Sunday, May 1, 2022

बक्सा (कहानी)



मुझे हमेशा अफ़सोस रहेगा कि तुम मम्मी से नहीं मिल सकीं. पता है, ये कोई तीन साल पहले की बात है. हालांकि इसकी शुरुआत उससे भी पहले हो चुकी थी. मुझे याद है वो अक्सर अपनी चीज़ों को इधर-उधर रखकर भूल जाती थीं. ये ख़ासकर उनके चश्मे के साथ होता था. हम सभी के साथ इस तरह की चीज़ें होती रहती हैं, इसलिए मैंने भी कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया. और वैसे देखा जाए तो उनकी उमर भी हो रही थी. सोचा कि उमर का भी कुछ असर तो दिखेगा ही. 


एक बार वो किचन से निकलकर अपने कमरे की ओर जा रही थीं कि अचानक चलते-चलते रुक गयीं. मैं अपने कमरे में बैठा अख़बार पढ़ रहा था. मेरे कमरे से बीच वाला बारामदा दिखाई देता है. अख़बार पढ़ते-पढ़ते मैंने पन्ना पलटने के लिए अपनी नज़रें हटाईं तो मुझे वो बीच बारामदे में खड़ी नज़र आईं. घुंघराले सफ़ेद बालों के नीचे उनके चश्मे और उनसे झांकती हुईं भावशून्य आँखें. मुझे लगा कहीं उन्हें चक्कर तो नहीं आ रहे. मैं अपना अख़बार रखकर बारामदे की ओर बढ़ा. मैंने पूछा, "क्या हुआ मम्मी"? उन्होनें आवाज़ की तरफ अपना सिर घुमाया. मुझे एकटक देखती रहीं. मैंने उनके कंधे पर हाथ रखते हुए दोबारा पूछा, "क्या हुआ"? उन्होनें ठिठकर कहा, "अरे कुछ नहीं! मैं किचन से वापस लौट रही थी तो ऐसा लगा कि अपने कमरे का रास्ता भूल गयी हूँ". उस वक़्त भी मुझे ख़ास कुछ अहसास नहीं हुआ. मैंने कहा, "कोई बात नहीं! हो जाता है कभी-कभी". उसके बाद उन्होनें जो कहा उसने मुझे हिलाकर रख दिया. उन्होनें कहा, "हाँ, हो जाता है कभी-कभी. लेक़िन किस तरफ़ है मेरा कमरा? मुझे अभी भी याद नहीं आ रहा". उस दिन पहली बार मुझे लगा कि शायद कोई बड़ी बात है. 


शाम को ऑफ़िस से लौटकर मैं उन्हें डॉक्टर के पास ले गया. अगले कई दिनों तक उनकी तमाम जांचें चलती रहीं. आख़िरकार एक दिन डॉक्टर ने बताया कि उनके दिमाग़ की कोशिकाएं ख़तम हो रही हैं. उन्होनें समझाया, "हमारे दिमाग़ को चलाने की ज़िम्मेदारी जिन कोशिकाओं की होती है उन्हें न्यूरॉन कहते हैं. दिमाग़ में न्यूरॉन्स का एक बहुत पेचीदा जाल होता है. दिमाग़ जब काम करता है तो ये न्यूरॉन्स एक दूसरे को इलेक्ट्रिकल सिग्नल भेजती हैं. जिस तरह बिजली के तारों के ऊपर रबर की एक इंसुलेटर कोटिंग होती है, उसी तरह न्यूरॉन को सिग्नल भेजने वाली कोशिकाओं पर भी एक कोटिंग होती है जिन्हे मायलिन कहते हैं. आपकी मम्मी के दिमाग़ में न्यूरॉन और मायलिन दोनों घट रही हैं. इसका सीधा असर उनकी याद्दाश्त पर तो पड़ेगा ही, लेक़िन इसका असर उनके चलने-फिरने की या छोटे-छोटे काम करने की क़ाबिलियत पर भी पड़ेगा. जहां की कोशिकाएं मर चुकी हैं, वे यादें पूरी तरह ख़त्म हो जाएँगी, लेक़िन जहां की कमज़ोर हैं, वो बातें इन्हें थोड़ी-थोड़ी याद रहेंगी. धीरे-धीरे इनका स्वभाव हो सकता है चिड़चिड़ा या अनप्रेडिक्टिबल हो जाए, या रेंडमली कोई पुरानी बात याद आ जाए और वो रोने लगें, या कोई और अनप्रेडिक्टिबल व्यवहार करें. बेहतर होगा कि आप इनके लिए एक नर्स का बंदोबस्त कर लें ताक़ि आपके दफ़्तर जाने के बाद भी कोई देखभाल के लिए इनके पास रहे". 


मैंने पास के एक नर्सिंग होम में बात करके एक नर्स का इंतेज़ाम कर लिया. नर्स रोज़ सुबह मेरे ऑफ़िस जाने के पहले आ जाती और शाम को मेरे लौटने के बाद ही वापस जाती. एक दिन मैं अपने कलीग के साथ ऑफ़िस में लंच कर रहा था. मेरे मोबाइल पर नर्स का कॉल आया. उसने कहा, "हैलो सर! आंटी बहुत हाइपर हो रही हैं. किसी बक्से के बारे में पूछ रही हैं. सारे कमरों में इधर-उधर जा रही हैं बार-बार. कह रही हैं कि बक्सा चोरी हो गया. मेरा सामान रखा था उसमें. अभी मैंने समझा-बुझा कर बैठाया है कि आपके बेटे को पता है बक्से के बारे में. मैं उन्हें फ़ोन दे रही हूँ. आप कुछ समझा देना. शाम तक तो शायद भूल जाएंगी". फिर उसने मम्मी को फ़ोन देते हुए कहा, "आंटी, कैलाश का फ़ोन है. आपसे बात करना है". अगली आवाज़ मम्मी की थी, "कैलाश! वो बक्सा रखा था ना भगवान् वाले कमरे के बाहर! वो कहाँ चला गया? सब जगह देखा, कहीं नहीं है". मैंने उन्हें याद दिलाने की क़ोशिश की, "मम्मी! अपन ने वो बक्सा बेच दिया था दस साल पहले". मम्मी ने कहा, "नहीं! मैंने नहीं बेचा बक्सा! मेरा सामान था उसमें". मैंने कहा, "कुछ सामान मेरी अलमारी में है, कुछ दीवान में है. मैं शाम को लौटकर देख दूंगा. अभी आप आराम करो".


शाम को लौटते वक़्त डॉक्टर से मशविरा करने गया तो उन्होंने कहा, "इस तरह के अल्ज़ाइमर में कभी-कभी अग्रेशन या गुस्से के लक्षण होते हैं. नींद की कमी, गैस या कभी-कभी तो मामूली भूख-प्यास जैसे डिस्कम्फर्ट की वजह से भी ऐसा हो सकता है. घर का एकाएक अजनबी-सा लगने लगना, या हो सकता है अकेलापन ही लग रहा हो! ऐसे वक़्त दिमाग़ स्ट्रेस रिलीज़ करने के लिए सहज ही अतीत में कम्फर्ट ढूंढने लगता है और ना मिलने पर कभी-कभी अग्रेशन दिखाई देता है. ध्यान रखें कि उनकी बातों को ख़ारिज न करें. अगर उन्हें लगेगा कि उन्हें कोई सीरियसली नहीं ले रहा तो वो और ज़िद्दी होने लगेंगी. ध्यान भटकाने की कोशिश करें. फैक्ट्स के बजाय उनकी फ़ीलिंग्स पर फ़ोकस करें.".


डॉक्टर से मिलकर सीधा घर की और रवाना हो गया. रास्ते भर एक ही बात मेरे दिमाग़ में चलती रही, "फैक्ट्स के बजाय फ़ीलिंग्स पर फ़ोकस करें". गाड़ी खड़ी करके, बग़ैर जूते-मोज़े उतारे सीधा मम्मी को देखने उनके कमरे में पहुँच गया. बाहर सूरज अस्त हो रहा था. भीतर खिड़की के परदे गिरे हुए थे. कमरे की लाइट बंद थी, केवल कोने में रखा एक लैम्प अपनी हल्की पीली रोशनी बिखेर रहा था. मम्मी अपने बिस्तर पर सो रही थीं. उन्होंने पीले रंग की एक चादर गले तक ओढ़ राखी थी. छत पर दो की धीमी रफ़्तार में पंखा घूम रहा था. पलंग के बाजू में एक कुर्सी पर नर्स बैठी अपना मोबाइल चला रही थी. मैं मम्मी के बाजू में जाकर बैठ गया. मुझे देखकर नर्स ने अपना मोबाइल लॉक कर लिया और मेरी ओर मुख़ातिब हुई, "आपके फ़ोन के बाद भी बहुत ग़ुस्सा हुईं. मैंने समझा बुझा कर किसी तरह रिलेक्सेंट दिया. उसके बाद थोड़ी देर में सो गईं". मेरी नज़र उनके सिरहाने पड़ी. एक फ़ोटो-फ्रेम रखा हुआ था. फ्रेम के भीतर मेरे बचपन की फोटो थी. नर्स ने कहा, "अपना सामान ढूंढने आपके कमरे गई थीं. वहां से उठा ले आई थीं. जब सो गईं तो मैंने उन्हीं के सिरहाने रख दी". मैंने नर्स को थैंक्स कहा और अपने कमरे में आ गया. 


उस रात मैं बहुत देर तक अपने बिस्तर पर करवटें बदलता रहा. उस बक्से के बारे में सुनकर बहुत-से पुराने बिम्ब आँखों के सामने तैरने लगे. वो एक लोहे का बड़ा और गहरा बक्सा था. उसे मेरे दादाजी ने अपने रिटायरमेंट के समय बनवाया था. उसके नीचे लोहे के दो मज़बूत गुटखे लगे थे जिससे वो ज़मीन से कुछ इंच ऊपर रहता था. सामने दो कुंदे थे जिन्हें बंद करके ताला लगाया जा सकता था. दोनों बाजू दो पतले-पतले हैंडल थे, उसे उठाकर शिफ़्ट करने के लिए. पूरे बक्से में वो दो हैंडल ही थे जिन्हें काले रंग से पेंट किया गया था, बाक़ी पूरा बक्से का रंग लोहिया ही था. उसके पल्ले में भीतर की ओर लोहे की दो पतली ज़ंजीरें लगी थीं ताक़ि खोलने पर पल्ला पीछे की ओर न चला जाए. पल्ले में ही भीतर एक लोहे का जेबनुमा खाना भी बना हुआ था जिसमें सालों तक मम्मी-पापा की शादी का कार्ड रखा रहता था, लाल रंग का. क़रीब तेरह साल पहले वो बक्सा मम्मी ने हमारी हेल्पर को बेच दिया था. उसका पति एक ठेला लेकर आया और चालीस साल तक हमारे घर में रहने के बाद वो बक्सा एक मामूली से लकड़ी के ठेले पर चला गया. 


कुछ दिनों बाद एक रोज़ सुबह-सुबह मैं अपने कमरे में ऑफ़िस के लिए तैयार हो रहा था. नर्स ने मेरे दरवाज़े पर दस्तक देते हुए कहा, "आपको आंटी बुला रही हैं". मैं तैयार होकर मम्मी के कमरे में पहुंचा. नर्स कोने में रखी टेबल पर दवाइयों के डिब्बे टटोल रही थी. मम्मी सिरहाने एक खड़ा तकिया लगा कर अपने पलंग पर बैठी हुई थीं. उन्होंने कमर तक चादर ओढ़ रखी थी. उनके एक हाथ में वही फ़ोटो फ़्रेम था जो वो कुछ दिन पहले मेरे कमरे से उठा लाई थीं. मैं पलंग के बाजू में रखी कुर्सी पर बैठ गया. उनकी नज़रें तस्वीर पर ही जमी रहीं. मैंने कहा, "मम्मी! आपने बुलाया था"? उन्होनें बग़ैर मेरी ओर देखे बहुत धीमी आवाज़ में कहा, "तुम्हें नहीं, कैलाश को बुलाया था". मैंने अपने हाथ को आहिस्ता उनके दूसरे हाथ के ऊपर रख दिया और धीमी आवाज़ में कहा, "मैं कैलाश हूँ मम्मी". मम्मी ने नज़रें मेरी ओर उठाईं. उन्होंने चश्मे नहीं पहने थे. उन आखों को मैंने बचपन से देखा था, कत्थई रंग की बड़ी-बड़ी आँखें और उन बड़ी-बड़ी आँखों के ऊपर बड़ी-बड़ी पलकें. उनके इर्द-गिर्द अब झुर्रियां घिरने लगी थीं. ऐसा लगता था थकावट की वजह से उन्हें अपनी पलकें खोलने में भी कोशिश लगती थी और इसलिए वो उन्हें आधा ही खोलती थीं. उन्होंने अपनी नज़रें दोबारा हाथ में रखी तस्वीर की तरफ घुमा लीं. खिड़की का पर्दा खुला था. धूप की एक पतली लक़ीर उनके हाथ में रखी तस्वीर के ऊपर पड़ रही थी. वो तस्वीर को एकटक देखती रहीं. उन्होंने दोबारा मेरी ओर देखा. हालांकि डॉक्टर ने मुझे बताया था कि उनकी याद्दाश्त पर असर होगा लेक़िन कभी सोचा नहीं था कि मुझे ही न पहचानेंगी. उनकी आँखें मेरी आँखों के भीतर तस्वीर वाले कैलाश को ढूंढ रही थीं. उस बच्चे को जो एक छोटे से घर में किचन के सामने रखे बक्से पर बैठकर खाना खाता है जब उसकी मम्मी मिट्टी के तेल वाले एक स्टोव पर खाना बनाती है. जब वो कालिख़ खुरचने के लिए पिन उठाती है तो बच्चा कूदकर आता है कि मम्मी मैं करूँगा. वो पिन बच्चे को दे देती है, बच्चा उसे स्टोव में घुसेड़ता है और स्टोव अपनी धूधू की आवाज़ को तेज़ कर देता है. मेरे मन में ख़याल आया कि अगर मुझे नहीं पहचाना तो मैं उस तस्वीर वाले कैलाश को कहाँ से लाऊंगा? अगर मेरे मम्मी कहकर आवाज़ देने पर उन्होंने मेरी ओर देखना बंद कर दिया तो कैसे उन्हें यक़ीन दिलाऊंगा? लग रहा था हम दोनों एक-दूसरे को एक-दूसरे की आँखों में तलाश कर रहे थे. मुझे उनकी आँखों के कोने से एक बूँद उभरती दिखी. उन्होंने मेरा हाथ कसकर पकड़ लिया और कहा, "कैलाश! ऑफ़िस से आ गया बेटा"? मैंने उनके हाथों को उठाया और चूमते हुए कहा, "नहीं मम्मी! अभी ऑफ़िस जा रहा हूँ. सुबह के नौ बज रहे हैं". उन्होंने खिड़की से बाहर देखा और फिर सिर झुका लिया. दो बूँदें उनकी आँखों से निकलकर धूप के चकत्ते में ढुलक गईं. मैं कुर्सी से उठकर बिस्तर के किनारे बैठ गया और उन्हें गले लगा लिया. वो थोड़ी देर शांत चिपकी बैठी रहीं फिर अचानक फ़फ़ककर रोने लगीं. मैं उनकी पीठ पर हाथ फेरकर उन्हें चुप कराने लगा. हम दोनों बहुत देर तक ऐसे ही बैठे रहे.


एक रोज़ मैं किचन में ऑमलेट बना रहा था. वो एक इतवार की सुबह थी. मम्मी ने मुझे आवाज़ लगाई. मैं उनके कमरे में पहुंचा. उन्होंने दोबारा वही सवाल किया, "वो बक्सा कहाँ है जो भगवान् वाले कमरे के बाहर रखा था"? मुझे डॉक्टर की बात याद आई, "फ़ैक्ट्स पर नहीं फ़ीलिंग्स पर फ़ोकस करें". मैंने जवाब दिया, "मेरा एक दोस्त ले गया था, उसको शिफ्टिंग करने के लिए चाहिए था. कल-परसों तक वापस कर देगा". उन्होंने कहा, "उसमें मेरा सामान था. कहाँ है"? मैंने कहा, "सामान तो सारा यहीं रखा है. कुछ मेरी अलमारी में है, कुछ दीवान में. आप अलमारी देख लो पहले अगर मिल जाए नहीं तो मैं दीवान खोल दूंगा". मम्मी अगले आधे घंटे मेरी अलमारी टटोलती रहीं. फिर बोलीं, "नहीं मिल रहा. दीवान खोल दे". मैंने पूछा, "क्या सामान है"? उन्होंने कहा, "अरे, है मेरा कुछ सामान. तू बस दीवान खोल दे". मैंने दीवान खोल दिया. अगले एक घंटे तक दीवान टटोलती रहीं. मैं अपने कमरे में नाश्ता करने चला गया. लौटकर देखा तो दीवान खुला पड़ा था और मम्मी अपने पलंग पर लेटी थीं.


मैं नहीं चाहता था कि एक बक्से को लेकर में उनको बार-बार स्ट्रेस हो. दस साल पहले जो हेल्पर हमारे यहां काम करती थी वो अब पता नहीं कहाँ होगी. मैंने लोहार से वैसा ही एक दूसरा बक्सा बनवाने की सोची. दो दिन बाद नया बक्सा भगवान् वाले कमरे के बाहर रख दिया. पुराने समय की तरह ही उसमें कुछ गद्दे-रज़ाई और पुराने फ़ोटो एल्बम वग़ैरह डाल दिए.


एक दिन मुझे दोबारा ऑफ़िस में नर्स का फ़ोन आया, "आंटी को फिर आज पैनिक अटैक आया था. बक्से का सारा सामान उथल-पुथल कर दिया. कह रही थीं उनका कुछ सामान रखा था बक्से में. नहीं मिल रहा. मैंने पूछा भी कि क्या था सामान तो कुछ नहीं बताया. फ़िलहाल रिलैक्सेंट ले कर सो रही हैं". मैंने नर्स को कहा कि मम्मी का ध्यान रखे और फ़ोन काट दिया. फ़ोन कटने के बाद मैं सोचने लगा कि मम्मी क्या ढूंढ रही हो सकती हैं. हां, उनकी शादी का कार्ड तो रखा हुआ था उसमें. शायद वही ढूंढ रही होंगी. मुझे कार्ड का डिज़ाइन मोटा-मोटी याद था. मैंने ऑफ़िस में ही अपने लैपटॉप पर शादी का कार्ड बनाया. एक मोटे वाले काग़ज़ पर प्रिंटआउट लिया और उसको कार्ड के आकार में काट लिया. शाम को मैंने उसे बक्से के भीतर रख दिया और सोचा कि मम्मी को शायद और परेशानी ना हो. 


शुरुआत में हर घटना हमारे भीतर कुछ नई भावनाएं उकेरती है. लेक़िन फिर उन घटनाओं का बार-बार होते चला जाना, हर बार उन भावनाओं पर मशीनीपन की एक परत चढ़ा देता है. अंत में हम किसी मशीन ही की तरह उनपर अपनी प्रतिक्रियाएं देते चले जाते हैं. कुछ ही समय बाद मम्मी मुझे अक़्सर ही भूल जाया करतीं. मैं अक़्सर ही दूसरा हो जाता जबकि वो पहले को खोजती रहतीं. इसी तरह बक्से के भीतर भी हर कभी कुछ खोजने बैठ जातीं. मेरा अंदाज़ा ग़लत था. वो अपनी शादी का कार्ड नहीं ढूंढ रही थीं. वो क्या खोजती थीं कभी नहीं बताया उन्होंने.


उन्हें गुज़रे आज दो साल हो गए हैं. उनके जाने के बाद भी उनका शादी का कार्ड उसी बक्से में बंद है. एक दिन मैंने अपना फोटो फ्रेम भी उसी बक्से में डाल दिया. अगर मुझे पता होता कि वो बक्से में क्या ढूंढती थीं तो मैं वो भी बक्से में डाल देता.


मुझे हमेशा अफ़सोस रहेगा कि तुम उनसे मिल नहीं सकीं.

Saturday, April 2, 2022

हामिद


रमज़ान के पूरे तीस रोज़ों के बाद ईद आई है. महीने का आख़िरी दिन है. आबिद अपने कम्प्यूटर इंस्टिट्यूट के भीतर बैठा है. सामने मेज़ पर एक प्रोजेक्टर रखा है. ऊपर एक पंखा बेहिसी से मंडरा रहा है. सामने काले शेड वाला एक पारदर्शी दरवाज़ा है जिससे बाहर गुज़रती दुनियादारी दिख रही है. दरवाज़े के कोने में एक एग्जॉस्ट फैन भीतर की आंच को कम करने की नाक़ाम कोशिश कर रहा है. दायीं ओर एक शेल्फ़ है जिसके एक खाने में FM रेडियो रखा है. उसकी ही आवाज़ है जिसने आबिद को अपने अकेलेपन में ढहने से रोक रखा है. आबिद नज़रें उठा कर पंखे को देखता है. पंखे के झल्लों पर धूल की गहरी परत चढ़ गयी है. रेडियो से एक सर्द आवाज़ उठती है - "मेरा नाम... नीलेश मिस्रा है... और आप सुन रहे हैं... याद शहर...". आबिद कुर्सी से उठ कर रेडियो बंद कर देता है और प्लग निकाल कर उसे मेज़ पर रखे एक बैग में डाल देता है. कमरा एक ख़ामोशी ओढ़ लेता है. आबिद वापस अपनी कुर्सी पर आकर बैठ जाता है. एक ठंडी निगाह प्रोजेक्टर पर डालता है. अपने हाथ की आड़ से अपने चेहरे को ढंक कर मेज़ पर गिरा देता है. तीन साल पहले बैंगलोर में अपनी नौकरी छोड़कर वो अपने सपने को जीने आया था. अपना ख़ुद का इंस्टिट्यूट. आज इंस्टिट्यूट का आख़िरी दिन है. तीन साल के उतार-चढ़ाव और फिर उतार के बाद आज उसमें ताला पड़ने वाला है. आबिद अपना आख़िरी बचा-कुचा सामान लेने आया था. यादों के शहर 'याद-शहर' की तरह रूमानी नहीं होते.

आज उसे इंस्टिट्यूट का बक़ाया किराया चुकता करना है. कल तत्काल में बैंगलोर की टिकट करवाना है. कुछ पैसे सदफ़ के हाथों में भी छोड़ने पड़ेंगे. बैंगलोर में PG में ठहरने के लिए भी कुछ पैसे चाहिए होंगे. वो मोबाइल में अपना बैंक अकाउंट टटोलता है. कैलकुलेटर पर कुछ हिसाब बुदबुदाता है. जब हमारे पास पैसे नहीं होते तो हम बार-बार एक ही हिसाब को अलग-अलग क्रम में दोहराते रहते हैं. आबिद मोबाइल को जेब में डालकर बाहर आता है; शटर गिराता है; ताला लगाता है; बैग पीछे टांगता है; और बाइक घुमा कर घर की ओर चल देता है. रीयर व्यू में उसे अपना इंस्टिट्यूट दूर छूटता नज़र आता है. वो पढ़ता है - "Objects in the mirror are closer than they appear". पीछे गुज़रती दुनिया उतनी दूर नहीं होती जितनी दिखाई पड़ती है. 

*****

गली के मुहाने से ही उसे घर के सामने एक काली स्कॉर्पियो नज़र आती है. मोहसिन आया है ईद मिलने. उसके कन्धों में एक थकावट उभरती है, एक भारीपन महसूस होता है. वो झुकने लगते हैं. मोहसिन आबिद का छोटा भाई था. एक वक़्त था जब सबको लगता था कि आबिद एक दिन कुछ बड़ा करेगा. वहीं मोहसिन के बारे में सब समझते थे कि बड़ा होकर अपनी दाल-रोटी ही चला ले वही बहुत होगा. कितनी ही रातें आबिद ने मोहसिन को पढ़ाते गुज़ारी थीं. घर के पीछे के कम्पाउंड में शाम ढले दोनों पतंगे पकड़ते थे और उनके पैरों में धागे बाँध कर हेलीकॉप्टर उड़ाते थे. घर के आंगन में वन-टिप-वन-हैण्ड खेलते थे. कूलर की हवा खिड़की की ओर करके अपने कमरे में सिगरेट पीते थे. रमज़ान की रातों में चुपके-से साइकिल पर शाहजहांनाबाद भाग जाते थे. रबड़ी-जलेबी और शर्बतों के स्टॉल, पान-सिगरेट के खोमचे, क़व्वालियों के मंच और उस चहल-पहल में इधर-उधर घूमते-भटकते आबिद-मोहसिन. दोनों के बीच दो ही साल का फ़ासला था. मोहसिन के लिए आज भी उतना ही था. आबिद के लिए दिनों-दिन बढ़ता जाता था. असफलताएं जब आती हैं तो तमाम कुंठाओं को चारों ओर से ढकेलती आती हैं. आज मोहसिन कितने ही रुपये ज़कात को नज़र कर देता है. क़ुर्बानी भी साल-दर-साल मोटी-से-मोटी होती जाती थी. वहीं दूसरी ओर काली स्कॉर्पियो देख कर आबिद को पहला ख़्याल यही आया कि महमूद को ईदी भी देनी पड़ेगी. महमूद मोहसिन का बेटा था. हामिद से कोई तीन महीने छोटा. हामिद आबिद का बेटा था.

आबिद स्कॉर्पियो के पीछे अपनी बाइक खड़ी करता है. हामिद और महमूद के रोने चिल्लाने की आवाज़ें आ रही हैं. मोहसिन, शमा और सदफ़ उन्हें शांत करा रही हैं.

मोहसिन - "महमूद! हामिद भाई आपसे बड़े हैं ना! शेयर कर के खेलते हैं. अच्छा चलो दोनों बारी-बारी उड़ाओ"

सदफ़ - "हामिद झगड़ा नहीं करना है! नहीं तो अभी बंद कर दूंगी कमरे में! सारी ईद निकल जाएगी!"

शमा - "महमूद! रिमोट हामिद भाई को दो!"

आबिद कमरे में दाख़िल होता है. शमा ने महमूद को पकड़ रखा है और सदफ़ ने हामिद को. ज़मीन पर एक ड्रोन खिलौना पड़ा है. मेज़ पर एक iPad रखा है जिसमें ड्रोन की तस्वीरें स्ट्रीम हो रही हैं. महमूद के हाथ में एक रिमोट है. मोहसिन आबिद को देखकर बाहें खोलता हुआ आगे बढ़ता है. उसने एक काली शर्ट पहन रखी है जिसके बटन उसके बढ़ते पेट से टूटते-टूटते लगते हैं. हमेशा की तरह घनी मूछें और हल्की दाढ़ी. हमेशा एयर कंडीशंड माहौल में रहने से चेहरे पर भी एक चमक आ गयी है. उसने बालों में बरगंडी कलर लगवाया है. मूंछ को भी डाय किया है. परफ़्यूम की भीनी-भीनी ख़ुशबू. आबिद कभी परफ़्यूम या डीयो नहीं लगता था. उसे अपने शरीर से पसीने की महक उठती लगती है. 

मोहसिन - "ईद मुबारक़ भाई! ईद मुबारक़!"

आबिद - "मुबारक़! मुबारक़!"

शमा भी मोहसिन के पीछे पीछे आती है - "ईद मुबारक़ भाईजान!"

"बहुत बहुत मुबारक़! और! सब ख़ैरियत!"

"दुआ है!"

तभी महमूद आबिद के पास आता है और उसके पैरों से लिपट जाता है - "ईद मुबालक चाचू!"

आबिद - "भोत भोत मुबालक बेटा जी!"

महमूद - "ईदी! ईदी!"

आबिद - "अच्छा! अच्छा!"

आबिद एक नज़र सदफ़ की ओर उठाता है. दोनों की नज़रें मिलती हैं. आबिद नज़रें हटाकर जेब से पर्स निकालता है. एक 500 का नोट निकाल कर महमूद की हथेली पर रखता है और अपना गाल आगे बढ़ाता हुआ कहता है - "औल अब हमाली ईदी!"  महमूद उसके गाल पर एक पप्पी देकर भागने लगता है. आबिद उसे पकड़ने की झूठमूठ कोशिश करता है - "अरे! अरे! भागता कहाँ है बदमाश छोकरे!" महमूद भाग जाता है. दोनों भाई सोफ़े पर बैठ जाते हैं.

मोहसिन - "इंस्टिट्यूट से आ रहे हैं?"

आबिद - "हाँ यार आज आख़िरी दिन था. कुछ सामान पड़ा था वहाँ तो ईदगाह से सीधा वहीं निकल लिया."

"बैंगलोर जा रहे हैं?"

"हाँ यार! यहां तो तुम देख ही रहे हो!"

"कब निकल रहे हैं?"

"बस यार! अब निकलते ही हैं. कल ही तत्काल में ट्राई करने की सोच रहा हूँ."

"मैं नूरे को भेज दूँ? वो काउंटर से निकलवा लाएगा! ऑनलाइन का ऐसे भी कोई भरोसा नहीं!"

"अरे कोई ना! आजकल तो आराम से हो जाता है! उन लोगों ने अपनी वेबसाइट भी नई बनवा ली है. हो जाएगा."

तभी पीछे से महमूद और हामिद के झगड़े की आवाज़ें आती हैं - "मेला है!"; "मुझे चाहिए!"; "मेला है!"; "मुझे चाहिए!". हामिद महमूद के हाथ से खिलौना छुड़ाने की कोशिश कर रहा है. महमूद खिलौने वाला हाथ पीठ के पीछे किये हामिद से उसे बचाने की कोशिश कर रहा है. हामिद महमूद की पीठ की ओर जाने की कोशिश करता है. महमूद तेज़ी से मुड़ता है और खिलौना हामिद के सिर पर दे मारता है. हामिद ज़ोर से रोने लगता है. शमा और सदफ़ दोनों को अलग करने दौड़ती हैं.

शमा - "महमूद! क्या बदतमीज़ी है ये! आज घर चलो तुम! बताती हूँ तुमको! सारी ईद न निकाली तो कहना!"

सदफ़ - "अरे जाने दो शमा! बच्चे हैं!"

शमा - "बच्चे-बच्चे कर-कर के ही तो ये गुर निकल आए हैं! आज बताती हूँ तुमको!"

महमूद ज़ोर से चिल्लाता है - "मेला है!"

शमा एक चांटा जड़ देती है उसके गाल पर. ड्रोन ज़मीन पर गिर जाता है. 

"बहुत मेरा मेरा सूझ रहा है तुमको! हज़ार बार समझाया मिलके खेलो! समझ नहीं आती!"

उधर हामिद रो-रो कर दोहरा हुआ जा रहा है. आबिद आगे बढ़ कर सदफ़ की गोद से उसे ले लेता है - "आलेलेलेलेले! क्या हुआ मेले बच्चे को!"

हामिद रोते हुए जवाब देता है - "मुझे चाहिए". उसकी उंगली ज़मीन पर पड़े ड्रोन की ओर निशाना बनाती है. आबिद उसके पीठ पर हाथ फेरता है - "अच्छा ठीक है! पापा शाम को ले के आएंगे. अब चुप हो जाओ चलो!" सदफ़ आबिद को देखती है. इतने में मोहसिन भी महमूद को समझाने लगता है - "महमूद! आप ये वाला हामिद भाई को दे दो! अपन घर जाते वक़्त नया वाला ले लेंगे आपके लिए! हैं! नया वाला!"

महमूद - "नहीं! ये मेला है!"

आबिद - "अरे बच्चे हैं! इतनी आसानी से थोड़े ही छोड़ेंगे. हाहा!"

मोहसिन - "अरे! इनके पास ढेर खिलौने हैं लेकिन जी ही नहीं अघाता!"

आबिद - "अरे उमर है खेलने की! फिर का बुढ्ढे होके खेलेंगे! इसे तो मैं ला दूंगा शाम को! क्यूँ! ठीक है ना बेटा जी!"

*****
मोहसिन, शमा और महमूद जा चुके हैं. हामिद आज बहुत रोया ख़ासकर तब जब महमूद अपना खिलौना लेकर अपनी गाड़ी में बैठ गया. आबिद हामिद को गोद में लिए कमरे में इधर-उधर टहल रहा है. उसकी पीठ पर थपकियाँ देकर उसे सुलाने की कोशिश कर रहा है - "आओ तुम्हें चाँद पे ले जाएँ... प्यार भरे सपने सजाएं... छोटा-सा बंगला बनाएं... एक नई दुनिया सजाएं... होओओओ...". धीरे-धीरे हामिद की पलकें भारी होने लगती हैं और आहिस्ते-आहिस्ते वो नींद की दुनिया में खो जाता है. आबिद उसे बहुत सावधानी से कंधे से उतार कर बिस्तर पर लिटा देता है और एक चादर ओढ़ा देता है. सदफ़ बिस्तर के बाजू में रखी कुर्सी पर बैठ जाती है. हामिद के सोते ही कमरे में एक ख़ामोशी तैरने लगती है. सदफ़ आबिद की ओर 500 का नोट बढ़ाती है - "मोहसिन ने आबिद को दिए थे". आबिद नोट को अपने हाथ में ले लेता है. सदफ़ हामिद की मुंदी पलकों को देख रही है. एक हाथ से उसके सिर को सहलाने लगती है. आबिद गर्दन झुकाये नोट को देख रहा है. दोनों जानते हैं - 'महमूद बच्चा है. बच्चे अपनी चीज़ों को लेकर थोड़े possessive होते हैं. बच्चों की बातों को क्या दिल से लगाना.' लेक़िन आबिद को भीतर ही भीतर कुछ अखर रहा है. आज अगर उसकी नौकरी होती तो क्या ईद इस तरह आती और चली जाती! उसने अपने सपने की ख़ातिर अपने बच्चे को एक अदद बचपन से वंचित कर दिया था. 

आबिद उठता है. नोट को अपने पर्स में डालता है और बाहर की ओर चल देता है. सदफ़ हामिद को ही देखती रहती है. थोड़ी देर में बाइक स्टार्ट होने की आवाज़ उसके कानों में पड़ती है.

*****

चिलचिलाती धूप में उसकी बाइक पीप-पीप और पोंप-पोंप की आवाज़ों के बीच सड़कों के स्पीड-ब्रेकरों और सिग्नलों को पार करती हुई चली जा रही है. हेलमेट के भीतर पसीना उसके माथे से चलकर उसकी नाक से होता हुआ उसके होंठों पर चढ़ा आ रहा है. बीच-बीच में वो एक हाथ से उसे पोंछता है और अपनी ज़ुबान पर नमक को महसूस करता है. गाड़ियों की चिल्ल-पों से परे उसे नेपथ्य से एक आवाज़ सुनाई देती है - "महमूद! आप ये वाला हामिद भाई को दे दो! अपन घर जाते वक़्त नया वाला ले लेंगे आपके लिए! हैं! नया वाला!".

वो प्रेस्टीज मॉल के सामने पार्किंग में बाइक खड़ी करता है. मॉल हमेशा की तरह जगमगा रहा था. Main entrance से भीतर घुसते ही ठीक सामने एक कार बीचों-बीच खड़ी है. पीछे की तरफ दो-एक स्टॉल लगे हैं. कार के इर्द-ग़िर्द लोग चहलक़दमी कर रहे हैं. कुछ लोग सेल्फ़ियां ले रहे हैं. दीवारों से बड़े-बड़े पोस्टर लगे टंगे हैं जिनमें ईद के लिए शेरवानियाँ पहने मॉडल खड़े हैं. सबके चेहरों पर आत्मविश्वास से भरी मुस्कानें. एक बड़ी-सी स्क्रीन पर इश्तेहार चल रहे हैं. बीच-बीच में उसपर भी ईद की बधाइयां चमकती हैं. आबिद दूसरे माले पर जाने के लिए एस्केलेटर की ओर रुख़ करता है. एस्केलेटर के सामने एक कॉफ़ी शॉप जहां लोग अपने लैपटॉप और टेबलेट्स को रखे कुछ बहुत महत्वपूर्ण काम करते प्रतीत हो रहे हैं. उसके इस बाजू एक केक-शॉप है. कॉफ़ी और बेकरी की ख़ुश्बुएं आपस में मिल कर माहौल को काफ़ी पारलौकिक बना रही हैं. आबिद एस्केलेटर पर क़दम रखता है. मोबाइल पर एक बार फिर कैलकुलेटर खुल जाता है. तमाम संख्याएं संभावनाओं से निकल-निकल कर कीपैड पर अवतरित होने लगती हैं. दूसरी मंज़िल आ गयी. मोबाइल दोबारा लॉक हो जाता है. हिसाब अधूरा छूट जाता है. अभाव में हिसाब कभी पूरे नहीं होते.

आबिद एस्केलेटर से उतर कर एक रेलिंग से सट कर खड़ा है. दूर एक टॉय शॉप है. ऊपर LED लाइटों से लिखा है - "Toy World", खिलौनों की दुनिया. बाजू में एक बाउन्सी कैसल है. हवा से फुलाया हुआ एक क़िलेनुमा गुब्बारा जिसपर बच्चे कूद रहे हैं. बाहर उनके मां-बाप झाँक-झाँक कर उन्हें देख रहे हैं. कोई फ़ोटो खींच रहा है, कोई वीडियो बना रहा है तो कोई बार-बार तसल्ली कर रहा है कि बच्चा कहीं इधर-उधर तो नहीं चला गया. बाहर एक बैनर टंगा है - "50 रुपये/20 मिनट". वहीं वन-व्हील वाले एक चक्के पर बच्चों को 100-100 रुपये में राउंड लगवा रहे हैं. कुछ बच्चे ड्रैगन के मुंह वाली टॉय ट्रेन में सवारी कर रहे हैं - "50 रुपये में 1 चक्कर"

"महमूद! आप ये वाला हामिद भाई को दे दो! अपन घर जाते वक़्त नया वाला ले लेंगे आपके लिए! हैं! नया वाला!"
वो टॉय वर्ल्ड की ओर चल देता है. टॉय वर्ल्ड अपने नाम के मुताबिक़ सच में एक दुनिया ही थी. सबसे आगे सॉफ्ट टॉयज़. छोटे, बड़े, कुछ वॉल्ट डिज़्नी की दुनिया से आए हुए, कुछ जापानी एनिमे की दुनिया से तो कुछ ऐसे ही सदाबहार - कुत्ता, बिल्ली, भालू. रंग-बिरंगे, चितकबरे, बटनों की आँखों में काली डोलती बुंदी से देखते हुए. उनके आगे कॅरक्टर टॉयज़. स्टार वार्स, ट्रांसफॉर्मर्स, टॉय-स्टोरी, डोरेमोन और छोटा भीम तक. चारों ओर उनके पोस्टर लटके हुए अपनी पोस्टरी आँखों के टशन से बच्चों को बुलाते हुए. उनके आगे बोर्ड गेम्स, पज़ल्स और फिर हाई-टेक सेक्शन. आबिद उस सेक्शन में रुक जाता है. एक आदमी रिमोट पकड़े ड्रोन उड़ा के दिखा रहा है. सामने एक स्क्रीन है जिसमें ड्रोन-कैमरे की लाइव स्ट्रीमिंग चल रही है. ड्रोन पूरे सेक्शन में इधर-उधर उड़ रहा है. आबिद स्क्रीन के सामने खड़ा हो जाता है. उसे अपनी तस्वीर स्क्रीन पर दिखाई पड़ती है. पसीना सूखने से उसके बाल चिपक गए हैं और उसकी शर्ट पर सफ़ेद दाग़ पड़ गए हैं. वो अपने हाथों से अपने चिपके बालों को ढीला करता है. ड्रोन उड़कर पीछे से उसकी तस्वीर दिखाने लगता है. उसके कॉलर से धागे निकलने लगे थे. उसने शेल्फ़ पर से एक ड्रोन खिलौना उठाया. उसे अनुमान से काफ़ी हल्का लगा. उसने डिब्बे को घुमा कर देखा - 4999 रुपये. उसने सिर उठाकर आजू-बाजू देखा. रिमोट वाला आदमी उसकी ओर देख रहा था. उसने डिब्बा दोबारा शेल्फ में रख दिया और जेब से मोबाइल निकालकर उसमें उंगलिया चलाने लगा. हवा में तैरता ड्रोन एक बार फिर उसके सामने आया. इस बार उसे स्क्रीन में ढीले-चिपके बालों वाला एक भावशून्य आदमी दिखा जिसके मोबाइल में कैलकुलेटर खुला था. आबिद ने उसे देखते ही अपना मोबाइल लॉक किया और रिमोट वाले आदमी की ओर देखा. दोनों की नज़रें मिलीं और स्क्रीन पर अगले सेक्शन का चित्र उभरा - "क्लासिक ऑटोमेटा", चाभी वाले खिलौने. उसे अपने पैरों में एक कंपन महसूस हुई और दिल में एक ग्लानि. उसने एक बार फिर रिमोट वाले आदमी को देखा. रिमोट वाले आदमी ने धीमे-से पलकें मूंदते हुए 'हां' में सिर झुकाया. आबिद उस सेक्शन की ओर चल दिया. उसे अपने पैर काफ़ी भारी महसूस हो रहे थे.

चाभी वाले खिलौनों के सेक्शन में काउंटर पर ही एक घेरा बना था. बाज क़िस्म के खिलौने उस घेरे में खेलकूद कर रहे थे. एक दूसरा आदमी खिलौनों में चाभी लगाता और उन्हें उस घेरे में रख छोड़ता. एक बन्दर हाथों में मंजीरे बजाता और कुलाटी लगाता. एक ट्रेन अपनी पटरियों पर इधर से उधर जाती. कुछ कारें इधर-इधर भागतीं और फिर घेरे की मेड़ पर अपने सिर को पटकतीं. हामिद की नज़र शेल्फ पर रखे एक हवाईजहाज़ पर पड़ी. उसने उसे उठाया और पलटाकर देखा - 49 रुपये. उसके मन में एक टीस उठी. 

"अच्छा ठीक है! पापा शाम को ले के आएंगे. अब चुप हो जाओ चलो!" 

वो कैश काउंटर पर 50 का एक नोट निकालता है और हवाईजहाज़ लेकर उस दुनिया से बाहर आता है. एक बार पीछे मुड़कर देखता है. रिमोट वाला आदमी उसे देखकर मुस्कुराता है. बदले में वो भी मुस्कुरा देता है. एस्केलेटर से नीचे उतरते वक़्त उसके दिल में कोई हिसाब नहीं चल रहा. सामने कुछ बच्चे आइसक्रीम खा रहे हैं. वो सीधे मेनगेट से बाहर की ओर निकल जाता है. बाहर तेज़ धूप में आते ही उसे राहत महसूस होती है. वो अपनी बाइक पर बैठकर हेलमेट पहनता है. उसके ढीले हुए बाल फिर से चिपकने लगते हैं. 

"अगर महमूद अपना खिलौना हामिद को दे देता तो भी क्या उसे ग्लानि होती?"

वो अपना रुख़ घर की ओर करता है.

*****

आबिद दरवाज़े के बाहर बाइक खड़ी करता है. हामिद जाग चुका था. उसकी और सदफ़ की आवाज़ें बाहर तक आ रहीं थीं. वो शायद उसको खाना खिला रही थी. आबिद बाहर के कमरे में आता है और डिब्बे से हवाईजहाज़ को निकालता है. अब वो हामिद के कमरे के दरवाज़े की आड़ में खड़ा है. उसे अपने घुटनों में जकड़न महसूस हो रही है.

"अच्छा ठीक है! पापा शाम को ले के आएंगे. अब चुप हो जाओ चलो!"

उसने कुछ वादा किया था. कहीं ये चाभी वाला खिलौना देखकर वो रोने ना लगे. कहीं वो इसे फेंक ही न दे. उसे अंदर से आवाज़ आई - "मम्मा! पापा कहाँ गए?"

"पापा आपके लिए कुछ सरप्राइज़ लेने गए है!"

आबिद सुन रहा है. वो अपने हाथों में रखे सरप्राइज़ को देखता है. उसके गले में कुछ उठता है. वो ऊपर की ओर देखता है और कुछ बुदबुदाता है. शायद हामिद के लिए किसी दुआ की मनोकामना. वो हवाईजहाज़ को भीतर की ओर धकेल देता है. हवाईजहाज़ चिर्र-चिर्र रेंगता हामिद के पास पहुँच जाता है - "पापा आ गए! पापा!"

आबिद दरवाज़े से निकलता है - "ये हवाईजहाज़ किछ पायलेट का है? हैं! हैं!"

"मेला"

हामिद हवाईजहाज़ उठा लेता है और अपना हाथ हवा में उठाकर दौड़ने लगता है - "छुईंईंईं..... छुईंईंईं.....". वो अपनी उड़ान में अपने मां-बाप की तमाम ग्लानियों और कुंठाओं को दूर ले जा रहा है. आबिद और सदफ़ एक बचपन के आश्रय में पनाह पाने के लिए उसके पीछे-पीछे दौड़ रहे हैं. 

Thursday, January 6, 2022

2021 की किताबें और पॉडकास्ट्स

किताबों के मामले में ये साल कुछ बहुत अच्छा नहीं रहा। इस साल बहुत थोड़ी सी किताबें पढ़ पाया। लेकिन इस साल पॉडकास्ट्स की दुनिया से मैं रूबरू हुआ। जो किताबें पढ़ीं और जो मेरे मनपसंद पॉडकास्ट्स हैं उनके नाम यहाँ दे रहा हूँ।

किताबें:

DraculaBram Stoker6
Malevolent RepublicK. S. Komireddi6
The God DelusionRichard Dawkins6
Apni Apni BimariHarishankar Parsai6
Black Holes: The Reith LecturesStephen Hawking5
Matdan Kendra Par JhapakiKedarnath Singh2
The Subtle Art of Not Giving a F*ckMark Manson5
The Home and the WorldRabindranath Tagore6
Rashmi RathiRamdhari Singh Dinkar6
A Passage to IndiaE. M. Forster6
Hell of a BookJason Mott6

1Boring - Left Midway
2Poor / Too Hard to understand
3Average
4Partly Good OR Language
5Good
6Must Read

पॉडकास्ट्स:

  1. Anurag Minus Verma Podcast (anurag minus verma)
  2. Brave New World -- hosted by Vasant Dhar (Data Governance Network)
  3. Cyrus Says (IVM Podcasts)
  4. george carlin (george)
  5. Highway On My Podcast (Newslaundry.com)
  6. History Daily (Noiser)
  7. History Of The Great War (Wesley Livesay)
  8. History of the Second World War (Wesley Livesay)
  9. Invisibilia (NPR)
  10. Know Your Kanoon (IVM Podcasts)
  11. Let's Talk About (Newslaundry.com)
  12. NL Charcha (Newslaundry.com)
  13. NL Hafta (Newslaundry.com)
  14. Newslaundry Conversations (Newslaundry.com)
  15. Prime Time with Ravish (NDTV)
  16. Puliyabaazi Hindi Podcast (IVM Podcasts)
  17. Real Dictators (Noiser Podcasts)
  18. Reporters Without Orders (Newslaundry.com)
  19. Secular Jihadists for a Muslim Enlightenment (Ali. Rizvi & Armin Navabi)
  20. Short History Of... (NOISER)
  21. Simblified (IVM Podcasts)
  22. StarTalk Radio (Neil deGrasse Tyson)
  23. Stop Press (Newslaundry.com)
  24. Teen Taal (Aaj Tak Radio)
  25. The Awful & Awesome Entertainment Wrap (Newslaundry.com)
  26. The Doug Stanhope Podcast (All Things Comedy)
  27. The Media Rumble podcast (Newslaundry.com)
  28. The Seen and the Unseen - hosted by Amit Varma (Amit Varma)
  29. Throughline (NPR)
  30. Unofficial Sources (The Ken)
  31. Urdunama (The Quint)
  32. Where Were You When (Where Were You When)

ये सारे पॉडकास्ट्स Google podcast पर असानी से मिल जाएँगे। Google podcast की app भी है।
NL Hafta और Let's Talk About पॉडकास्ट्स केवल paid हैं, बाक़ी सारे फ्री हैं।