Saturday, December 24, 2016

किताबें जनवरी की

सितंबर में 'The Home and the World' के बाद दफ़्तर के काम में दिन कुछ यूं मसरूफ़ हुए कि पढ़ने का वक़्त निकालना मुश्किल होने लगा. फिर इधर फ़ैमिली को भी सिंगापुर शिफ्ट करने की जुगत थी जिसने लम्हों की खुरचन भी समेट डाली. दो महीने बाद दिसंबर में चार किताबों का लक्ष्य अंततः रखा:
1. बा-बॉय (कृष्ण बिहारी)
2. मधुशाला (हरिवंश राय 'बच्चन')
3. Death under the Deodars (रस्किन बॉन्ड)
4. कठघरे में लोकतंत्र (अरुंधति रॉय)

सभी किताबें अच्छी लगीं. अगले महीने यानी जनवरी के लिए पांच किताबें चुनी हैं:
1. वैदिक संस्कृति (गोविन्द चंद्र पांडेय )
2. This is not the end of the book (Umberto Eco)
3. An Era of Darkness: The British Empire in India (Shashi Tharoor)
4. रश्मिरथि (रामधारी सिंह 'दिनकर')
5. नारी तुम अनन्या हो (जयश्री गोस्वामी महंत)

Sunday, September 11, 2016

द होम एंड द वर्ल्ड


सितंबर महीने की पहली किताब थी - रबिन्द्रनाथ टैगोर की लिखी 'द होम एंड द वर्ल्ड'। यूं तो टैगोर का नाम सभी ने सुना है। गीतांजली के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला था। उनका लिखा गीत 'जन गण मन' हमारा राष्ट्रगान बना और उन्हीं का लिखा एक और गीत 'आमार शोनार बांग्ला' पाकिस्तान के विभाजन के बाद बने नए देश बांग्लादेश का भी राष्ट्रगान बना। शायद टैगोर एकमात्र ऐसे कवि होंगे जिनके लिखे गीत एक नहीं बल्कि दो देशों के राष्ट्रगान बने। उन्होनें अपने लिखे गीतों को संगीत-बद्ध किया और इस संगीत को हम सभी रबिन्द्र-संगीत के नाम से जानते हैं। उन्होनें कोलकाता से 160 किलोमीटर पर एक छोटा-सा क़स्बा बसाया - 'शांति निकेतन' जो आज 'विश्व-भारती विश्वविद्यालय' के रूप में मौजूद है। मशहूर अर्थशास्त्री 'अमर्त्य सेन' शांति निकेतन के एक स्कूल से पढे हैं और आगे चलकर विश्वभारती विश्वविद्यालय के कुलपति भी बने। 

टैगोर के बारे में मैंने सबसे पहले अनन्या बाजपेयी की लिखी Righteous Republic में पढ़ा था। अमूमन हमारे महापुरुषों के बारे में जो किताबें हमारे इर्द-गिर्द पढ़ने को मिलतीं हैं, उनके जीवन की घटनाओं तक सीमित रह जातीं हैं। अनन्या बाजपेयी की किताब इस मामले में अलग थी कि इसमें इन विराट-व्यक्तित्वों की विचार-प्रणाली की पड़ताल को आधार बनाया गया था। अंबेडकर जैसे थे वैसे वे क्यों थे? गांधी, नेहरू और टैगोर जैसे थे वैसे क्यों थे? महीनों बाद एक सफर के दौरान रेल्वे-प्लैटफ़ार्म के एक स्टॉल से 'टैगोर की प्रसिद्ध कहानियाँ' नाम की एक किताब खरीदी। उनकी लिखावट का मैं पहली ही बार में कायल हो गया। एक बार तो बंगाली सीखने का भी ख़याल आया टैगोर को ओरिजिनल में पढ़ने के लिए। लेकिन फिर मैं ट्रांसलेटेड वर्ज़न्स पर सेटल हो गया। 

टैगोर कभी भी राष्ट्रवादी नहीं थे। उनके हमेशा गांधी से वैचारिक मतभेद रहे। 'द होम एंड द वर्ल्ड' उपन्यास की जो पृष्ठभूमि है वो तात्कालीन बंगाल की है जब स्वदेसी आंदोलन चल रहा था। इस किताब को पढ़ते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इसमें जो माहौल दिखाया गया है ये उपन्यास लिखे जाते समय वर्तमान था। इतिहास की सरकारी किताबों में इन आंदोलनों का जो पहलू मिलता है वह ये कि लोग समूहों में इकट्ठे हो कर अपनी विदेशी-वस्तुओं को आग के हवाले कर दिया करते थे। इन किताबों में उन घटनाओं को जिस भी तरह महिमामंडन किया जाये लेकिन इस उपन्यास में उस राजनीति का माइक्रो-लेवल पर एक्ज़ीक्यूशन दिखाया है। राष्ट्रवाद के उन्माद में तमाम छोटे-छोटे दल बन गए थे जो लोगों से उनका सामान छीन-छीन कर जला दिया करते थे। दरअसल ये कुछ उसी तरह था जैसे आज के समय में तमाम राजनीतिक दल बंद का आयोजन करते हैं। बंद की घोषणा राजनीतिक पार्टियां करतीं हैं और फिर उन्हीं के समर्थक सड़कों पर उतर कर, बाज़ारों में घूम-घूम कर तमाम दुकानों को बंद करवाते हैं। अगर आप एक दुकानदार हैं तो आप उस बंद आयोजन के समय अपनी दुकान बंद न करने का जोखिम नहीं ले सकते भले ही आप बंद आयोजन करवाने वाले दल की विचारधारा से सहमत हों या ना हों। 'द होम एंड द वर्ल्ड' हमारे दिमागों में एक छवि गढ़ चुके उस आंदोलन का एक दूसरा पहलू पेश करती है और बहुत हद तक कामयाब भी होती है। देश की वर्तमान राजनीति में भी हम अपने ही समाज की इस प्रकृति को पहचान सकते हैं। गायों की सेवा करना या किसी भी प्राणी की सेवा करना, उनका ध्यान रखना, उनको खाने को देना ये सब अच्छा है लेकिन गौरक्षा के नाम पर जब उन्माद होता है तो अखलाक की हत्या हो जाती है। हमारी नीति-सूक्तियों में एक बात कही गई है - 'अति सर्वत्र वर्जयते' (किसी भी चीज़ की अति अच्छी नहीं होती)। टैगोर राष्ट्रवाद के खिलाफ थे। क्योंकि उनके अनुसार राष्ट्रवाद नई पीढ़ी की सोच को एक collective में, एक समूह में बदल दे रहा था जिसमें सबसे पहले व्यक्ति विशेष की सोच पर लगाम लगाई जाती है और collective सोच से भिन्न नज़रिया रखने पर आपको गद्दार करार दिया जाता है। ये collective सोच बढ़ते-बढ़ते अपनी सीमाओं का इस तरह विस्तार करती है कि उसी collective में मौजूद individuals की या इकाइयों की सीमाओं के भीतर अतिक्रमण हो जाता है। तब एक समय आता है कि कलेक्टिव पवित्र बन जाता है, हर बुराई से ऊपर उठ जाता है, और इस तरह किसी भी तरह की आलोचना से भी। उस वक़्त collective कुछ भी कर सकता है। हमारे समय में भी इस बात को कई राजनीतिक दल समझ रहे हैं और अपनी राजनीतिक अभिलाषाओं को धर्म, राष्ट्रवाद और गाय के लबादे में ओढ़ के एक collective बनाने की तैयारी कर रहे हैं। गणतन्त्र की इकाई एक नागरिक होता है। उस इकाई को खत्म कर समर्थकों का एक हुजूम, एक collective तैयार किया जा रहा है। नेता चाहे जो करे नागरिक अब कभी फेसबुक पर, कभी ट्विटर पर, कभी किसी आर्टिकल के कमेन्ट सेक्शन में अपने नेता के समर्थन में नारे लगाता मिल जाता है। दरअसल नागरिक को अब नागरिक रहने ही नहीं दिया जा रहा है। उसे समर्थक बनाना ही उद्देश्य है। और जब तक आप collective के दड़बे में बैठे भेड़-बकरियों की तरह नहीं हो जाते ये प्रक्रिया जारी रहेगी। कभी धर्म का एक दड़बा होगा जिसमें एक मस्जिद गिरा दी जाएगी और देश की भेड़-बकरियाँ अपनी ही संस्कृति के तार-तार होने का जश्न मनाएंगी। कभी एक जाति का दड़बा होगा जिसमें कोई वेमुला अपना वजूद रस्सी पर टांग के चला जाये और भेड़-बकरियाँ इस बात पर नारेबाजी करें कि वो दलित था कि नहीं। कभी कोई पांसरे गोली खाता है, कभी कोई अखलाक मरता है। टैगोर का पक्ष ये था कि भारत की समस्याओं का राजनीतिक समाधान नहीं है। दरअसल मुद्दा सरकार है ही नहीं मुद्दा समाज है। हमें निरक्षरता, अज्ञानता, जातिवाद, सांप्रदायिकता, दलित उत्पीड़न, नारी उत्पीड़न जैसी सामाजिक बुराइयों को दूर करने में अपनी ऊर्जा लगानी चाहिए ना कि इसे सरकार बदलने में बर्बाद करनी चाहिए। देश की पहचान उसकी सीमाओं से नहीं उसके लोगों से होती है। अगर लोग अज्ञानता में जीने को अभिशप्त हैं तो किसकी सरकार है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जो अंग्रेजों ने हमारे साथ किया क्या हम कुछ-कुछ वैसा ही कश्मीर के साथ नहीं कर रहे? इरोम शर्मीला के साथ जो हो रहा है क्या वो सही है? क्या हम अपने आदिवासियों के साथ वही नहीं कर रहे जो अंग्रेजों ने कभी किया था? क्या गांवों में सूखा होने पर सरकार कर्जा माफ कर रही है? उनकी मदद कर रही है? नहीं! किसान आज भी आत्महत्या कर रहे हैं। क्या अंतर हुआ अंग्रेजों के जाने से अगर आज भी हमारे गावों की हालत लगान के गाँव की तरह है जो सूखे के बावजूद लगान से मुक्त नहीं हो पा रहा था? दरअसल बात ये कभी थी ही नहीं कि किसकी सरकार हो, मुद्दा है कि कैसी सरकार हो और कैसा समाज हो। नेहरू इस बात को समझते थे लेकिन अफसोस उनके बाद कोई दूसरा नेहरू न हो पाया। 

इस किताब को आप Amazon से खरीद सकते हैं।

इस किताब पर सत्यजीत रे ने एक फिल्म भी बनाई थी - 'घरे बाइरे'। ये फिल्म youtube पर इंग्लिश सबटाइटल्स के साथ मिल जाएगी।



Sunday, September 4, 2016

द ग्लास कैसल



अगस्त महीने की आखिरी किताब थी जीनेट वॉल्स की लिखी 'द ग्लास कैसल'। जीनेट वॉल्स एक अमरीकी जर्नलिस्ट हैं और ये उनका लिखा संस्मरण है। एक किताब जो उनके और उनके पिता के रिश्ते के बीच कुछ तलाश करती हुई सीधे दिल में उतरती है और कुछ हद तक उसे तोड़ भी देती है।

इंसान एक परिस्थितिजन्य पुतला है। उसका व्यक्तित्व परिस्थितियों के आसरे परत दर परत बनता चला जाता है। जब हम किसी इंसान से मिलते हैं तो दरअसल हम उसकी ज़िंदगी की तमाम परिस्थितियों से उपजे पूर्वाग्रहों, विचारों, फलसफ़ों, मान्यताओं और नैतिकताओं के समग्र से साक्षात्कार कर रहे होते हैं। जब ये किरदार आपस में एक दूसरे से मिलते हैं तो अपनी-अपनी परतों में कुछ जोड़ते, कुछ घटाते चलते हैं। कई बार अपनी ज़िंदगियों में पीछे मुड़कर देखने पर लग सकता है कि बहुत कुछ बदल सकता था अगर 'उस' मोड पर 'वो' फैसला न लिया होता या 'वो' फैसला ले लिया होता। कुछ सपने मलाल बन के रह जाते हैं और उनमें से कुछ मलाल गुजरते वक़्त के साथ कसक बन के सिर उठाते हैं, टीस पैदा करते हैं।

जीनेट वॉल्स का बचपन मुफ़लिसी में गुज़रा। उनके पिता एक जीनियस थे। गणित, फ़िज़िक्स और लिटरेचर में प्रकांड। अपनी बेटी से बहुत प्यार करने वाले। लेकिन इन सब बातों के साथ ही साथ एक शराबी भी। उनकी माँ जो एक लिटरेचर में रुचि रखने वाली, पेंटिंग करने वाली, आज़ाद ख़यालों वाली, खुले आसमान में उड़ने वाली चिड़िया है वो किसी भी तरह के नियमों में नहीं बंध सकती। नतीजा ये हुआ कि बच्चों को खुद ही अपना और एक दूसरे का ध्यान रखना अपनी उम्र में बहुत पहले ही सीख लेना पड़ा। माँ-बाप दोनों की रुचि पढ़ने में होने की वजह से उनके बच्चों को भी शुरूआत से ही लाइब्रेरी की आदत लग गई। लेकिन परिस्थितियाँ ऐसी बनती गईं कि बच्चे बेहतर ज़िंदगी के लिए खुद सोचने लग गए और आगे चल कर एक बेहतर ज़िंदगी बना भी सके। वॉल्स के पिता का किरदार किसी फैंटेसी-सा लगता है और पढ़ने वाले के मन में किसी पेंडुलम सा एक फ़िलॉसफ़र से लेकर एक गुड-फॉर-नथिंग के बीच के आयाम में डोलता रहता है। उम्र के अंतिम पड़ाव में जब एक बाप अपने आप से पूछता है कि क्या मैंने अपनी बेटी के लिए कुछ किया है? क्या मैंने उसे सिर्फ निराश किया है? इसका जवाब वो खुद भी जानता है पर शायद किसी उम्मीद में बेटी से भी पूछता है। बेटी भी झूठ नहीं बोलना चाहती और बात टल जाती है। क्या वाक़ई टल पातीं हैं ऐसी बातें? पिता अपनी बेटी को बचपन से ही एक काँच के महल का सपना दिखाता था जिसे वो एक दिन उसके लिए बनाएगा। दोनों घंटों बैठकर उसकी बहुत-सी प्लानिंग करते, खूब सारे नक्शे बनाते, छत पर सोलर एनर्जी पैनल के लिए भी खूब कैल्कुलेशन करते। वही बाप जब मृत्यु शय्या पर लेटे हुए बेटी से कहता है कि मैं तुम्हारे लिए ग्लास कैसल नहीं बना पाया, तब बेटी कहती है - "कोई बात नहीं! लेकिन हमने उसकी प्लानिंग करने में एक शानदार समय गुज़ारा।" तब कहीं इस बात का एहसास होता है कि ज़िंदगी मंज़िल नहीं सफर की खूबसूरती के बारे में है।

एक मर्तबा क्रिसमस पर पैसे न होने पर पिता अपनी बेटी को शहर से दूर ले कर गया और आसमान में उसके साथ निहारते हुए उससे कहा - 'अपना पसंदीदा सितारा चुन लो। इस बार क्रिसमस में तुम्हें तुम्हारा मनपसंद तारा मिलेगा'। जब बेटी ने उससे कहा कि आप किसी को तारा नहीं दे सकते क्योंकि उनका कोई मालिक नहीं है। तब पिता ने कहा - 'उनका कोई मालिक अब तक नहीं है और इसीलिए सिर्फ आपको अपना दावा ठोंकना है, ठीक वैसे ही जैसे क्रिस्टोफ़र कोलम्बस ने अमेरिका पर ठोंका था।' बेटी ने चमकता हुआ वीनस चुन लिया। पिता के मरने के बाद जब कभी बेटी अपनी निजी ज़िंदगी में उदास होती तो शहर की बत्तियों की पहुँच से बाहर निकल आती और अपनी गाड़ी को सड़क के किसी किनारे रोक कर वीनस को ताका करती।

कुछ किताबें अच्छी होतीं है, कुछ बेहद अच्छी लेकिन कुछ किताबें आपको रुला देतीं हैं और उन किताबों के बारे में आप कुछ कह नहीं पाते क्योंकि उन्हें सिर्फ महसूस किया जा सकता है। 'द ग्लास कैसल' ऐसी ही एक किताब है जो आपको कभी आपको गुदगुदाती है, कभी रुलाती भी है, कभी दिल भी तोड़ती है लेकिन अंत में आपको speechless कर के छोडती है। 

इस किताब को आप Amazon से खरीद सकते हैं।

Sunday, August 28, 2016

किताबें सितंबर की

अगस्त के लिए चार किताबों का लक्ष्य था और ये किताबें सोचीं थीं:
1. Metamorphosis (फ्रैंज काफ्का)
2. गुनाहों का देवता (धर्मवीर भारती)
3. मेरे मंच की सरगम (पीयूष मिश्रा)
4. Home and the World (रबिन्द्रनाथ टैगोर)

इनमें से 'मेरे मंच की सरगम' और 'Home and the World' की delivery ही नहीं हो पाई। इसलिए इन दो किताबों की जगह ली ट्विंकल खन्ना की 'मिसेज़ फनीबोन्स' और जीनेट वॉल्स की 'द ग्लास कैसल' ने। अभी 'द ग्लास कैसल' पढ़ रहा हूँ और जल्द ही अनुभव साझा करूंगा। 

सितंबर का टार्गेट भी चार किताबों का है और जो किताबें चुनी हैं वे हैं:

1. Home and the World (रबिन्द्रनाथ टैगोर)


2. मेरे मंच की सरगम (पीयूष मिश्रा)


3. मधुशाला (हरिवंश राय 'बच्चन')


4. ब-बाय (कृष्ण बिहारी)


Saturday, August 20, 2016

गुनाहों का देवता


अगस्त महीने की तीसरी किताब थी - गुनाहों का देवता। किताब के लेखक हैं धर्मवीर भारती। बहुत कुछ सुना था इस किताब के बारे में। इस किताब को मेरे जान-पहचान के बहुत लोगों ने recommend भी किया था। ये हिन्दी रोमैंटिक उपन्यासों में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय उपन्यासों में एक है। इसके कई भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं, सौ से ज़्यादा संस्करण निकल चुके हैं और आज भी युवा वर्ग में हिन्दी प्रशंसकों की ये पसंदीदा किताबों में एक है। इस उपन्यास में प्रेम का एक बलिदानी रूप लेखक ने खींचा है और वो कितना सही, कितना गलत है इसे open-ended रख छोड़ा है। ख़ैर, इस उपन्यास के इतने लोकप्रिय होने के बारे में अलग-अलग लोगों की अलग-अलग राय है।

इस उपन्यास का पहला संस्करण 1949 में छपा था। तब देश का माहौल कुछ दूसरा था। उस समय की जो युवा पीढ़ी थी उसके चारों तरफ त्याग, बलिदान और आदर्श के लिए प्रेरणास्रोत बने क्रांतिकारी थे। उसी समय नई-नई आज़ादी मिली थी। दूसरे विश्वयुद्ध के ख़त्म होने और हिटलर के पतन के बाद जो दुनिया एक नए शीत-युद्ध की तरफ बढ़ रही थी वो दो धड़ों में बंट चुकी थी। एक तरफ अमरीका का घोर पूंजीवाद था जो ताज़ा-ताज़ा हिरोशिमा-नागासाकी पर बम गिरा चुका था और दूसरी तरफ था समाजवाद। भारत ने हाल ही में 200 साल के क्रोनी कैपिटलिज़्म से मुक्ति पाई थी। ऐसे में समाजवाद एक नैचुरल रोमांटिक थॉट था। भारत के शीर्ष नेता नेहरू, जो दुनिया के बड़े डेमोक्रैट्स में गिने जाते थे, खुद समाजवादी थे। भारती का ये उपन्यास ऐसे ही दौर में युवा पीढ़ी के भीतर का द्वंद्व है जिसे एक प्रेम कहानी की शक्ल में खींचा गया है। 

कोई इंसान अपने कर्मों से महान बनता है लेकिन यदि कर्मों का प्रयोजन ही सिर्फ महानता को प्राप्त कर लेना हो जाये तो परिभाषा का एक नया संकट पैदा हो जाता है। महानता की परिभाषा का। कहानी का मुख्य किरदार है चंदर जिसकी परवरिश इलाहाबाद के शुक्ला जी के घर में होती है जो शिक्षा विभाग में बड़े अधिकारी हैं। उनकी एक लड़की है सुधा। चंदर और सुधा में एक अनकहा प्रेम है। शुक्ला जी के चंदर के ऊपर बहुत अहसान हैं। एक दिन शुक्ला जी चंदर को बुलाते हैं और उसे अपनी नई किताब के बारे में बतलाते हैं। किताब में भारत की जाति व्यवस्था की पुरज़ोर पैरवी की गई है। चंदर और सुधा की जाति एक नहीं है। और एक समय आता है जब वो शुक्ला जी के अहसानों के लिए अपने प्यार को बलिदान कर देता है। त्याग और बलिदान के आदर्शों पर चलने वाले के लिए ये बात बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है कि त्याग और बलिदान का उद्देश्य क्या है। गांधी ने त्याग किया अंग्रेजों का मनोबल तोड़ने के लिए। भगत सिंह ने बलिदान दिया देश में आज़ादी के जज़्बे को जगाने के लिए। वो दौर जब नेहरू और अंबेडकर हिन्दू कोड बिल की तैयारी कर रहे थे, एक त्याग जिसके अंतस में जाति-व्यवस्था के लिए रजामंदी छुपी है। उस त्याग के ऊपर एक लेप लगाया गया शुक्ला जी के अहसानों का। फिर एक और कवर चढ़ाया गया प्लेटोनिक लव का जिसमें दैहिक संबंध के बिना अपने प्रेम का चरम रूप दो प्रेमी दिखाना चाहते हैं। और इस प्लाटोनिक लव के नाम पर नायक का खुद को देवता समझ लेना उसे अंत आते-आते तक गुनाहों का देवता बना देता है। लिखावट में बहुत पैनापन है। भारती कहानी में मेटाफोर गढ़ने और मेटाफोर में कहानी गढ़ने में उस्ताद नज़र आते हैं। आपको उनकी लिखावट को between the lines भी interpret करते चलना होता है। मसलन कई जगह फूलों का ज़िक्र है कि फूल सिर्फ पौधे में लगे रहें तो सुंदर हैं और अगर किसी ने उन्हें तोड़ के बालों में लगा लिया तो वो 'उपयोग' की श्रेणी में आ गया। प्यार और सेक्स के बीच संबंध क्या है? क्या शादी के पहले सेक्स करना पाप है? यथार्थ में घट रहे प्रेम को अनदेखा कर आदर्शवादी और आज्ञाकारी बने रहना इस उपन्यास के तमाम पात्रों की चारित्रिक विवशता नज़र आती है। अंत में सुधा को फूल तोड़ कर पूजा में चढ़ाते दिखाया गया है। उपन्यास में उस समय के शहरी मध्यम वर्ग की उदासीनता भी नज़र आती है। एक ऐसा मध्यम वर्ग जो आज़ादी के बाद एक आदर्श समाज की परिकल्पना तो करता है पर उसके सामाजिक जीवन में कोई बदलाव नहीं चाहता क्योंकि वो खुद जाति-व्यवस्था में कुछ ऊंचे पायदान पर है। शुक्ला जी उसी मध्यम वर्ग के प्रतीक हैं। एक ऐसा मध्यम वर्ग जो अपने गाँव को बहुत पहले छोड़ चुका है, अपनी जड़ों से कट चुका है और अब उन्हें सीमेंट, टाइल्स और कांक्रीट के नीचे तलाश कर रहा है। जब गाँव की एक लड़की जिसका नाम बिनती है चंदर से कहती है कि गाँव में तो शादी के पहले भी सेक्स हो जाता है और वहाँ पर ये इतना बड़ा मुद्दा नहीं है जितना आप लोगों ने इसे शहर में बना दिया है। शहरी मध्यम वर्ग के लिए ये outrageous है, क्योंकि उसकी जड़ें, जो दरअसल काल्पनिक हैं, वो तो ऐसी हो ही नहीं सकतीं। 

कुल मिला के एक बहुत बढ़िया उपन्यास है। एक ऐसा उपन्यास जो ख़त्म हो जाने के बाद आपके भीतर कहीं दोबारा शुरू होता है। 

इस उपन्यास को आप Amazon से खरीद सकते हैं।

Friday, August 12, 2016

मिसेज़ फनीबोन्स



अगस्त महीने की दूसरी किताब थी - "मिसेज़ फनीबोन्स"। किताब की लेखिका हैं ट्विंकल खन्ना। ट्विंकल खन्ना, जिन्हें ज़्यादातर लोग कई रूप में जानते हैं - राजेश खन्ना और डिंपल कपाड़िया की बेटी, अक्षय कुमार की बीवी और एक फ्लॉप एक्ट्रेस। लेकिन इनके अलावा इनकी एक शख्सियत और है। ये बात अक्सर मध्यम वर्गीय लोगों में ईर्ष्या उपजाती है कि सम्पन्न वर्ग के पास अपने पसंदीदा करियर के तमाम विकल्प मौजूद हमेशा ही रहते हैं। अगर एक में असफल हो जाओ तो दूसरे में हाथ आजमाओ। ये बात किसी हद तक सही होते हुए भी प्रतिभा का पर्याय तो नहीं बन सकती। ट्विंकल खन्ना अपने एक्टिंग करियर में असफल होने के बाद इंटीरियर डिसाइनर बन गईं और उसके बाद टाइम्स ऑफ इंडिया में एक कॉलम भी लिखने लग गईं। आप भले ही राजेश खन्ना या अमिताभ बच्चन के वंशज हों पर यदि प्रतिभा नहीं है तो पब्लिक पसंद नहीं करेगी। आप भले ही बिना किसी अनुभव के अभिनेता या कॉलम्निस्ट या लेखक बन जाएँ पर आपको दर्शक या पाठक तभी पसंद करेंगे जब आपके अभिनय या आपकी लेखनी में दम होगा। इधर कई लेखक अपनी किताब सेल्फ-पब्लिश करवा रहे हैं पर जब तक पढ़ने वाले को आप बांध नहीं पाओगे, आपको पाठक मिल ही नहीं पाएंगे।

'मिसेज़ फनीबोन्स' एक दमदार किताब है। पूरी किताब में ट्विंकल खन्ना का सेंस ऑफ ह्यूमर बेहद शानदार लगा है। किताब के द्वारा वो एक ऐसी महिला के रूप में सामने आतीं हैं जिनका दिमाग बिलकुल सही जगह पर है। ट्विंकल की लिखावट पर मोनी मोहसीन की 'द डायरी ऑफ अ सोशल बटरफ्लाय' का असर स्पष्ट रूप से समझ आता है। लेकिन प्रेरणा लेने और कॉपी करने में अंतर होता है। ट्विंकल ने कई जगहों से प्रेरणा ली है लेकिन अपने मूल को उन प्रेरणाओं की सहाता से बेहतर ही बनाया है। प्रेरणा का मकसद भी दरअसल यही होता है। एक जगह तो menstruation पर उन्होनें लिखा है जिसकी भूमिका standup comedian अदिति मित्तल के इसी विषय पर बनाए गए एक जोक से ली है। वैसे भी बॉलीवुड वाले थोड़ा बहुत कॉपी कर भी लें तो पब्लिक उन्हें माफ कर देती है, और ट्विंकल ने तो फिर भी अपनी मौलिकता बरकरार रखी है।

बहुत पहले शफ़ी इनामदार और राकेश बेदी का एक कॉमेडी शो टीवी पर आया करता था - 'ये जो है ज़िंदगी' जिसमें ज़िंदगी की छोटी-छोटी घटनाओं पर observational कॉमेडी की जाती थी। जसपाल भट्टी का एक शो था 'फ्लॉप शो', वो भी observational humor पर ही आधारित था। हाल के कोमेडियन्स में राजू श्रीवास्तव और बिसवा कल्यान का बेहद शानदार observation है। ट्विंकल की शैली भी observational humor के ही इर्द-गिर्द घूमती है। जो घटनाएँ हमारे सभी के जीवन में घटती हैं उन छोटी-छोटी बातों को बहुत बढ़िया तरीके से उन्होनें लिखा है। एक जगह एक थर्मामीटर के बारे में लिखा है जो सिर्फ सेल्सियस में बुखार बताता था और तब उन्हें मिला विक्स कंपनी का एक डिजिटल थर्मामीटर जो उन्हें इतना पसंद आया कि लगा कि अब और किस किसका temperature ले लूँ? उन्होनें menstruation से ले कर मदर-इन-लॉं तक के बारे में लिखा है, वालेंटाइन डे से ले कर करवाचौथ तक के बारे में लिखा है। डोमेस्टिक हेल्प्स से ले कर पड़ोसियों के बारे में भी, pets से ले कर perverts के बारे में भी, अपने बच्चों के बारे में भी और उनके डाइपर्स के बारे में भी। ये सब ऐसी बातें हैं जो हम सभी की ज़िंदगियों में होती रहती हैं। ट्विंकल की सबसे अच्छी बात ये है कि वो खुद के ऊपर हंसने का माद्दा रखतीं हैं। अपने नाम के बारे में भी मज़ाक करतीं हैं और अपनी एक्टिंग के हुनर का खुद मज़ाक उड़ाती हैं। अपने एथीस्ट बिलीफ से लेकर अपने अरेस्ट वॉरेंट का भी मज़ाक बनातीं हैं। शुरुआत में भले किताब सोशल बटरफ्लाय से influenced लगती है लेकिन धीरे-धीरे ट्विंकल पढ़ने वाले को बांध पाने में न केवल सफल ही रहतीं हैं बल्कि ये एहसास करा पाने भी कि "अरे! ऐसा तो हमारे साथ भी होता है!!".

इन सब हंसी-मज़ाक के बीच कहीं-कहीं उन्होनें आधुनिक प्रगतिशील सोच के साथ थोड़ा-बहुत ज्ञान भी डाल दिया है जो कि किताब की चमक को और उम्दा करता है। एक घटना का ज़िक्र है जब वो जर्मनी के किसी शहर के अस्पताल जातीं हैं तो देखतीं हैं कि जो भी इलाज के लिए आया है, अकेला आया है। भारत में तो अगर कोई अस्पताल जाता है तो बहुत नहीं तो एक-आध बंदा तो साथ होता ही है। इस संदर्भ में लिखा है

Looking at these old people shuffling along by themselves, all I can say is: "We may have potholed roads but at least we have many people willing to travel with us on them".

किताब बहुत ज़बरदस्त है और पढ़ने लायक है। किताब को आप Amazon से खरीद सकते हैं

Monday, August 8, 2016

मेटामोर्फोसिस


किसी भी देश के द्वारा चुनी गई आर्थिक नीतियाँ केवल वहाँ के नागरिकों की सामाजिक और आर्थिक ज़िंदगियों पर ही असर नहीं डालतीं बल्कि उन ज़िंदगियों की पारिवारिक और नैतिक बुनियादें भी तय करतीं हैं। ग्रेगोर साम्सा नाम का एक आदमी एक दिन सुबह-सुबह नींद से जागता है और अपने आप को एक बहुत बड़े कीड़े में बदल चुका हुआ पाता है। कहानी जो शुरुआत में किसी साइन्स फिक्शन की तरह लगती है धीरे-धीरे एक पूंजीवादी देश के पारिवारिक मूल्यों पर चोट करती महागाथा में बदल जाती है। मेटामोर्फोसिस (Metamorphosis)। 1915 में फ्रांज़ काफ्का का जर्मन में लिखा एक लघु उपन्यास जो कि अपनी अनोखी लिखावट की वजह से एक कालजयी रचना बन चुका है। मेटमोर्फोसिस दरअसल एक बायलॉजिकल प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई कीड़ा या मछली अपनी शारीरिक रचना को बनाता है मसलन लार्वा से किसी कीड़े का बनना या कैटरपिलर से किसी तितली का।

अपने ही परिवार के बीच में कोई कैसे alienate हो सकता है! इस बुनियादी सवाल को केंद्र मानकर लेखक ने मुख्य किरदार को एक कीड़ा बना दिया। इस तरह लेखक ने न केवल उसे alienate ही किया बल्कि उसके alienation को अमूर्त्य (abstract) भी कर दिया। ये alienation किसी की विकलांगता की वजह से हो सकता है, लकवे की वजह से, दिमागी स्थिति की वजह से, या फिर बुढ़ापे की वजह से भी हो सकता है। ग्रेगोर एक ट्रैवल सेल्समैन है जिसकी कमाई से पूरा घर चलता है। धीरे-धीरे लोगों को उसकी कमाई की आदत लग जाती है। लोग उसे एक पारिवारिक इंसान की तरह न मानकर उसे एक ATM मशीन समझने लगते हैं। लेकिन वो खुश है। और उसकी खुशी शायद इस बात पर ज़्यादा टिकी है कि वो ज़्यादातर बाहर ही रहता है। कभी-कभार ही घर आता है तो वो इस बदलाव को कभी इतने गौर से नहीं समझ पाया। लेकिन ऐसा व्यक्ति यदि अब अपाहिज हो जाये तो क्या बाक़ी सदस्य उसकी ताउम्र देखभाल कर सकेंगे? और यदि कर भी सकेंगे तो क्या 'अपनेपन' से कर सकेंगे? ये कुछ मानवीय स्वभाव को कुरेदने वाले सवाल हैं।

जलगाँव में रहने वाले दिवाकर चौधरी के बड़े भाई की दिमागी स्थिति कुछ खराब हो गई और एक दिन उन्होनें अपने ही 8 साल के बेटे और अपनी बीवी की हत्या कर दी। बाद में कोर्ट ने उन्हें इलाज के लिए मानसिक चिकित्सालय भेज दिया। दिवाकर ने अपने भाई के साथ अपनी ज़िंदगी के अनुभव को 'स्कीत्ज़ोफ़्रेनिया' में बयान किया है जो कि मेटामोर्फोसिस की कहानी से एकदम उलट है और रिश्तों की गहराइयों का एहसास कराती है। स्कीत्ज़ोफ़्रेनिया की कहानी 1991 के आर्थिक सुधारों के पहले के एक गाँव की कहानी है जबकि मेटामोर्फोसिस प्रथम विश्वयुद्ध की तरफ बढ़ रहे यूरोप के एक पूंजीवादी देश की कहानी है। अभी हाल में अनुराग कश्यप की एक फिल्म आई थी 'Ugly' (अग्ली), जिसमें 2014 का मुंबई दिखाया गया है और एक बच्ची के किडनैप के बैकड्रॉप में जो कहानी बुनी है वो यही बताती है कि इंसान भीतर से इतना सड़ चुका हैं कि इंसानियत में अब फफूंद लग चुकी है। 'लगे रहो मुन्नाभाई' का एक दृश्य है जिसमें एक बूढ़ा पिता, जिसने ताउम्र मेहनत कर के अपने बेटे को पढ़ाया लिखाया, आज खुद उनकी ही दुनिया में फिट नहीं हो पा रहा। ठीक फ्रांज़ काफ्का के ग्रेगोर साम्सा की तरह।

इस लघु उपन्यास को आप Amazon से खरीद सकते हैं।

Sunday, July 31, 2016

कितने पाकिस्तान



पाकिस्तान क्या है? क्या सिर्फ एक देश जिसने भारत से अलग हो कर अपना वजूद तलाशने की कोशिश की? या फिर पाकिस्तान एक सोच है? एक सोच जिसमें कि एक ही देश के लोग अपने बीच एक सेकटेरियन मानसिकता को पहले उपजाते हैं, फिर उसको सींचते हैं और फिर हाथों में हंसिये और कुदाल ले कर उसी फसल को काटते हैं। एक ऐसी सभ्यता जो 5000 सालों से तमाम ज्वार भाटों के बीच अक्षुण्ण बनी रही, तो ऐसा क्या हो गया जो रातोंरात अचानक एक नए देश की ज़रूरत आन पड़ी?

क्या इतिहास सिर्फ वही होता है जो किताबों और पन्नों पर कलम से रिसती स्याही से कुरेदा गया हो? टाइपराइटर पर हिज्जों के हथौड़े जब तलक वक़्त के कागज को लहू लुहान ना कर दें, क्या इतिहास पैदा नहीं हो सकता? क्या साम्राज्यवादी नस्लों ने जिस प्रपगैंडा को लिपिबद्ध किया है सिर्फ वही इतिहास है? दरअसल सच्चा इतिहास तो एक निरपेक्ष दृष्टा होता है। ब्रिटिश ने जो हिंदुस्तान का इतिहास लिखा, औरंगजेब के समय जो शिबली नोमानी की कलम से बहा वो एक प्रपगैंडा है ठीक वैसे ही जैसे वर्णाश्रम को कर्म प्रधान बताने की तमाम कोशिशें ब्राह्मणवाद ने अपनी कलम से उकेरी हैं। सच्चा इतिहास वह है जो उन शोषितों और दलितों की आत्माओं पर टंकित है जिन्होनें उस इतिहास को जिया है। और अगर ऐसा नहीं है तो कोई बताए कि मंटो का टोबाटेक सिंह उन इतिहास की किताबों में कहाँ है? कहाँ है गंगौली के फुन्नन मिया? सच्चा इतिहास तो लोगों के मन मस्तिष्क और हृदय में घटित होता है और इसका एक ही साक्षी है - खुद समय।

कल्पना कीजिये कि यदि समय की अदालत लगे और उसमें उन सभी पक्षों को हाजिर होना पड़े जो अपनी शक्लों पर काला पोत कर इन तमाम किताबों पर चिपकी मात्राओं की ओट में छुपे हुए थे। जब औरंगजेब से दारा शिकोह का हिसाब मांगा जाये, हिन्दू राजाओं से दारा से गद्दारी करने का हिसाब मांगा जाये, अंग्रेजों से विभाजन का हिसाब मांगा जाये और अमेरिका से हिरोशिमा-नागासाकी का हिसाब मांगा जाये। कमलेश्वर की 'कितने पाकिस्तान' एक ऐसी ही अदालत का लेखा जोखा है। एक अनूठी कल्पना जिसमें मानव इतिहास के 5000 सालों को साढ़े तीन सौ पन्नों में उतारा गया है। कमलेश्वर की इस अदालत का दरवाजा खटखटाटी हैं वे लाशें जो कभी आक्रांताओं और विजेताओं की शौर्य गाथाओं के बोझ तले कुचली जाती थीं और आज के समय में वे न्यूज़ चैनलों पर दौड़ती न्यूज़ पट्टी को अपने सिरों पर ढोते हुए तेज़ी से गुज़र जाती है। कोलैटरल डैमेज के आकड़ों और पाई चार्टों में अपने प्रतिनिधित्व के लिए एक एक पिक्सल को मोहताज होकर स्पोन्सर्स का मुंह ताकती लाशें झकझोरते हुए कहती हैं कि बस अब और पाकिस्तान नहीं।

बिपन चन्द्र ने अपनी किताब History of Modern India में लिखा था कि किसी देश की आम जनता की आवश्यकताएँ अपने आप में ही सेकुलर होती हैं। सड़कें बनेंगी तो सबके लिए बनेंगी, अस्पताल बनेंगे तो सबको अच्छी स्वास्थ सेवाएँ मिलेंगी, शिक्षा, रोजगार, छत, बिजली, साफ पानी, सभी के लिए यही प्राथमिकताएँ हैं। गाँव-गाँव तक अगर बिजली पहुंचेगी तो वो हिन्दू के घर का भी बल्ब जलाएगी और मुसलमान के घर का भी। आम जनता की जरूरतें अपने आप में धर्मनिरपेक्ष होती हैं। लेकिन जब जनता को ये यकीन दिलाया जाये कि किस तरह उनकी ज़रूरतें तभी पूरी हो पाएंगी जब वे अलग हो जाएंगे। जब जनता को यकीन दिलाया जाता है कि बाबर ने हिंदुओं पर आक्रमण किया था, ना कि दिल्ली के मुसलमान शासक इब्राहिम लोदी पर। बाबर ने मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनाई और एक लाख चौहत्तर हज़ार हिंदुओं को अयोध्या में मारा गया था जबकि पंद्रहवीं सदी में अयोध्या की आबादी ही ज़्यादा से ज़्यादा चार हज़ार रही होगी। राम तो लोकप्रिय ही हुए तुलसीदास की रामचरित मानस के बाद। उस समय तो वैष्णवों के सबसे बड़े आराध्य कृष्ण कन्हैया ही थे। तुलसीदास ने रामचरित मानस लिखी बाबर के मरने के बाद। बाबर की राजधानी आगरा से मथुरा बाजू में था जो लोकप्रिय कृष्ण का स्थान था, वो बाजू वाला ज़्यादा लोकप्रिय स्थान तोड़ने के बजाए अयोध्या जा कर मंदिर क्यों तोड़ेगा? अंग्रेजों के जरिये जिस बाबरनामा को इतिहास का हिस्सा बनाया उसके वे पन्नें फटे हुए थे जिसमें उस यात्रा का ज़िक्र था जब वो फैजाबाद से आगरा गया। उन फटे हुए पन्नों के बारे में ही अफवाह उड़ाई गई कि उनमें ही बाबरी मस्जिद का जिक्र था। उसकी बेटी गुलबदन के लिखे हुमायूँनामा में उन फटे पन्नों का ज़िक्र कुछ यूं आता है कि बाबर की बीवी मेहम बेगम और बेटी गुलबदन पहली बार काबुल से आगरा आ रहीं थीं तो बाबर फैजाबाद से ही वापस आगरा उन्हें मिलने को आया गया था। वो कभी अयोध्या गया ही नहीं। बाबर की कब्र के ऊपर का शिलालेख भी अंग्रेज़ी इतिहासकारों के पढ़ने के बाद मिटा दिया गया। खुद बाबर की कब्र को आगरा से खोद कर काबुल ले जाया गया। काबुल में उसका क्या था? काबुल से तो वो हार कर एक नए वतन की तलाश करने हिंदुस्तान आया था। दरअसल ये सब हुआ 1857 की क्रांति के बाद जिसमें हिन्दू-मुसलमान साथ-साथ अंग्रेजों का विरोध कर रहे थे। इस तरह एक बेलगाम साम्राज्यवादी ताकत ने अपने मंसूबे पूरे करने के लिए पाकिस्तान तो तभी बना दिया था। वर्तमान समय में अमेरिकी इलैक्शन में भी डोनाल्ड ट्रम्प के द्वारा अमेरिका में भी एक पाकिस्तान कुछ ऐसे ही बनाया जा रहा है। खुद पाकिस्तान में भी बांग्लादेश एक और पाकिस्तान बन के उभरा। हिंदुस्तान में तो दलितों को ब्रह्मा के पैर में बने किसी गर्भाशय से पैदा हुआ बता कर एक पाकिस्तान बना दिया गया था। रसूल के बाद मौलवियों, उलेमाओं, काजियों और खलीफाओं ने इंसान और उस निराकार ब्रम्ह के बीच जगह-जगह दाढ़ियों, टोपियों, हिजाबों और बुर्कों के खेत लगा दिये जिनमें लगी अफीम की फसल ने आने वाली नस्लों में शियाओं का एक पाकिस्तान और एक सुन्नियों का पाकिस्तान बना डाला। खुद हिंदुओं ने गीता के कर्मवाद को छोड़ कर निरंकुश ब्राह्मणवादी वर्णवाद को खाद पानी देकर अपना-अपना पाकिस्तान बना लिया था।

5000 सालों में जो भी बड़ी घटनाएँ हुईं जिसने इस धरती के इतिहास जो मोड़ा वो कमलेश्वर ने बहुत रोचक ढंग से किताब में उतारा है। शुद्धतावादी इसे उपन्यास न मानकर अनुपन्यास कहते हैं, लेकिन कमलेश्वर का कहना है कि मैंने इसे उपन्यास समझ कर लिखा और लोगों ने इसे उपन्यास ही समझ कर पढ़ा।

कमलेश्वर ने नई कहानी विधा को समृद्ध बनाने में बहुत बड़ा योगदान दिया है। मैंने उन्हें कॉलेज के समय दैनिक भास्कर के संपादकीय पन्ने पर पढ़ना शुरू किया था। मुझे याद है कि अखबार में सबसे पहले यही चेक करता था कि कमलेश्वर का लेख आया है कि नहीं। उसके बाद हिन्दी सिनेमा में उनके योगदान के बारें में एक किताब 'कथाकार कमलेश्वर और हिन्दी सिनेमा' पढ़ी। उनके लिखे उपन्यास 'काली आंधी' पर गुलज़ार ने 'आंधी' और 'आगामी अतीत' पर 'मौसम' फिल्में बनाईं। उसी किताब में मैंने पहली बार 'कितने पाकिस्तान' के बारे में पढ़ा था। सन 2000 में निकला यह उपन्यास इतना बिका कि तीन महीने में ही दूसरा संस्कारण निकाला गया। इसकी पाइरेटेड फोटोकॉपियाँ भी खूब ब्लैक में बिकीं।

इतिहास पर ज़बरदस्त पकड़, भाषा में ज़बरदस्त ईंटेंसिटी और लिखावट में बेजोड़ प्रवाह। समय के इतने लंबे दौर में बार-बार आगे-पीछे आना-जाना बहुत अच्छा अनुभव है। ऐसा ही एक प्रयोग अश्विन सांघी ने रोजाबाल वंशावली में भी किया जिसमें वो कहते हैं कि प्राचीन समय की एशियाई सभ्यता हमारी समझ से कहीं ज़्यादा समृद्ध थीं। ये सिर्फ इत्तेफाक नहीं है कि यहूदियों के अब्राहम (Abraham) का A अगर आगे से हटा कर पीछे लगा दें तो ये ब्रम्हा (Brahama) हो जाता है। अमीश की Shiva Trilogy में भी ज़िक्र है कि महादेव शिव तो तिब्बत के थे और उनके पहले जो महादेव हुए थे 'रुद्र' वो पश्चिम एशिया के थे। उनके प्राचीन ग्रन्थों को देखें तो अग्नि देवता हैं 'अहुरमज़दा'। सभी अच्छी शक्तियों को कहा जाता था 'अहुर' जो कि 'असुर' से निकला शब्द है और उनके ग्रन्थों में जो बुरी शक्तियाँ हैं उन्हें कहा जाता है 'दैव'। ये ग्रंथ इतिहास का हिस्सा हैं। ये संस्कृतियाँ और सभ्यताएँ जो बनी, फली फूलीं और मिटीं या साम्राज्यवादियों ने जिन्हें मिटाया और जगह-जगह पाकिस्तान बनाने का एक जो ये सिलसिला शुरू किया अब बस। बहुत पाकिस्तान देख लिए दुनिया ने! अब और नहीं! और नहीं! और नहीं!

नोट:
इस किताब को आप Amazon से खरीद सकते हैं। किताब की कीमत है 182 रुपये।

Friday, July 15, 2016

खुशवंतनामा - मेरे जीवन के सबक


खुशवंत सिंह की एक उपन्यास 'ट्रेन टु पाकिस्तान' मैंने अपने कॉलेज के समय पढ़ी थी। वो उपन्यास आज भी मेरे पसंदीदा उपन्यासों में एक है। हाल ही में इंटरनेट सर्फ करते हुए मैं उनकी लिखी खुशवंतनामा तक पहुंच गया। यह किताब आत्मकथा नहीं है, निबंध भी नहीं हैं, न ही कोई दर्शन, लेख या चुटकुलों की किताब है। किताब ये सब कुछ न होते हुए भी कुछ कुछ सब कुछ है। ऐसा लगता कि खुशवंत सिंह ब्लॉग लिखना चाहते थे और किताब लिख बैठे। अलग-अलग विषयों पर छोटे-छोटे लेख हैं। विषय भी धर्म, गांधी, पत्रकारिता, लेखन, हास्य आदि से लेकर विस्कि और खाने-पीने तक की विविधता लिए हुए हैं।

खुशवंत सिंह कट्टर धर्मनिरपेक्ष लोगों में से एक हैं। लिबरल सोच और फ़्रीडम ऑफ स्पीच के ज़बरदस्त पैरोकार। उन्होनें जो देखा और जो महसूस किया वो बिंदास लिखा। देश में बढ़ती असहिष्णुता के बारे में भी उन्होनें लिखा। मैं भी उनकी इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ। असहिष्णुता देश में एक ज़हर की तरह फैलती जा रही है। जब अखलाक ही दादरी में हत्या हुई थी तब सत्ता पक्ष के तमाम लोग उन साहित्यकारों को निशाना बनाने में लगे थे जिन्होनें अपने पुरस्कार वापस किए थे। जबकि अवार्ड वापसी एक पुराना हथियार है अपना विरोध प्रकट करने का। नेटिव अमेरिकन्स के द्वारा फिल्मों में इंडियन्स को नीचा और गंवार दिखाने को लेकर के मर्लोन ब्रांडो ने मोशन पिक्चर कम्यूनिटी पर रेसिस्ट होने का आरोप लगाया था। और इसके लिए अपना विरोध जताते हुए उन्होनें गॉड फादर के लिए बेस्ट एक्टर का ऑस्कर अवार्ड वापस कर दिया। रबिन्द्रनाथ टैगोर ने नाइटहुड की अपनी उपाधि जलियाँवालाबाग हत्याकांड के विरोध में ब्रिटिश सरकार को वापस कर दी थी। इसी तरह खुशवंत सिंह ने भी अपना पद्म भूषण 1984 में इंदिरा गांधी द्वारा स्वर्ण मंदिर में सेना भेजने के विरोध में वापस कर दिया था। हाल ही में साहित्यकारों ने जब अवार्ड वापस किए तो इसकी गूंज न्यूयॉर्क टाइम्स तक सुनाई दी। सरकार की किरकिरी होने पर उन्होनें साहित्यकारों को ही निशाने पर लिया। इस पूरी कवायद का सबसे दुखद पहलू ये रहा कि नयनतारा सहगल, रोमिला थापर से ले कर उदय प्रकाश और यहाँ तक कि अशोक वाजपेयी जैसी महान शख़्सियतों की इंटेग्रिटी पर सवालिया निशान लगाया गया। सरकार के सुर में सुर मिलाते हुए जनता खुशी से झूमे जा रही थी। व्हाट्सएप और फेसबुक पर बुद्धिजीवियों के चरित्रहनन का फैशन चल पड़ा। जो समाज अपने बुद्धिजीवियों की नहीं सुनता और सरकारी वर्ज़न पर ज़्यादा भरोसा करता है ऐसे समाज का अंत बस निकट ही है। संस्कृत का एक श्लोक है -

लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडयन्
पिबेच्च मृगतृष्णिकासुसलिलं पिपासर्दितः ॥
कदाचिदपि पर्यटन् शशविषाणमासादयेत्
न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥

एक बार रेत से भी तेल निकल सकता है, एक प्यासे आदमी को भी एक बार मरीचिका में पानी मिल सकता है, इधर-उधर भटकते हुए किसी को शायद खरगोश के सींग भी मिल जाएँ लेकिन एक पढे-लिखे जिद्दी मूर्ख को समझाया नहीं जा सकता। जब किसी का मन पूर्वाग्रहों से ग्रसित हो तो वो लॉजिक नहीं समझ सकता। शायद इसी से सबक लेते हुए सत्ता पक्ष ने अपनी पूरी ऊर्जा साहित्यकारों, फ़िल्मकारों, चित्रकारों, इतिहासकारों और यहाँ तक कि वैज्ञानिकों तक को कांग्रेस का एजेंट बताने में लगा दी और पब्लिक के दिमाग में एक ऐसा चित्र ठूंस दिया कि जो भी सरकारी वर्ज़न से असहमत है वो गद्दार है। अब न कोई महंगाई पर बात करे न विदेश नीति पर और न ही रोहित वेमुला पर। ये दुनिया के तमाम शासक वर्गों का सबसे खूबसूरत ख्वाब है कि उनकी जनता उन्हीं के सुर में सुर मिलाये। कोई भी ऐसा सवाल न उठाए जिससे सत्ता पक्ष की नाकामयाबी उघड़े। खुशवंत सिंह ने किताब में इस बारे में आगाह किया है। जनता चुनाव तो सत्ता पक्ष का करती है लेकिन खुद उसे विपक्ष में ही बैठना चाहिए ताकि सरकार जवाबदेही से बंधी रहे। आपने अपना वोट दे दिया और आपकी पसंद की सरकार भी बन गई। एक लोकतन्त्र में आपका जो रोल मतदाता का था वो आपने अदा कर दिया। क्या हमेशा ही मतदाता बने रहेंगे? अब नागरिक के रोल में भी तो आओ। कुछ कड़े सवाल तो करो सरकार से।

आस्था पर भी खुशवंत सिंह ने बहुत अच्छा लिखा है। खुशवंत सिंह खुद को नास्तिक (अनीश्वरवादी; atheist) मानते हैं लेकिन साथ ही उन्हें धर्म दर्शन पढ़ना अच्छा लगता है। मैं भी एक अनीश्वरवादी हूँ और मुझे भी दर्शन पढ़ना अच्छा लगता है। इस मामले में मैं खुद को खुशवंत सिंह के ज़्यादा नजदीक पाता हूँ बनिस्बत भगत सिंह के। खुशवंत सिंह ने ताउम्र पगड़ी रखी। धर्म में भरोसा न करते हुए भी ऐसा करना अपनी परम्पराओं के सम्मान के अतिरिक्त और कोई वजह तो मुझे नहीं देता। जबकि दूसरी ओर भगत सिंह भी अनीश्वरवादी थी। उन्होनें अपनी पगड़ी हटा दी थी। हालांकि ऐसा उन्हें अंग्रेजों से बचने के लिए करना पड़ा लेकिन बाद में उन्होनें इसका ज़िक्र करते हुए कहा था कि उनका बस चले तो अपने पहचान से हर उस चिन्ह को हटा दें जो किसी भी तरह सिक्खी से ताल्लुक रखता है। पिछली कांग्रेस सरकार ने जो मूर्ति लगवाई है संसद परिसर में वो ये है:



जानबूझकर एक अनीश्वरवादी के सिर पर पगड़ी रखी जा रही है ताकि अपनी पार्टी के 1984 में किए गए पापों को पगड़ी से ढांपा जा सके । अभी हाल में एक 'जॉइन आरएसएस' का विज्ञापन देखा था जिसमें भगत सिंह की कांग्रेस की पहनाई पगड़ी को फोटोशॉप के जरिये भगवा कर दिया गया और उनके हाथ में एक भगवा झण्डा थमा दिया गया। नीचे एक कैपशन कुछ एस तरह चिपका दिया गोया भगत सिंह खुद कह रहे हो कि आओ और आरएसएस जॉइन करो। एक वामपंथी क्रांतिकारी का आरएसएस से क्या लेना देना? भगत सिंह के बारे में अगर और जानना है तो मलविन्दरजीत सिंह वढैच की लिखी भगत सिंह को फांसी - वॉलयूम 1 और भगत सिंह को फांसी - वॉलयूम 2 पढ़ना चाहिए।

खैर एक प्रश्न है जो हमेशा मुझे दुविधा में डालता है कि नास्तिक होने के बाद क्या मुझे अपनी परम्पराएँ छोड़ देनी चाहिए? या फिर उन्हें फॉलो करते रहना चाहिए सिर्फ इस बात के लिए कि वो हमारी 'परम्पराएँ' हैं। मेरे दादाजी मूर्तिपूजा के इस कदर विरोधी थे कि वो दिवाली की पूजा में भी शरीक नहीं होते थे। इस तरह से वो मुझे भगत सिंह के खेमे में नज़र आते हैं। जबकि मैं दिवाली की पूजा में न केवल शामिल होता हूँ बल्कि घर में झालर तागने से ले कर पटाखे चलाने तक बड़ा उत्साहित भी रहता हूँ। मैं इसे धार्मिक अनुष्ठानों से इतर एक परंपरा के रूप में ज़्यादा देखता हूँ। हमारी सभ्यता 5000 सालों से इस ज़मीन पर है और इसने न जाने कितने उतार चढ़ाव देखें। न जाने कितनी ही संस्कृतियों से प्रभावित हुई और न जाने कितनों को प्रभावित किया। एक सभ्यता ने इस सफर में, जो अभी भी जारी है, न जाने कितनी परम्पराएँ विकसित कीं। उनमें से जो हानिकारक नहीं हैं उन्हें फॉलो करने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। किताब पढ़ते हुए खुशवंत सिंह का जो एक चित्र खिंचता है उसमें वो एक उदार अनीश्वरवादी प्रतीत होते हैं। जब हम ईश्वरवादी लोगों से उम्मीद करते हैं कि वे धर्मांधता में न उलझें, कट्टरपंथ छोडकर उदारवाद की तरफ बढ़े। धर्म में रिफॉर्म्स की वकालत करते भी नहीं अघाते तो अनीश्वरवादियों को भी थोड़े उदारवाद की ज़रूरत है।

किताब के अंतिम हिस्से में उन्होनें अपने कुछ चुट्कुले भी डालें हैं और कहा है कि भारत एक हास्य प्रधान देश नहीं है। लोग अपने ऊपर नहीं हँसना जानते। हर चीज़ को बहुत गंभीर बना के रखते हैं। एक जगह उन्होनें अपने बीमारी का ज़िक्र किया है जब डॉक्टर ने उन्हें बताया कि उन्हें अंदरूनी बवासीर है। उनका कहना है कि ये ऐसा है कि लगता है कैंसर होता तो बेहतर होता। कैंसर में जो एक रूमानियत है, बवासीर में वो बिलकुल भी नहीं है।

उन्होनें बाबाओं, ज्योतिषियों और अंधविश्वास का ताउम्र विरोध किया। बाबाओं को तो उन्होनें परजीवी तक कह डाला। 1984 में भिंडरावाले के उत्थान के समय उन्होनें बहुत छापा था खालिस्तान की मांग के विरोध में। उन्हें बहुत धमकी भरे पत्र आते थे। ट्रोलिंग ट्विटर आने के बाद ईजाद हुई संस्कृति नहीं है। कनाडा से आये एक पत्र का ज़िक्र किया है जिसके ऊपर लिखा पता सिर्फ इतना था-
बास्टर्ड खुशवंत सिंह,
इंडिया।
उन्होनें भारतीय डाक सेवा का आभार माना कि उन्होनें इतने बड़े देश में एक मात्र हरामी को ढूंढ निकाला।

कुल मिला के किताब एक बार पढ़ने लायक है। खुशवंत सिंह का सीधा मंत्र है- जब तक जियो, पूरी ज़िंदादिली से जियो। किताब को आप Amazon से खरीद सकते हैं.

Wednesday, July 13, 2016

2014 दि इलेक्शन दैट चेंज्ड इंडिया



अभी हाल में राजदीप सरदेसाई की किताब '2014 दि इलेक्शन दैट चेंज्ड इंडिया' पढ़ी। एक ही शब्द है लाजवाब। 2014 में हुए इलैक्शन का इससे अच्छा ब्यौरा दे पाना मुश्किल है। किताब में 10 चैप्टर हैं और इनके अलावा एक भूमिका और एक एपिलॉग भी है। राजदीप सरदेसाई मीडिया में एक जाना पहचाना नाम हैं। 2008 में उन्हें पद्मश्री सम्मान भी मिला है।

यूं तो 2014 आम चुनावों पर एक किताब 'द मोदी इफेक्ट' मैंने पहले पढ़ी थी जो कि एक बीबीसी पत्रकार लांस प्राइस ने लिखी थी। उस किताब को पढ़ते हुए एक अधूरापन महसूस होता है। लगता है कि जैसे कुछ छूट गया है। इसकी वजह मुझे लेखक का विदेशी होना लगता है। एक विदेशी पत्रकार के तौर पर आप औपचारिक सरकारी पहलुओं को छू सकते हैं, कुछ मानवाधिकारों की बात भी कर सकते हैं लेकिन भारतीय चुनावों के कवरेज के साथ न्याय कर पाना इतना आसान नहीं हैं। जातिगत समीकरण, परिवारवाद, घोटाले, और उनकी आड़ में नित नए बनते बिगड़ते गठजोड़ तो वही समझ सकता है और वही समझा सकता है जिसने हिन्दुस्तान की मिट्टी में सालों इस उधेड़-बुन को देखा हो और इसे कवर किया हो। राजदीप-1, प्राइस-0.

राजदीप सरदेसाई को मैंने करीब 2004 में पहली बार टीवी पर देखा था जब वो एनडीटीवी के प्रबंध संपादक हुआ करते थे। उनका एक प्रोग्राम आता था जिसमें वो राजनीतिक शख़्सियतों के इंटरव्यू किया करते थे। मुझे याद है कि उस शो को मैं बड़े चाव से देखा करता था।

राजनीति के गलियारों में होती घटनाओं का एक औपचारिक पहलू होता है जिसे हम टीवी न्यूज़ में देखते हैं। लेकिन उन्हीं गलियारों में उन्हीं गतिविधियों का एक अनौपचारिक पहलू भी होता है। वो अनौपचारिक पहलू जो कैमरे के बंद होने से लेकर अगली मर्तबा कैमरा चालू होने के बीच होता है। वो अनौपचारिक पहलू जो पत्रकारों और नेताओं के बीच फोन की बातचीत में घटित होता है। और वो अनौपचारिक पहलू जो कभी-कभी कुछ स्टिंग ओपरेशन्स की वजह से जब दुनिया सामने आ जाता है तो हमें पता चलता है कि सब कुछ कितना सड़ांध भरा और बदबूदार है। जिस तरह मुंबइया फिल्म का एक 'बिहाइंड द सीन' होता है, ठीक वैसा ही कुछ राजनीति में भी होता है। और पर्दे के पीछे की इस दुनिया को अक्सर किताबों में ही जगह मिलती है। चाहे आप कुलदीप नैयर की आत्मकथा 'बियोंड द लाइंस' को देखें, या बरखा दत्त की 'दिस अनक्वाएट लैंड' को या फिर राजदीप की '2014...' को देखें। टीवी पर हम देखते हैं कि राजदीप ने 2002 का मुद्दा उठाया और मोदी जी ने उन्हें कोई जवाब नहीं दिया। उन्हें सरेआम मोदी विरोधी का मेडल भी दे दिया गया। लेकिन वही राजदीप जब मोदी से अक्सर ही रात को फोन पर बात वर्तमान राजनीति की पड़ताल करते हैं तो ये आम लोगों को नहीं पता चलता। इसी तरह लालू से एक मुलाक़ात का ज़िक्र है जो कि बाथरूम में बैठ के हुई जब लालू शेविंग कर रहे थे। एक ज़िक्र है राज ठाकरे के बारे में, जिसमें वो इंटरव्यू में राजदीप पर बहुत बुरी तरह भड़क जाते हैं और कहते हैं- 'बिहेव योरसेल्फ'। कैमरा बंद होते ही कहते हैं - 'अरे राजदीप! कैसी लगी मेरे स्टाइल? देखना अब तुम्हें कितनी टीआरपी मिलती है'। ऐसे ही पर्दे के पीछे की ढेर सी बातें इस किताब में मिलेंगी।

कई लोग राजदीप को कांग्रेस का पिछलग्गू मानते हैं, उन्हें भी ये किताब एक बार पढ़नी चाहिए। किताब में राहुल गांधी और कांग्रेस के वर्क कल्चर की जितनी तीखी आलोचना राजदीप ने की है, उतनी तो कुलदीप नैयर ने इंदिरा गांधी की भी नहीं की थी। राजदीप किताब लिखते वक़्त बहुत एम्बिशियस रहे हैं। उनकी पूरी तमन्ना है कि सालों बाद भी मीडिया और पॉलिटिकल साइन्स के विद्यार्थी इस किताब को एक बार ज़रूर से पढ़ें।

किताब शुरू होती है मोदी की राजनीतिक यात्रा से। किस तरह से मोदी एक इवैंट मैनेजर थे लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा के जो तब राजदीप के संपर्क में आए जब राजदीप वहाँ उस यात्रा को कवर करने पहुंचे थे। एक समय था जब मोदी भी मीडिया में आने के लिए घंटों इंतज़ार किया करते थे। आगे राहुल की यात्रा भी है। राजदीप ने पूरी कोशिश की है कि असल राहुल गांधी को पन्नों पर उतारा जा सके। चाय पे चर्चा से लेकर 3D रैलियों तक के तमाम पहलू बहुत रोमांचक तरीके से इस किताब में मिलेंगे। क्षेत्रीय पार्टियों की राजनीति भी किताब का एक महत्वपूर्ण पहलू है। जब मोदी लहर उठ रही थी तब ममता बैनर्जी, जयललिता, मायावती से ले कर के नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडू, जगनमोहन रेड्डी, नीतीश कुमार, लालू, मुलायम और पवार तक के गणित की विस्तार से चर्चा है।

किताब का एक सबसे महत्वपूर्ण पहलू है - समकालीन मीडिया की समीक्षा। मीडिया के आत्मावलोकन के लिए किताब बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न उठाती है। किस तरह टीआरपी के लिए मीडिया ने कदम-कदम पर जर्नलिस्टिक प्रिंसिपल्स की धज्जियां उड़ायीं और अंततः खुद भी मोदी प्रचार का चुनावी भोंपू बन के रह गया। मीडिया के बारे में जो चैप्टर है पूरी किताब की हाइलाइट लगा मुझे। आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल के बारे में भी काफी कुछ लिखा गया है। कुल मिला के विगत कुछ सालों में जो जो भी घटनाएँ हमने अपने इर्द-गिर्द होते देखीं हैं, किताब उनको रोमांचक भाषा में सिलसिलेवार पेश करती है। वर्तमान राजनीति में रुचि लेने वालों के लिए अनिवार्य।

इस किताब को आप Amazon से खरीद सकते हैं.


Tuesday, June 28, 2016

नारद की भविष्यवाणी




अभी हाल ही में जो क़िताब ख़तम की वो है मनु शर्मा की लिखी 'नारद की भविष्यवाणी'। मनु शर्मा ने कृष्ण की कहानी को आत्मकथात्मक रूप में लिखा है। ये क़िताब 'कृष्ण की आत्मकथा' सिरीज़ का पहला भाग है। लिखने का तरीका मौलिक है। कृष्ण की कहानी टीवी सीरियलों में कई बार देख चुके हैं। लेकिन एक व्यक्तित्व के रूप में उनका चित्रण, माइथोलॉजी की परतों के नीचे दबे एक व्यक्ति की कहानी खोज कर उसे आत्मकथा विधा में लिखना चुनौतीपूर्ण काम है। सबसे महत्वपूर्ण बात भाषा की। आप जब इस तरह की कोई क़िताब लिखते हैं तो भाषा में शुद्ध हिन्दी का ही प्रयोग ज़्यादा करते हैं लेकिन ज़रूरी है प्रवाह होना। शुद्ध हिन्दी भी हो तो ऐसी जो पढ़ने में चिढ़ पैदा न करे। अभी हाल ही में एक क़िताब पढ़ी थी - 'खाली नाम गुलाब का' जो कि ' Il nome della rosa (The Name of the Rose)' नाम की एक इतालवी किताब का हिन्दी अनुवाद थी। मूल कृति के लेखक थे अंबरतों इको जिनका कि अभी फरवरी में देहांत हुआ और जो अंतर्राष्ट्रीय जगत में बेहद मशहूर लेखक हैं। इस किताब में तेरहवीं-चौदहवीं सदी की कैथोलिक राजनीति का बैकड्रॉप था। हालांकि नॉवेल एक मर्डर मिस्ट्री होते हुए भी अपनी क्लिष्ट भाषा की वजह से बोझिल हो गई थी। हालांकि इसकी ज़िम्मेदारी मैं मूल लेखक के बजाए अनुवादक के सिर पर मढ़ता हूँ। अनुवाद करते समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि मूल कृति के प्रभाव और प्रवाह का भी अनुवाद हो सके। शब्दों को क्लिष्ट करते जाने से अनुवाद प्रामाणिक नहीं हो जाता। ख़ैर, नारद की भविष्यवाणी अनुवाद नहीं है लेकिन भाषा शुद्ध हिन्दी (मुझे इस शब्द से चिढ़ है) होते हुए भी प्रवाहमय है। 
कृष्ण को एक चमत्कारों से इतर मानवीय रूप में प्रस्तुत करना भी एक चुनौतीपूर्ण काम था जो कि लेखक ने बखूबी निभाया। सबसे महत्वपूर्ण लगा लेखक का रिसर्च। जब आप कृष्ण को एक व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करते हैं तब चमत्कार अपने आप ख़तम हो जाते हैं। उन चमत्कारों का गैर चमत्कारिक रूप, चाहे वो पूतना का वध हो या गोवर्धन उंगली पे उठाने की घटना हो, बेहद खूबसूरती से खींचा है। तत्कालीन राजनीति में जो एक टेंशन था एक जो तनाव था उसे भी बहुत बखूबी दिखाया गया है, अक्सर ही जो कि नहीं देखने मिलता। बहुत से पात्र ऐसे हैं जिनके योगदान को अगर हटा दिया जाये तो घटनाओं की व्याख्या के लिए चमत्कारों का ही तर्क शेष रह पाता है। लेकिन इन पात्रों ने मथुरा की राजनीति में किस तरह अपना अपना योगदान दिया, ये बहुत अच्छे से लिखा गया है। एक किरदार है छंदक जिसका बेहद ज़बरदस्त चित्रण किया है। एक जगह तो लेखक ने कृष्ण से कहलवाया भी है कि छंदक मेरा पूरक है, मैं सिक्के का एक पहलू हूँ तो छंदक दूसरा। कारागार से कृष्ण की योजना बनाने से लेकर कृष्ण को ईश्वरीय रूप स्थापित कर कंस की सत्ता को हिलाने वाला किरदार छंदक ही था। छंदक कर्म प्रधान किरदार है। कई लोग ऐसे हैं जो नारद की भविष्यवाणी के बाद हाथ पर हाथ रखे बैठे हैं कि देवकी का आठवाँ पुत्र ही अब जो करेगा वो करेगा, खुद कंस के पिता उग्रसेन भी जिन्हें कंस ने बंदी बना दिया था, लेकिन छंदक नारद पर भरोसा करते हुए भी और कृष्ण को ईश्वर मानते हुए भी कृष्ण के निमित्त सारी योजना बनाता चला गया और उनको सफल बनाने के लिए आकाश पाताल मथुरा और व्रज सब एक करता चला गया। इसके अलावा और भी किरदार है जैसे महामात्य प्रद्योत और उनकी पत्नी महादेवी जो बाद में पूतना के नाम से जानी गई। पूतना का किरदार बहुत खूबसूरती से गढ़ा गया है। पूतना के अंतर्द्वंद्व को इस तरह से उकेरा है कि पाठक खुद को पूतना की जगह खड़ा असहाय महसूस करता है। इसके अलावा कंस का सेनापति अघ, गरगाचार्य, आचार्य श्रुतिकेतु, पूर्व महामात्य प्रलंब, अंधक बाहुक, सुवासिनी, नन्द, राधा और उसके परिवार वाले तमाम किरदार हैं।
मैं खुद एक नास्तिक (atheist) होते हुए भी कृष्ण का ज़बरदस्त fan हूँ। ईश्वर की अवधारणा में यकीन न होने के बावजूद मुझे एक साहित्य के रूप में हिन्दू दर्शन पढ़ना अच्छा लगता है। एक बार प्रभुपाद की गीता पढ़ी थी लेकिन अच्छी नहीं लगी। अच्छी लिखी ही नहीं गई थी। तमाम दक़ियानूसी बातों को व्याख्या के नाम पर घुसेड़ दिया था जैसे कि औरतें स्वभाव से व्याभिचारिणी होती हैं इसलिए आदमियों का उन पर नियंत्रण ज़रूरी है। यहाँ तक कि एक जगह संस्कृत के अनार्य शब्द का हिन्दी में अनुवाद प्रभुपाद ने 'अवांछित संताने' किया था। ख़ैर प्रभुपाद कोई साहित्यकार हैं भी नहीं एक आध्यात्मिक गुरू हैं इस्कॉन के। ख़ैर इस पुस्तक नारद की आत्मकथा में एक लाइन मुझे ठीक नहीं लगी जब लेखक ने कृष्ण से कहलवाया है कि पुरुष राजनीति के लिए उपयुक्त हैं परंतु स्त्रीयों के सामर्थ्य से बाहर है क्योंकि वे स्वभाव से कोमल होती हैं. आज की राजनीति में माग्रेट थेचर, एंजेला मर्केल से लेकर सोनिया गांधी तक सफल महिला राजनीतिक हम देख सकते हैं और इस तरह की सोच को मैं एक पित्रसत्तात्मक पूर्वाग्रह मानता हूँ। लेकिन इस एक जगह को छोड़ कर किसी भी अन्य जगह ऐसी कोई बात नहीं है जो चुभे। राधा का किरदार बहुत खूबसूरती से खींचा है। 

348 पन्नों की ये किताब प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित है। किताब की कीमत 300 रुपये है। पढ़ने लायक कियाब है। किताब Amazon से खरीद सकते हैं। 

Saturday, June 4, 2016

वहम




धड़! धड़! धड़! धड़!

ज़ोर से दरवाज़ा पटकने की आवाज़ हुई. 102 डिग्री बुखार में तपता नीलेश अकेला भीतर कंबल में घुसा लेटा था. रात के कोई साढ़े बारह बज रहे होंगे. बत्ती भी गुल थी. बाहर मॉनसून की झड़ी लगी थी. तीन दिन से बादल थमने का नाम नहीं लेते थे. रूममेट भी घर गया था.

धड़! धड़! धड़! धड़!

"कौन है?"

"पंकज! पीयूष का दोस्त!"

"वो तो घर गया है."

"तुम रूममेट हो उसके?"

"हाँ"

"थोड़ी देर के लिए अंदर आने दो यार. बहुत बारिश है बाहर."

"इतनी रात में कहाँ से कौन आ गया." - बड़बड़ाता हुआ नीलेश अपने कंबल से निकला. हाथ से सिरहाने रखा मोबाइल टटोला और टॉर्च ऑन की.

"थोड़ी देर के लिए बस आ जाने दो"

"हाँ यार! रुको तो! आ रहा हूँ!

आहिस्ते-आहिस्ते कदम बढ़ाते हुए दरवाज़े के नजदीक पहुंचा.

"आओ अंदर" - कहते हुए उसने कुंडी खोल दी. दरवाज़ा खुलते ही छत पर डली तिरपाल की तड़तड़ाहट अंदर आई, उसके पीछे फुहारों को समेटे एक झोंका भी भीतर आया और फिर बस. कुछ नहीं! कहीं कोई न था. नीलेश ने टॉर्च की रोशनी में आजू-बाजू टटोला. जगह-जगह से नालियों के शोर और पाइपों के शोर और टपकते टपकों के शोर के अलावा कहीं कुछ न दिखाई दिया न सुनाई दिया.

कौन था? मैं किससे बात कर रहा था? क्या बुखार से दिमाग चल गया है? कोई प्रेत...?

धड़कनें उछालें मारने लगीं. मन हुआ कि जल्दी से दरवाज़ा बंद कर के फिर अंदर घुस जाये, पर पैर उठते ही न थे. तिरपाल की तड़तड़ाहट कानों को चीरे डाल रही थी. धीरे-धीरे दरवाज़ा उडकाया. हल्के से कुंडी खसकाई गोया खुद कोई चोर हो. तिरपाल की तड़-तड़ मद्धम हुई. तभी लगा कि कानों में किसी के सांस लेने की आवाज़ पड़ी. खुद उसकी सांस बहुत तेजी से चल रही थी लेकिन वो यक़ीनी तौर पर नहीं कह सकता था कि ये आवाज़ उसकी खुद की साँसों की ही थी. तेजी से पूरे कमरे में टॉर्च घुमाई. सारी चीजों ने एक-एक कर अपनी हाज़िरी बजाई. कहीं कोई न दिखा. आखिरी मोमबत्ती कोई आधे घंटे पहले खत्म हो चुकी थी. मोबाइल के बैटरी चेक की. सिर दो डंडियाँ बचीं थीं. टॉर्च लेकिन लगातार जला तो जल्दी खत्म हो सकती थी. लेकिन टॉर्च बंद कैसे कर दे!!

दोबारा अपने बिस्तर पर पहुंचा. कंबल ओढा और हिम्मत जुटा कर टॉर्च बुझा दी. उसे अपने पर शक होने लगा कि उसने आँखें खोल रखीं हैं या बंद की हुई हैं! घुप्प अंधेरा! तभी अचानक बाहर बिजली चमकी. धक! दरवाज़े के पास कौन खड़ा है? जल्दी से मोबाइल टटोला. अनलॉक किया. एप्प की लिस्ट में से टॉर्च सिलेक्ट किया. एक बार फिर रोशनी हुई. फिर कहीं कोई नहीं! हो न हो बुखार दिमाग तक जा पहुंचा है. लेकिन टॉर्च बंद करने की झस अब और न थी. रोशनी का रुख सीलिंग की ओर कर के अपने सिरहाने रख लिया.

धड़! धड़! धड़! धड़!

"क...कौन है?"

"मैं नितिन. पंकज आया क्या?"

क्या जवाब दूँ? कौन नितिन? कौन पंकज? उसने सोचा

"लेकिन मुझे पता चला कि वो अंदर आया है" - बाहर से आवाज़ आई

लेकिन मैंने तो कुछ बोला ही नहीं! बाहर वाला ऐसे क्यों बात कर रहा है जैसे मेरी किसी बात का जवाब दे रहा हो! क्या सच में मैंने कुछ नहीं बोला?

"अगर वो आए तो दरवाज़ा मत खोलना और अंदर आने की रजामंदी तो क़तई मत देना"

अबकी हिम्मत कर के उसने पूछा - "क्यूँ?"

"क्योंकि वो एक वहम है"

"वहम है?"

"हाँ वहम. बस इतना ध्यान रखना कि अंदर आने को मत कहना."

फिर बस मेन गेट बंद होने की आवाज़ सुनाई दी. लगता था कि शख्स अब जा चुका था. नीलेश ने मोबाइल उठाया. नेटवर्क नहीं था. मन हुआ कि गाने लगा ले कि थोड़ा मन भटके. लेकिन बैटरी! ऐसे ही लेटे-लेटे आधा घंटा बीत गया.

टीं! टीं!

मोबाइल की बैटरी ने दम तोड़ दिया. चंद मिनिटों बाद अपनी कंपनी का लोगो दिखाते हुए मोबाइल भी स्विच ऑफ हो गया. एक बार फिर से वही अंधेरा. सारी जिम्मेदारे जैसे यकायक कानों ने संभाल ली. वो लेटा-लेटा गौर से कुछ सुनने की कोशिश करने लगा. तिरपाल की आवाज़ के सिवाय कोई आवाज़ तो नहीं आती थी. फिर एक पल लगा कि कोई आहट हुई क्या! अगले पल लगा कि भ्रम था. उसके अगले पल दुविधा कि सच में भ्रम ही था कि भ्रम का भी भ्रम हो रहा था. फिर अगले पल दोबारा कोई और आहट जान पड़ती. ये सिलसिला काफी देर यूं ही चलता रहा. तभी एक ज़ोर की आवाज़ हुई कोने वाली कुर्सी के गिरने की. कुर्सी का एक पाया नहीं था इस करके उसे कोने में रख छोड़ा था ताकि कोई उस पर बैठ न जाये. कोई कुर्सी पर बैठ रहा था क्या! सारी हिम्मत बटोर के वो तेजी से कमरे के बाहर निकाल आया. कुछ देर वहीं खड़ा रहा. सांस तेज चल रही थी. इतनी तेज़ कि तिरपाल की आवाज़ भी धीमी लग रही थी उसके आगे. कहाँ जाऊँ? चलो किसी दोस्त के रूम चलता हूँ. लेकिन चप्पल! चप्पल के लिए दोबारा धीरे से दरवाज़ा धकेला. ओह! किसी ने दरवाज़ा भीतर से बंद कर लिया! बगैर एक लम्हा वहाँ रुके वो सीधे मेन गेट से बाहर दौड़ आया. चारों तरफ अंधेरा. 102-103 बुखार. ठंड. बारिश. किसी तरह रास्ते का अंदाज़ा ले ले कर अपने एक दोस्त के रूम की ओर चल पड़ा.

सुबह हो चुकी थी. बारिश भी आज चौथे दिन जाकर बंद हो गई थी. नीलेश दोस्तों के साथ दोबारा रूम पर आया. ये क्या! दरवाज़े पर ताला! एक दोस्त के हाथ में एक पन्नी थी जिसमें नीलेश के रात वाले भीगे कपड़े रखे थे. उसने न जाने क्या सोच कर भीगे पैंट की जेबें टटोलीं. चाबी जेब में थी. सब दोस्तों ने ज़ोर से ठहाका लगाया. नीलेश की समझ में ना आया कि क्या जवाब दे. ताला खोल कर सब लोग कमरे के भीतर आए. कुर्सी सीधी खड़ी थी कोने में. मोबाइल देखा. स्विच ऑफ नहीं था. नीलेश बिस्तर पर कंबल ओढ़ के दोबारा लेट गया.

तभी एक दोस्त बोला- "बुखार की वजह से वहम हो गया होगा."


"हाँ, वहम ही तो था" - नीलेश ने जवाब दिया

Thursday, March 31, 2016

गुडिया



"दवा टाइम पर लेती है कि नहीं?", बुधिया ने डपटकर पूछा.

"ले तो रही हूँ.", मुंह से रुमाल हटाते हुए भीमा बोली.

"तो फिर ये खांसी बहनचोद बंद काहे नहीं होती?", कहते हुए बुधिया दरवाज़े से बाहर बीडी फूंकने चला गया.

भीमा चुप रह गयी. क्या कहती? खांसी नहीं टीबी है! जैसे बुधिया जानता न हो! बुधिया हमेशा उसकी बीमारी को खांसी ही कहता. शायद बीमारी का नाम बदलने से तकलीफ भी थोड़ी कम हो जाती हो. बीमारी शरीर ही नहीं मन को भी तोड़ देती है. जब से तपस्या मैडम गयीं थीं तब से ज़िंदगी ही बदल गयी.

तपस्या मैडम पास वाली बिल्डिंग के चौथे माले पर रहतीं थीं. वो दिल्ली की रहने वाली थीं. भीमा उन्हें मैडम जी कहा करती. पति से उनका तलाक़ हो चुका था. अब अपनी माँ के साथ अकेली रहती थी. किसी कंपनी में काम भी करतीं थीं. सात साल की एक बेटी भी थी उनकी- प्रिया. भीमा साल भर पहले झाडू-पोछे के लिए उनके यहाँ काम पर लगी थी. जब भीमा ने झाडू-पोछे के लिए दो हज़ार मांग लिए तो उन्होंने बिना किसी चिक-चिक के दे भी दिए. भीमा और दूसरी बाइयों का एक सीधा उसूल होता था कि जो रेट हो उससे पांच सौ ज़्यादा मांगो. मैडम लोग खुद ही चिक-चिक करके पांच सौ कम करवा देतीं हैं. भीमा जब भी वहाँ जाती मैडम जी अक्सर अपनी बर्तन वाली के लिए चिल्लाती रहतीं. बर्तन वाली पुष्पा भीमा के पड़ोस वाली खोली में रहती थी. अक्सर ही काम से गोल मार लेती थी. वैसे उनकी मां उतनी बूढ़ी नहीं थीं पर उनके घुटने जवाब दे चुके थे, इसलिए घर के काम में उनका कोई सहयोग न होता. और मैडम जी को अगर दफ्तर जाने के समय खुद बर्तन करना पड़ता तो उनका पारा हाई हो जाता. एक दिन मैडम जी की तबियत ठीक नहीं थी. उन्होंने ने भीमा से बर्तन करने बोला. भीमा ने कहा - "नहीं मैडम जी. मैं सिर्फ सिर्फ झाडू-पोछा करती हूँ. खाना-बर्तन नहीं करूंगी."

"अरे पैसे ले लेना न! बेगारी नहीं कराउंगी तेरे से मैं", मैडम ने कहा था.

"मैडम. हम एस सी हैं. खाना-बर्तन नहीं करते."

पहले तो मैडम को आश्चर्य हुआ ये सुन कर कि इन बड़े-बड़े शहरों में अभी तक बाइयों के काम के बटवारे भी उनकी जात के आधार पर होते हैं. लेकिन फिर उन्होंने कहा - "देख मैं जात बिरादरी नहीं मानती. तेरे पैसे मैं पांच हज़ार कर देती हूँ और तू खाना भी बना और बर्तन भी कर." और उन्होनें पुष्पा को छुडवा दिया. तब से आज तक पुष्पा ने भीमा से बात भी नहीं की.

भीमा की साल भर की एक बेटी भी थी - मिन्जुरा. भीमा उसे भी अपने साथ ले जाती मैडम जी के घर. प्रिया को मिन्जुरा को खिलाने में बहुत मज़ा आता था. अपने सारे खिलौने ला ला कर उसके हाथ में पकडाती, उससे तोतली बोली बोल कर उसे बोलना सिखाती, उसे अपने साथ टीवी पर कार्टून दिखाती. प्रिया ने ही उसे बताया था - "आंटी.. आंटी.. पता मिन्जुरा को ये बार्बी वाली डॉल बहुत पसंद है. हमेशा इसी से खेलती है. देखना अभी इससे ले लूं तो कैसे रोएगी!". ये कह कर उसने वो डॉल मिन्जुरा से छुडा ली. मिन्जुरा के छोटे से चेहरे पर भाव बदलने शुरू हुए. पहले भवें सिकुडीं, फिर छोटे-छोटे होंठ सिकुड़कर नीचे की ओर मुड़ गए, फिर आँखें डबडबा उठीं और आखिर में होंठ खुले और रोने की एक जोर की आवाज़ गले से निकली. मैडम जी, प्रिया और भीमा तीनों मिन्जुरा की ये हरकत देखकर बहुत हँसे थे.

एक दिन मैडम जी ने दफ्तर से छुट्टी ली थी. उस दिन दोपहर में उन्होंने एक आदमी को बुलाया था. भीमा रसोई में उनके लिए चाय बना रही थी. बाहर होती चर्चाएँ उसके कानों में भी पड़ रहीं थीं. आदमी समझा रहा था कि इतने लाख जमा करवा दोगे इतने साल के लिए तो कितना ब्याज मिलेगा. अलग अलग स्कीमों के नाम. बाद में भीमा ने मैडम जी से पूछा था उसके बारे में तो उन्होंने बताया था कि वो एक बैंक से आया था और वो उन्हें फिक्स्ड डिपाजिट के बारे बता रहा था. "आज अगर मैं प्रिया के लिए कुछ पैसे बैंक में फिक्स्ड डिपाजिट करवा दूं... करीब दस-पंद्रह साल के लिए... तो जब वो करीब बीस-बाईस साल की हो जाएगी तो उसको काफी सारा पैसा मिलेगा. उससे उसकी पढाई या शादी वगैरह में काफी मदद मिल जाएगी."

"मिनिमम ट्वेंटी फाइव थाउजेंड", भीमा ने उस आदमी को कहते हुए सुना था जब वो उन्हें ट्रे में चाय सर्व करने गयी थी.

कई दिनों बाद उसने एक दिन धीरे से प्रिया से पूछा था - "प्रिया बेबी! ये ट्वेंटी फाइव थाउजेंड कितना होता है?"

"पच्चीस हज़ार", प्रिया ने कहा था.

कुछ महीनों बाद मैडम जी को अमेरिका जाने का कोई ऑफर आया. उन्होंने भीमा से पूछा - "तू चलेगी?"

"मैं क्या करूंगी वहाँ?"

"जो यहाँ करती है. माँ का, प्रिया का ध्यान रखना, खाना-बर्तन वगैरह करना और क्या. वहां तो पढाई भी सबके लिए मुफ्त होती है. तेरी बेटी भी वहीं पढ़ लेगी. साल के चार जोड़ कपडे दिलवाउंगी. रहना-खाना हमारे साथ. लेकिन बार बार आने को नहीं मिलेगा. हर महीने अपने पति को पंद्रह हज़ार तक भेज पायेगी. सोच के बताना."

घर आ कर भीमा ने बुधिया को ये बात बताई. बुधिया की एक पंचर बनाने की दुकान थी. उससे कोई इतनी कमाई तो होती नहीं थी. बुधिया तो खुश हो गया. और भीमा... वो तो बस सपने बुनने में लगी थी. बीच-बीच में बुधिया कुछ पूछता तो उसे खलल जान पड़ता. उन सपनों में तो वो अमेरिका पहुँच भी चुकी थी और वहां के एक स्कूल में उसकी बेटी पढ़ने भी लगी थी. प्रिया बेबी और मैडम जी के जैसी फर्राटेदार इंग्लिश भी बोलने लगी थी. फिर मिन्जुरा बड़ी भी हो गयी थी. और मैडम जी की तरह बड़ी अफसर भी बन गयी थी. "मिन्जुरा मैडम... मिन्जुर मैडम जी...", वो अपने आप से बोली भी थी. लेकिन सपनों की उड़ानों में हवाएं हमेशा मद्धम ही होती हैं. तूफ़ान तो असल जिंदगियों में आते हैं.

कुछ ही दिनों बाद भीमा को तेज़ खांसी उठने लगी, लगातार बुखार रहने लगा. जांच करवाई तो टीबी निकली. उधर जाने के दिन करीब आते जा रहे थे. भीमा कर्जा ले ले के इलाज करवाने में लगा था. किसी तरह बीमारी जल्दी ठीक हो जाए तो बाद में पैसे तो सब चुका ही देंगे. कर्जा धीरे-धीरे इतना बढ़ गया कि पंचर की दूकान बंद हो गयी और बुधिया मजदूरी करने में लग गया.

फिर एक दिन मैडम जी घर आयीं और उन्होंने कह दिया - "देख भीमा! मैं तो तुझे ले चलती पर तेरी हालत ही अभी जाने लायक नहीं है. मुझे वहां खुद कितना काम रहेगा, फिर माँ को देखना. अब अगर तेरी भी हालत ऐसी ही रही तो मैं कैसे मैनेज कर पाउंगी? एक काम कर तू ये कुछ पैसे रख और अपना इलाज करा. मैं किसी और को ढूंढ लेती हूँ."

भीमा कुछ न बोली. क्या कहती. हाथ जोड़े और पैसे ले लिए. मैडम जी चली गयीं. भीमा ने पैसे गिने... पूरे पच्चीस हज़ार. भीमा ने पैसे एक डब्बे में छुपा लिए.

दिन बीतते गए और वो दिन भी आया जब मैडम जी को दिल्ली जाना था. एक महीने बाद दिल्ली से ही उनको अमेरिका निकलना था. भीमा सुबह से उठ कर तैयार होने लगी. बुधिया भी सुबह से अनमना था. डपटते हुए पूछा - "कहाँ जा रही है ऐसी हालत में?"

"मैडम जी से आख़िरी बार मिल आऊँ"

"क्या करेगी मिल के? उन्होंने तो वैसे भी मना कर दिया. अब क्या वहाँ जा के आरती उतारेगी उनकी?"

भीमा ने बुधिया की बात अनसुनी कर मिन्जुरा को तैयार करने में लगी रही. फिर उसने डिब्बा खोला और पैसे अपने आँचल में छुपा लिए.

भीमा जब मैडम जी के घर पहुँची तो बाहर टैक्सी खड़ी थी. भीमा मैडम जी के आगे हाथ जोड़ के घुटने के बल बैठ गयी.

"क्या बात है भीमा? ये क्या कर रही है?"

"मैडम जी! मिन्जुरा को अपने साथ ले जाओ. इसकी ज़िंदगी बन जाएगी. यहाँ रहेगी तो मेरी ही तरह झाड़ू-पोछा करती रह जायेगी."

"ऐसे कैसे होगा भीमा? ऐसे थोड़े होता है?

"मैं आपके हाथ जोडती हूँ. मेरी बीमारी की सज़ा मेरी बेटी को ना दो. ये पैसे भी ले लो. इससे इसका खाता खुलवा देना."


****



बुधिया बीडी बुझा के अन्दर आ गया. पलंग पर भीमा फिर से नींद के आगोश में जा चुकी थी. उसके एक हाथ में एक रूमाल था और दूसरा हाथ एक प्लास्टिक की गुडिया के ऊपर जिसे वो नींद में कभी-कभी थपकी दे देती थी.