से जो हानिकारक नहीं हैं उन्हें फॉलो करने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। किताब पढ़ते हुए खुशवंत सिंह का जो एक चित्र खिंचता है उसमें वो एक उदार अनीश्वरवादी प्रतीत होते हैं। जब हम ईश्वरवादी लोगों से उम्मीद करते हैं कि वे धर्मांधता में न उलझें, कट्टरपंथ छोडकर उदारवाद की तरफ बढ़े। धर्म में रिफॉर्म्स की वकालत करते भी नहीं अघाते तो अनीश्वरवादियों को भी थोड़े उदारवाद की ज़रूरत है।

किताब के अंतिम हिस्से में उन्होनें अपने कुछ चुट्कुले भी डालें हैं और कहा है कि भारत एक हास्य प्रधान देश नहीं है। लोग अपने ऊपर नहीं हँसना जानते। हर चीज़ को बहुत गंभीर बना के रखते हैं। एक जगह उन्होनें अपने बीमारी का ज़िक्र किया है जब डॉक्टर ने उन्हें बताया कि उन्हें अंदरूनी बवासीर है। उनका कहना है कि ये ऐसा है कि लगता है कैंसर होता तो बेहतर होता। कैंसर में जो एक रूमानियत है, बवासीर में वो बिलकुल भी नहीं है।

उन्होनें बाबाओं, ज्योतिषियों और अंधविश्वास का ताउम्र विरोध किया। बाबाओं को तो उन्होनें परजीवी तक कह डाला। 1984 में भिंडरावाले के उत्थान के समय उन्होनें बहुत छापा था खालिस्तान की मांग के विरोध में। उन्हें बहुत धमकी भरे पत्र आते थे। ट्रोलिंग ट्विटर आने के बाद ईजाद हुई संस्कृति नहीं है। कनाडा से आये एक पत्र का ज़िक्र किया है जिसके ऊपर लिखा पता सिर्फ इतना था-
बास्टर्ड खुशवंत सिंह,
इंडिया।
उन्होनें भारतीय डाक सेवा का आभार माना कि उन्होनें इतने बड़े देश में एक मात्र हरामी को ढूंढ निकाला।

कुल मिला के किताब एक बार पढ़ने लायक है। खुशवंत सिंह का सीधा मंत्र है- जब तक जियो, पूरी ज़िंदादिली से जियो। किताब को आप Amazon से खरीद सकते हैं.

Wednesday, July 13, 2016

2014 दि इलेक्शन दैट चेंज्ड इंडिया



अभी हाल में राजदीप सरदेसाई की किताब '2014 दि इलेक्शन दैट चेंज्ड इंडिया' पढ़ी। एक ही शब्द है लाजवाब। 2014 में हुए इलैक्शन का इससे अच्छा ब्यौरा दे पाना मुश्किल है। किताब में 10 चैप्टर हैं और इनके अलावा एक भूमिका और एक एपिलॉग भी है। राजदीप सरदेसाई मीडिया में एक जाना पहचाना नाम हैं। 2008 में उन्हें पद्मश्री सम्मान भी मिला है।

यूं तो 2014 आम चुनावों पर एक किताब 'द मोदी इफेक्ट' मैंने पहले पढ़ी थी जो कि एक बीबीसी पत्रकार लांस प्राइस ने लिखी थी। उस किताब को पढ़ते हुए एक अधूरापन महसूस होता है। लगता है कि जैसे कुछ छूट गया है। इसकी वजह मुझे लेखक का विदेशी होना लगता है। एक विदेशी पत्रकार के तौर पर आप औपचारिक सरकारी पहलुओं को छू सकते हैं, कुछ मानवाधिकारों की बात भी कर सकते हैं लेकिन भारतीय चुनावों के कवरेज के साथ न्याय कर पाना इतना आसान नहीं हैं। जातिगत समीकरण, परिवारवाद, घोटाले, और उनकी आड़ में नित नए बनते बिगड़ते गठजोड़ तो वही समझ सकता है और वही समझा सकता है जिसने हिन्दुस्तान की मिट्टी में सालों इस उधेड़-बुन को देखा हो और इसे कवर किया हो। राजदीप-1, प्राइस-0.

राजदीप सरदेसाई को मैंने करीब 2004 में पहली बार टीवी पर देखा था जब वो एनडीटीवी के प्रबंध संपादक हुआ करते थे। उनका एक प्रोग्राम आता था जिसमें वो राजनीतिक शख़्सियतों के इंटरव्यू किया करते थे। मुझे याद है कि उस शो को मैं बड़े चाव से देखा करता था।

राजनीति के गलियारों में होती घटनाओं का एक औपचारिक पहलू होता है जिसे हम टीवी न्यूज़ में देखते हैं। लेकिन उन्हीं गलियारों में उन्हीं गतिविधियों का एक अनौपचारिक पहलू भी होता है। वो अनौपचारिक पहलू जो कैमरे के बंद होने से लेकर अगली मर्तबा कैमरा चालू होने के बीच होता है। वो अनौपचारिक पहलू जो पत्रकारों और नेताओं के बीच फोन की बातचीत में घटित होता है। और वो अनौपचारिक पहलू जो कभी-कभी कुछ स्टिंग ओपरेशन्स की वजह से जब दुनिया सामने आ जाता है तो हमें पता चलता है कि सब कुछ कितना सड़ांध भरा और बदबूदार है। जिस तरह मुंबइया फिल्म का एक 'बिहाइंड द सीन' होता है, ठीक वैसा ही कुछ राजनीति में भी होता है। और पर्दे के पीछे की इस दुनिया को अक्सर किताबों में ही जगह मिलती है। चाहे आप कुलदीप नैयर की आत्मकथा 'बियोंड द लाइंस' को देखें, या बरखा दत्त की 'दिस अनक्वाएट लैंड' को या फिर राजदीप की '2014...' को देखें। टीवी पर हम देखते हैं कि राजदीप ने 2002 का मुद्दा उठाया और मोदी जी ने उन्हें कोई जवाब नहीं दिया। उन्हें सरेआम मोदी विरोधी का मेडल भी दे दिया गया। लेकिन वही राजदीप जब मोदी से अक्सर ही रात को फोन पर बात वर्तमान राजनीति की पड़ताल करते हैं तो ये आम लोगों को नहीं पता चलता। इसी तरह लालू से एक मुलाक़ात का ज़िक्र है जो कि बाथरूम में बैठ के हुई जब लालू शेविंग कर रहे थे। एक ज़िक्र है राज ठाकरे के बारे में, जिसमें वो इंटरव्यू में राजदीप पर बहुत बुरी तरह भड़क जाते हैं और कहते हैं- 'बिहेव योरसेल्फ'। कैमरा बंद होते ही कहते हैं - 'अरे राजदीप! कैसी लगी मेरे स्टाइल? देखना अब तुम्हें कितनी टीआरपी मिलती है'। ऐसे ही पर्दे के पीछे की ढेर सी बातें इस किताब में मिलेंगी।

कई लोग राजदीप को कांग्रेस का पिछलग्गू मानते हैं, उन्हें भी ये किताब एक बार पढ़नी चाहिए। किताब में राहुल गांधी और कांग्रेस के वर्क कल्चर की जितनी तीखी आलोचना राजदीप ने की है, उतनी तो कुलदीप नैयर ने इंदिरा गांधी की भी नहीं की थी। राजदीप किताब लिखते वक़्त बहुत एम्बिशियस रहे हैं। उनकी पूरी तमन्ना है कि सालों बाद भी मीडिया और पॉलिटिकल साइन्स के विद्यार्थी इस किताब को एक बार ज़रूर से पढ़ें।

किताब शुरू होती है मोदी की राजनीतिक यात्रा से। किस तरह से मोदी एक इवैंट मैनेजर थे लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा के जो तब राजदीप के संपर्क में आए जब राजदीप वहाँ उस यात्रा को कवर करने पहुंचे थे। एक समय था जब मोदी भी मीडिया में आने के लिए घंटों इंतज़ार किया करते थे। आगे राहुल की यात्रा भी है। राजदीप ने पूरी कोशिश की है कि असल राहुल गांधी को पन्नों पर उतारा जा सके। चाय पे चर्चा से लेकर 3D रैलियों तक के तमाम पहलू बहुत रोमांचक तरीके से इस किताब में मिलेंगे। क्षेत्रीय पार्टियों की राजनीति भी किताब का एक महत्वपूर्ण पहलू है। जब मोदी लहर उठ रही थी तब ममता बैनर्जी, जयललिता, मायावती से ले कर के नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडू, जगनमोहन रेड्डी, नीतीश कुमार, लालू, मुलायम और पवार तक के गणित की विस्तार से चर्चा है।

किताब का एक सबसे महत्वपूर्ण पहलू है - समकालीन मीडिया की समीक्षा। मीडिया के आत्मावलोकन के लिए किताब बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न उठाती है। किस तरह टीआरपी के लिए मीडिया ने कदम-कदम पर जर्नलिस्टिक प्रिंसिपल्स की धज्जियां उड़ायीं और अंततः खुद भी मोदी प्रचार का चुनावी भोंपू बन के रह गया। मीडिया के बारे में जो चैप्टर है पूरी किताब की हाइलाइट लगा मुझे। आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल के बारे में भी काफी कुछ लिखा गया है। कुल मिला के विगत कुछ सालों में जो जो भी घटनाएँ हमने अपने इर्द-गिर्द होते देखीं हैं, किताब उनको रोमांचक भाषा में सिलसिलेवार पेश करती है। वर्तमान राजनीति में रुचि लेने वालों के लिए अनिवार्य।

इस किताब को आप Amazon से खरीद सकते हैं.