Saturday, April 2, 2022

हामिद


रमज़ान के पूरे तीस रोज़ों के बाद ईद आई है. महीने का आख़िरी दिन है. आबिद अपने कम्प्यूटर इंस्टिट्यूट के भीतर बैठा है. सामने मेज़ पर एक प्रोजेक्टर रखा है. ऊपर एक पंखा बेहिसी से मंडरा रहा है. सामने काले शेड वाला एक पारदर्शी दरवाज़ा है जिससे बाहर गुज़रती दुनियादारी दिख रही है. दरवाज़े के कोने में एक एग्जॉस्ट फैन भीतर की आंच को कम करने की नाक़ाम कोशिश कर रहा है. दायीं ओर एक शेल्फ़ है जिसके एक खाने में FM रेडियो रखा है. उसकी ही आवाज़ है जिसने आबिद को अपने अकेलेपन में ढहने से रोक रखा है. आबिद नज़रें उठा कर पंखे को देखता है. पंखे के झल्लों पर धूल की गहरी परत चढ़ गयी है. रेडियो से एक सर्द आवाज़ उठती है - "मेरा नाम... नीलेश मिस्रा है... और आप सुन रहे हैं... याद शहर...". आबिद कुर्सी से उठ कर रेडियो बंद कर देता है और प्लग निकाल कर उसे मेज़ पर रखे एक बैग में डाल देता है. कमरा एक ख़ामोशी ओढ़ लेता है. आबिद वापस अपनी कुर्सी पर आकर बैठ जाता है. एक ठंडी निगाह प्रोजेक्टर पर डालता है. अपने हाथ की आड़ से अपने चेहरे को ढंक कर मेज़ पर गिरा देता है. तीन साल पहले बैंगलोर में अपनी नौकरी छोड़कर वो अपने सपने को जीने आया था. अपना ख़ुद का इंस्टिट्यूट. आज इंस्टिट्यूट का आख़िरी दिन है. तीन साल के उतार-चढ़ाव और फिर उतार के बाद आज उसमें ताला पड़ने वाला है. आबिद अपना आख़िरी बचा-कुचा सामान लेने आया था. यादों के शहर 'याद-शहर' की तरह रूमानी नहीं होते.

आज उसे इंस्टिट्यूट का बक़ाया किराया चुकता करना है. कल तत्काल में बैंगलोर की टिकट करवाना है. कुछ पैसे सदफ़ के हाथों में भी छोड़ने पड़ेंगे. बैंगलोर में PG में ठहरने के लिए भी कुछ पैसे चाहिए होंगे. वो मोबाइल में अपना बैंक अकाउंट टटोलता है. कैलकुलेटर पर कुछ हिसाब बुदबुदाता है. जब हमारे पास पैसे नहीं होते तो हम बार-बार एक ही हिसाब को अलग-अलग क्रम में दोहराते रहते हैं. आबिद मोबाइल को जेब में डालकर बाहर आता है; शटर गिराता है; ताला लगाता है; बैग पीछे टांगता है; और बाइक घुमा कर घर की ओर चल देता है. रीयर व्यू में उसे अपना इंस्टिट्यूट दूर छूटता नज़र आता है. वो पढ़ता है - "Objects in the mirror are closer than they appear". पीछे गुज़रती दुनिया उतनी दूर नहीं होती जितनी दिखाई पड़ती है. 

*****

गली के मुहाने से ही उसे घर के सामने एक काली स्कॉर्पियो नज़र आती है. मोहसिन आया है ईद मिलने. उसके कन्धों में एक थकावट उभरती है, एक भारीपन महसूस होता है. वो झुकने लगते हैं. मोहसिन आबिद का छोटा भाई था. एक वक़्त था जब सबको लगता था कि आबिद एक दिन कुछ बड़ा करेगा. वहीं मोहसिन के बारे में सब समझते थे कि बड़ा होकर अपनी दाल-रोटी ही चला ले वही बहुत होगा. कितनी ही रातें आबिद ने मोहसिन को पढ़ाते गुज़ारी थीं. घर के पीछे के कम्पाउंड में शाम ढले दोनों पतंगे पकड़ते थे और उनके पैरों में धागे बाँध कर हेलीकॉप्टर उड़ाते थे. घर के आंगन में वन-टिप-वन-हैण्ड खेलते थे. कूलर की हवा खिड़की की ओर करके अपने कमरे में सिगरेट पीते थे. रमज़ान की रातों में चुपके-से साइकिल पर शाहजहांनाबाद भाग जाते थे. रबड़ी-जलेबी और शर्बतों के स्टॉल, पान-सिगरेट के खोमचे, क़व्वालियों के मंच और उस चहल-पहल में इधर-उधर घूमते-भटकते आबिद-मोहसिन. दोनों के बीच दो ही साल का फ़ासला था. मोहसिन के लिए आज भी उतना ही था. आबिद के लिए दिनों-दिन बढ़ता जाता था. असफलताएं जब आती हैं तो तमाम कुंठाओं को चारों ओर से ढकेलती आती हैं. आज मोहसिन कितने ही रुपये ज़कात को नज़र कर देता है. क़ुर्बानी भी साल-दर-साल मोटी-से-मोटी होती जाती थी. वहीं दूसरी ओर काली स्कॉर्पियो देख कर आबिद को पहला ख़्याल यही आया कि महमूद को ईदी भी देनी पड़ेगी. महमूद मोहसिन का बेटा था. हामिद से कोई तीन महीने छोटा. हामिद आबिद का बेटा था.

आबिद स्कॉर्पियो के पीछे अपनी बाइक खड़ी करता है. हामिद और महमूद के रोने चिल्लाने की आवाज़ें आ रही हैं. मोहसिन, शमा और सदफ़ उन्हें शांत करा रही हैं.

मोहसिन - "महमूद! हामिद भाई आपसे बड़े हैं ना! शेयर कर के खेलते हैं. अच्छा चलो दोनों बारी-बारी उड़ाओ"

सदफ़ - "हामिद झगड़ा नहीं करना है! नहीं तो अभी बंद कर दूंगी कमरे में! सारी ईद निकल जाएगी!"

शमा - "महमूद! रिमोट हामिद भाई को दो!"

आबिद कमरे में दाख़िल होता है. शमा ने महमूद को पकड़ रखा है और सदफ़ ने हामिद को. ज़मीन पर एक ड्रोन खिलौना पड़ा है. मेज़ पर एक iPad रखा है जिसमें ड्रोन की तस्वीरें स्ट्रीम हो रही हैं. महमूद के हाथ में एक रिमोट है. मोहसिन आबिद को देखकर बाहें खोलता हुआ आगे बढ़ता है. उसने एक काली शर्ट पहन रखी है जिसके बटन उसके बढ़ते पेट से टूटते-टूटते लगते हैं. हमेशा की तरह घनी मूछें और हल्की दाढ़ी. हमेशा एयर कंडीशंड माहौल में रहने से चेहरे पर भी एक चमक आ गयी है. उसने बालों में बरगंडी कलर लगवाया है. मूंछ को भी डाय किया है. परफ़्यूम की भीनी-भीनी ख़ुशबू. आबिद कभी परफ़्यूम या डीयो नहीं लगता था. उसे अपने शरीर से पसीने की महक उठती लगती है. 

मोहसिन - "ईद मुबारक़ भाई! ईद मुबारक़!"

आबिद - "मुबारक़! मुबारक़!"

शमा भी मोहसिन के पीछे पीछे आती है - "ईद मुबारक़ भाईजान!"

"बहुत बहुत मुबारक़! और! सब ख़ैरियत!"

"दुआ है!"

तभी महमूद आबिद के पास आता है और उसके पैरों से लिपट जाता है - "ईद मुबालक चाचू!"

आबिद - "भोत भोत मुबालक बेटा जी!"

महमूद - "ईदी! ईदी!"

आबिद - "अच्छा! अच्छा!"

आबिद एक नज़र सदफ़ की ओर उठाता है. दोनों की नज़रें मिलती हैं. आबिद नज़रें हटाकर जेब से पर्स निकालता है. एक 500 का नोट निकाल कर महमूद की हथेली पर रखता है और अपना गाल आगे बढ़ाता हुआ कहता है - "औल अब हमाली ईदी!"  महमूद उसके गाल पर एक पप्पी देकर भागने लगता है. आबिद उसे पकड़ने की झूठमूठ कोशिश करता है - "अरे! अरे! भागता कहाँ है बदमाश छोकरे!" महमूद भाग जाता है. दोनों भाई सोफ़े पर बैठ जाते हैं.

मोहसिन - "इंस्टिट्यूट से आ रहे हैं?"

आबिद - "हाँ यार आज आख़िरी दिन था. कुछ सामान पड़ा था वहाँ तो ईदगाह से सीधा वहीं निकल लिया."

"बैंगलोर जा रहे हैं?"

"हाँ यार! यहां तो तुम देख ही रहे हो!"

"कब निकल रहे हैं?"

"बस यार! अब निकलते ही हैं. कल ही तत्काल में ट्राई करने की सोच रहा हूँ."

"मैं नूरे को भेज दूँ? वो काउंटर से निकलवा लाएगा! ऑनलाइन का ऐसे भी कोई भरोसा नहीं!"

"अरे कोई ना! आजकल तो आराम से हो जाता है! उन लोगों ने अपनी वेबसाइट भी नई बनवा ली है. हो जाएगा."

तभी पीछे से महमूद और हामिद के झगड़े की आवाज़ें आती हैं - "मेला है!"; "मुझे चाहिए!"; "मेला है!"; "मुझे चाहिए!". हामिद महमूद के हाथ से खिलौना छुड़ाने की कोशिश कर रहा है. महमूद खिलौने वाला हाथ पीठ के पीछे किये हामिद से उसे बचाने की कोशिश कर रहा है. हामिद महमूद की पीठ की ओर जाने की कोशिश करता है. महमूद तेज़ी से मुड़ता है और खिलौना हामिद के सिर पर दे मारता है. हामिद ज़ोर से रोने लगता है. शमा और सदफ़ दोनों को अलग करने दौड़ती हैं.

शमा - "महमूद! क्या बदतमीज़ी है ये! आज घर चलो तुम! बताती हूँ तुमको! सारी ईद न निकाली तो कहना!"

सदफ़ - "अरे जाने दो शमा! बच्चे हैं!"

शमा - "बच्चे-बच्चे कर-कर के ही तो ये गुर निकल आए हैं! आज बताती हूँ तुमको!"

महमूद ज़ोर से चिल्लाता है - "मेला है!"

शमा एक चांटा जड़ देती है उसके गाल पर. ड्रोन ज़मीन पर गिर जाता है. 

"बहुत मेरा मेरा सूझ रहा है तुमको! हज़ार बार समझाया मिलके खेलो! समझ नहीं आती!"

उधर हामिद रो-रो कर दोहरा हुआ जा रहा है. आबिद आगे बढ़ कर सदफ़ की गोद से उसे ले लेता है - "आलेलेलेलेले! क्या हुआ मेले बच्चे को!"

हामिद रोते हुए जवाब देता है - "मुझे चाहिए". उसकी उंगली ज़मीन पर पड़े ड्रोन की ओर निशाना बनाती है. आबिद उसके पीठ पर हाथ फेरता है - "अच्छा ठीक है! पापा शाम को ले के आएंगे. अब चुप हो जाओ चलो!" सदफ़ आबिद को देखती है. इतने में मोहसिन भी महमूद को समझाने लगता है - "महमूद! आप ये वाला हामिद भाई को दे दो! अपन घर जाते वक़्त नया वाला ले लेंगे आपके लिए! हैं! नया वाला!"

महमूद - "नहीं! ये मेला है!"

आबिद - "अरे बच्चे हैं! इतनी आसानी से थोड़े ही छोड़ेंगे. हाहा!"

मोहसिन - "अरे! इनके पास ढेर खिलौने हैं लेकिन जी ही नहीं अघाता!"

आबिद - "अरे उमर है खेलने की! फिर का बुढ्ढे होके खेलेंगे! इसे तो मैं ला दूंगा शाम को! क्यूँ! ठीक है ना बेटा जी!"

*****
मोहसिन, शमा और महमूद जा चुके हैं. हामिद आज बहुत रोया ख़ासकर तब जब महमूद अपना खिलौना लेकर अपनी गाड़ी में बैठ गया. आबिद हामिद को गोद में लिए कमरे में इधर-उधर टहल रहा है. उसकी पीठ पर थपकियाँ देकर उसे सुलाने की कोशिश कर रहा है - "आओ तुम्हें चाँद पे ले जाएँ... प्यार भरे सपने सजाएं... छोटा-सा बंगला बनाएं... एक नई दुनिया सजाएं... होओओओ...". धीरे-धीरे हामिद की पलकें भारी होने लगती हैं और आहिस्ते-आहिस्ते वो नींद की दुनिया में खो जाता है. आबिद उसे बहुत सावधानी से कंधे से उतार कर बिस्तर पर लिटा देता है और एक चादर ओढ़ा देता है. सदफ़ बिस्तर के बाजू में रखी कुर्सी पर बैठ जाती है. हामिद के सोते ही कमरे में एक ख़ामोशी तैरने लगती है. सदफ़ आबिद की ओर 500 का नोट बढ़ाती है - "मोहसिन ने आबिद को दिए थे". आबिद नोट को अपने हाथ में ले लेता है. सदफ़ हामिद की मुंदी पलकों को देख रही है. एक हाथ से उसके सिर को सहलाने लगती है. आबिद गर्दन झुकाये नोट को देख रहा है. दोनों जानते हैं - 'महमूद बच्चा है. बच्चे अपनी चीज़ों को लेकर थोड़े possessive होते हैं. बच्चों की बातों को क्या दिल से लगाना.' लेक़िन आबिद को भीतर ही भीतर कुछ अखर रहा है. आज अगर उसकी नौकरी होती तो क्या ईद इस तरह आती और चली जाती! उसने अपने सपने की ख़ातिर अपने बच्चे को एक अदद बचपन से वंचित कर दिया था. 

आबिद उठता है. नोट को अपने पर्स में डालता है और बाहर की ओर चल देता है. सदफ़ हामिद को ही देखती रहती है. थोड़ी देर में बाइक स्टार्ट होने की आवाज़ उसके कानों में पड़ती है.

*****

चिलचिलाती धूप में उसकी बाइक पीप-पीप और पोंप-पोंप की आवाज़ों के बीच सड़कों के स्पीड-ब्रेकरों और सिग्नलों को पार करती हुई चली जा रही है. हेलमेट के भीतर पसीना उसके माथे से चलकर उसकी नाक से होता हुआ उसके होंठों पर चढ़ा आ रहा है. बीच-बीच में वो एक हाथ से उसे पोंछता है और अपनी ज़ुबान पर नमक को महसूस करता है. गाड़ियों की चिल्ल-पों से परे उसे नेपथ्य से एक आवाज़ सुनाई देती है - "महमूद! आप ये वाला हामिद भाई को दे दो! अपन घर जाते वक़्त नया वाला ले लेंगे आपके लिए! हैं! नया वाला!".

वो प्रेस्टीज मॉल के सामने पार्किंग में बाइक खड़ी करता है. मॉल हमेशा की तरह जगमगा रहा था. Main entrance से भीतर घुसते ही ठीक सामने एक कार बीचों-बीच खड़ी है. पीछे की तरफ दो-एक स्टॉल लगे हैं. कार के इर्द-ग़िर्द लोग चहलक़दमी कर रहे हैं. कुछ लोग सेल्फ़ियां ले रहे हैं. दीवारों से बड़े-बड़े पोस्टर लगे टंगे हैं जिनमें ईद के लिए शेरवानियाँ पहने मॉडल खड़े हैं. सबके चेहरों पर आत्मविश्वास से भरी मुस्कानें. एक बड़ी-सी स्क्रीन पर इश्तेहार चल रहे हैं. बीच-बीच में उसपर भी ईद की बधाइयां चमकती हैं. आबिद दूसरे माले पर जाने के लिए एस्केलेटर की ओर रुख़ करता है. एस्केलेटर के सामने एक कॉफ़ी शॉप जहां लोग अपने लैपटॉप और टेबलेट्स को रखे कुछ बहुत महत्वपूर्ण काम करते प्रतीत हो रहे हैं. उसके इस बाजू एक केक-शॉप है. कॉफ़ी और बेकरी की ख़ुश्बुएं आपस में मिल कर माहौल को काफ़ी पारलौकिक बना रही हैं. आबिद एस्केलेटर पर क़दम रखता है. मोबाइल पर एक बार फिर कैलकुलेटर खुल जाता है. तमाम संख्याएं संभावनाओं से निकल-निकल कर कीपैड पर अवतरित होने लगती हैं. दूसरी मंज़िल आ गयी. मोबाइल दोबारा लॉक हो जाता है. हिसाब अधूरा छूट जाता है. अभाव में हिसाब कभी पूरे नहीं होते.

आबिद एस्केलेटर से उतर कर एक रेलिंग से सट कर खड़ा है. दूर एक टॉय शॉप है. ऊपर LED लाइटों से लिखा है - "Toy World", खिलौनों की दुनिया. बाजू में एक बाउन्सी कैसल है. हवा से फुलाया हुआ एक क़िलेनुमा गुब्बारा जिसपर बच्चे कूद रहे हैं. बाहर उनके मां-बाप झाँक-झाँक कर उन्हें देख रहे हैं. कोई फ़ोटो खींच रहा है, कोई वीडियो बना रहा है तो कोई बार-बार तसल्ली कर रहा है कि बच्चा कहीं इधर-उधर तो नहीं चला गया. बाहर एक बैनर टंगा है - "50 रुपये/20 मिनट". वहीं वन-व्हील वाले एक चक्के पर बच्चों को 100-100 रुपये में राउंड लगवा रहे हैं. कुछ बच्चे ड्रैगन के मुंह वाली टॉय ट्रेन में सवारी कर रहे हैं - "50 रुपये में 1 चक्कर"

"महमूद! आप ये वाला हामिद भाई को दे दो! अपन घर जाते वक़्त नया वाला ले लेंगे आपके लिए! हैं! नया वाला!"
वो टॉय वर्ल्ड की ओर चल देता है. टॉय वर्ल्ड अपने नाम के मुताबिक़ सच में एक दुनिया ही थी. सबसे आगे सॉफ्ट टॉयज़. छोटे, बड़े, कुछ वॉल्ट डिज़्नी की दुनिया से आए हुए, कुछ जापानी एनिमे की दुनिया से तो कुछ ऐसे ही सदाबहार - कुत्ता, बिल्ली, भालू. रंग-बिरंगे, चितकबरे, बटनों की आँखों में काली डोलती बुंदी से देखते हुए. उनके आगे कॅरक्टर टॉयज़. स्टार वार्स, ट्रांसफॉर्मर्स, टॉय-स्टोरी, डोरेमोन और छोटा भीम तक. चारों ओर उनके पोस्टर लटके हुए अपनी पोस्टरी आँखों के टशन से बच्चों को बुलाते हुए. उनके आगे बोर्ड गेम्स, पज़ल्स और फिर हाई-टेक सेक्शन. आबिद उस सेक्शन में रुक जाता है. एक आदमी रिमोट पकड़े ड्रोन उड़ा के दिखा रहा है. सामने एक स्क्रीन है जिसमें ड्रोन-कैमरे की लाइव स्ट्रीमिंग चल रही है. ड्रोन पूरे सेक्शन में इधर-उधर उड़ रहा है. आबिद स्क्रीन के सामने खड़ा हो जाता है. उसे अपनी तस्वीर स्क्रीन पर दिखाई पड़ती है. पसीना सूखने से उसके बाल चिपक गए हैं और उसकी शर्ट पर सफ़ेद दाग़ पड़ गए हैं. वो अपने हाथों से अपने चिपके बालों को ढीला करता है. ड्रोन उड़कर पीछे से उसकी तस्वीर दिखाने लगता है. उसके कॉलर से धागे निकलने लगे थे. उसने शेल्फ़ पर से एक ड्रोन खिलौना उठाया. उसे अनुमान से काफ़ी हल्का लगा. उसने डिब्बे को घुमा कर देखा - 4999 रुपये. उसने सिर उठाकर आजू-बाजू देखा. रिमोट वाला आदमी उसकी ओर देख रहा था. उसने डिब्बा दोबारा शेल्फ में रख दिया और जेब से मोबाइल निकालकर उसमें उंगलिया चलाने लगा. हवा में तैरता ड्रोन एक बार फिर उसके सामने आया. इस बार उसे स्क्रीन में ढीले-चिपके बालों वाला एक भावशून्य आदमी दिखा जिसके मोबाइल में कैलकुलेटर खुला था. आबिद ने उसे देखते ही अपना मोबाइल लॉक किया और रिमोट वाले आदमी की ओर देखा. दोनों की नज़रें मिलीं और स्क्रीन पर अगले सेक्शन का चित्र उभरा - "क्लासिक ऑटोमेटा", चाभी वाले खिलौने. उसे अपने पैरों में एक कंपन महसूस हुई और दिल में एक ग्लानि. उसने एक बार फिर रिमोट वाले आदमी को देखा. रिमोट वाले आदमी ने धीमे-से पलकें मूंदते हुए 'हां' में सिर झुकाया. आबिद उस सेक्शन की ओर चल दिया. उसे अपने पैर काफ़ी भारी महसूस हो रहे थे.

चाभी वाले खिलौनों के सेक्शन में काउंटर पर ही एक घेरा बना था. बाज क़िस्म के खिलौने उस घेरे में खेलकूद कर रहे थे. एक दूसरा आदमी खिलौनों में चाभी लगाता और उन्हें उस घेरे में रख छोड़ता. एक बन्दर हाथों में मंजीरे बजाता और कुलाटी लगाता. एक ट्रेन अपनी पटरियों पर इधर से उधर जाती. कुछ कारें इधर-इधर भागतीं और फिर घेरे की मेड़ पर अपने सिर को पटकतीं. हामिद की नज़र शेल्फ पर रखे एक हवाईजहाज़ पर पड़ी. उसने उसे उठाया और पलटाकर देखा - 49 रुपये. उसके मन में एक टीस उठी. 

"अच्छा ठीक है! पापा शाम को ले के आएंगे. अब चुप हो जाओ चलो!" 

वो कैश काउंटर पर 50 का एक नोट निकालता है और हवाईजहाज़ लेकर उस दुनिया से बाहर आता है. एक बार पीछे मुड़कर देखता है. रिमोट वाला आदमी उसे देखकर मुस्कुराता है. बदले में वो भी मुस्कुरा देता है. एस्केलेटर से नीचे उतरते वक़्त उसके दिल में कोई हिसाब नहीं चल रहा. सामने कुछ बच्चे आइसक्रीम खा रहे हैं. वो सीधे मेनगेट से बाहर की ओर निकल जाता है. बाहर तेज़ धूप में आते ही उसे राहत महसूस होती है. वो अपनी बाइक पर बैठकर हेलमेट पहनता है. उसके ढीले हुए बाल फिर से चिपकने लगते हैं. 

"अगर महमूद अपना खिलौना हामिद को दे देता तो भी क्या उसे ग्लानि होती?"

वो अपना रुख़ घर की ओर करता है.

*****

आबिद दरवाज़े के बाहर बाइक खड़ी करता है. हामिद जाग चुका था. उसकी और सदफ़ की आवाज़ें बाहर तक आ रहीं थीं. वो शायद उसको खाना खिला रही थी. आबिद बाहर के कमरे में आता है और डिब्बे से हवाईजहाज़ को निकालता है. अब वो हामिद के कमरे के दरवाज़े की आड़ में खड़ा है. उसे अपने घुटनों में जकड़न महसूस हो रही है.

"अच्छा ठीक है! पापा शाम को ले के आएंगे. अब चुप हो जाओ चलो!"

उसने कुछ वादा किया था. कहीं ये चाभी वाला खिलौना देखकर वो रोने ना लगे. कहीं वो इसे फेंक ही न दे. उसे अंदर से आवाज़ आई - "मम्मा! पापा कहाँ गए?"

"पापा आपके लिए कुछ सरप्राइज़ लेने गए है!"

आबिद सुन रहा है. वो अपने हाथों में रखे सरप्राइज़ को देखता है. उसके गले में कुछ उठता है. वो ऊपर की ओर देखता है और कुछ बुदबुदाता है. शायद हामिद के लिए किसी दुआ की मनोकामना. वो हवाईजहाज़ को भीतर की ओर धकेल देता है. हवाईजहाज़ चिर्र-चिर्र रेंगता हामिद के पास पहुँच जाता है - "पापा आ गए! पापा!"

आबिद दरवाज़े से निकलता है - "ये हवाईजहाज़ किछ पायलेट का है? हैं! हैं!"

"मेला"

हामिद हवाईजहाज़ उठा लेता है और अपना हाथ हवा में उठाकर दौड़ने लगता है - "छुईंईंईं..... छुईंईंईं.....". वो अपनी उड़ान में अपने मां-बाप की तमाम ग्लानियों और कुंठाओं को दूर ले जा रहा है. आबिद और सदफ़ एक बचपन के आश्रय में पनाह पाने के लिए उसके पीछे-पीछे दौड़ रहे हैं. 

3 comments:

  1. Kitna khoobsurat likha hai...Jeevant ho chuka tha jaise! Aakhiri
    Line tak aankhen bhar ayin thin ..mehsoos kar saki Aabid aur Sabad ka dard!!!

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  2. Emotions ko bht hi achhe tarike se shabdo me utara hai. Dil ko chhoo gyi ye kahani. Sach me last tak aankh bhar ayi.

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  3. बहुत ही मर्मस्पर्शी कहानी है
    एक ही माँ के बेटे होने के बाद जो बचपन में एक रहते हैं कैसे बड़े होने पर अलग हो जाते हैं और एक दुसरी की भावनाओं की क़द्र भी करना भूल जाते हैं
    अभाव कई मौको पर ऐसी दुखद स्थिति पैदा कर देती हैं जब इंसान अपने को बहुत कमजोर महसूस करने लगता है
    भावनाओं को बखूबी पिरोया है आपने दिल में गहरी उतरी है पोस्ट

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