Thursday, March 31, 2016

गुडिया



"दवा टाइम पर लेती है कि नहीं?", बुधिया ने डपटकर पूछा.

"ले तो रही हूँ.", मुंह से रुमाल हटाते हुए भीमा बोली.

"तो फिर ये खांसी बहनचोद बंद काहे नहीं होती?", कहते हुए बुधिया दरवाज़े से बाहर बीडी फूंकने चला गया.

भीमा चुप रह गयी. क्या कहती? खांसी नहीं टीबी है! जैसे बुधिया जानता न हो! बुधिया हमेशा उसकी बीमारी को खांसी ही कहता. शायद बीमारी का नाम बदलने से तकलीफ भी थोड़ी कम हो जाती हो. बीमारी शरीर ही नहीं मन को भी तोड़ देती है. जब से तपस्या मैडम गयीं थीं तब से ज़िंदगी ही बदल गयी.

तपस्या मैडम पास वाली बिल्डिंग के चौथे माले पर रहतीं थीं. वो दिल्ली की रहने वाली थीं. भीमा उन्हें मैडम जी कहा करती. पति से उनका तलाक़ हो चुका था. अब अपनी माँ के साथ अकेली रहती थी. किसी कंपनी में काम भी करतीं थीं. सात साल की एक बेटी भी थी उनकी- प्रिया. भीमा साल भर पहले झाडू-पोछे के लिए उनके यहाँ काम पर लगी थी. जब भीमा ने झाडू-पोछे के लिए दो हज़ार मांग लिए तो उन्होंने बिना किसी चिक-चिक के दे भी दिए. भीमा और दूसरी बाइयों का एक सीधा उसूल होता था कि जो रेट हो उससे पांच सौ ज़्यादा मांगो. मैडम लोग खुद ही चिक-चिक करके पांच सौ कम करवा देतीं हैं. भीमा जब भी वहाँ जाती मैडम जी अक्सर अपनी बर्तन वाली के लिए चिल्लाती रहतीं. बर्तन वाली पुष्पा भीमा के पड़ोस वाली खोली में रहती थी. अक्सर ही काम से गोल मार लेती थी. वैसे उनकी मां उतनी बूढ़ी नहीं थीं पर उनके घुटने जवाब दे चुके थे, इसलिए घर के काम में उनका कोई सहयोग न होता. और मैडम जी को अगर दफ्तर जाने के समय खुद बर्तन करना पड़ता तो उनका पारा हाई हो जाता. एक दिन मैडम जी की तबियत ठीक नहीं थी. उन्होंने ने भीमा से बर्तन करने बोला. भीमा ने कहा - "नहीं मैडम जी. मैं सिर्फ सिर्फ झाडू-पोछा करती हूँ. खाना-बर्तन नहीं करूंगी."

"अरे पैसे ले लेना न! बेगारी नहीं कराउंगी तेरे से मैं", मैडम ने कहा था.

"मैडम. हम एस सी हैं. खाना-बर्तन नहीं करते."

पहले तो मैडम को आश्चर्य हुआ ये सुन कर कि इन बड़े-बड़े शहरों में अभी तक बाइयों के काम के बटवारे भी उनकी जात के आधार पर होते हैं. लेकिन फिर उन्होंने कहा - "देख मैं जात बिरादरी नहीं मानती. तेरे पैसे मैं पांच हज़ार कर देती हूँ और तू खाना भी बना और बर्तन भी कर." और उन्होनें पुष्पा को छुडवा दिया. तब से आज तक पुष्पा ने भीमा से बात भी नहीं की.

भीमा की साल भर की एक बेटी भी थी - मिन्जुरा. भीमा उसे भी अपने साथ ले जाती मैडम जी के घर. प्रिया को मिन्जुरा को खिलाने में बहुत मज़ा आता था. अपने सारे खिलौने ला ला कर उसके हाथ में पकडाती, उससे तोतली बोली बोल कर उसे बोलना सिखाती, उसे अपने साथ टीवी पर कार्टून दिखाती. प्रिया ने ही उसे बताया था - "आंटी.. आंटी.. पता मिन्जुरा को ये बार्बी वाली डॉल बहुत पसंद है. हमेशा इसी से खेलती है. देखना अभी इससे ले लूं तो कैसे रोएगी!". ये कह कर उसने वो डॉल मिन्जुरा से छुडा ली. मिन्जुरा के छोटे से चेहरे पर भाव बदलने शुरू हुए. पहले भवें सिकुडीं, फिर छोटे-छोटे होंठ सिकुड़कर नीचे की ओर मुड़ गए, फिर आँखें डबडबा उठीं और आखिर में होंठ खुले और रोने की एक जोर की आवाज़ गले से निकली. मैडम जी, प्रिया और भीमा तीनों मिन्जुरा की ये हरकत देखकर बहुत हँसे थे.

एक दिन मैडम जी ने दफ्तर से छुट्टी ली थी. उस दिन दोपहर में उन्होंने एक आदमी को बुलाया था. भीमा रसोई में उनके लिए चाय बना रही थी. बाहर होती चर्चाएँ उसके कानों में भी पड़ रहीं थीं. आदमी समझा रहा था कि इतने लाख जमा करवा दोगे इतने साल के लिए तो कितना ब्याज मिलेगा. अलग अलग स्कीमों के नाम. बाद में भीमा ने मैडम जी से पूछा था उसके बारे में तो उन्होंने बताया था कि वो एक बैंक से आया था और वो उन्हें फिक्स्ड डिपाजिट के बारे बता रहा था. "आज अगर मैं प्रिया के लिए कुछ पैसे बैंक में फिक्स्ड डिपाजिट करवा दूं... करीब दस-पंद्रह साल के लिए... तो जब वो करीब बीस-बाईस साल की हो जाएगी तो उसको काफी सारा पैसा मिलेगा. उससे उसकी पढाई या शादी वगैरह में काफी मदद मिल जाएगी."

"मिनिमम ट्वेंटी फाइव थाउजेंड", भीमा ने उस आदमी को कहते हुए सुना था जब वो उन्हें ट्रे में चाय सर्व करने गयी थी.

कई दिनों बाद उसने एक दिन धीरे से प्रिया से पूछा था - "प्रिया बेबी! ये ट्वेंटी फाइव थाउजेंड कितना होता है?"

"पच्चीस हज़ार", प्रिया ने कहा था.

कुछ महीनों बाद मैडम जी को अमेरिका जाने का कोई ऑफर आया. उन्होंने भीमा से पूछा - "तू चलेगी?"

"मैं क्या करूंगी वहाँ?"

"जो यहाँ करती है. माँ का, प्रिया का ध्यान रखना, खाना-बर्तन वगैरह करना और क्या. वहां तो पढाई भी सबके लिए मुफ्त होती है. तेरी बेटी भी वहीं पढ़ लेगी. साल के चार जोड़ कपडे दिलवाउंगी. रहना-खाना हमारे साथ. लेकिन बार बार आने को नहीं मिलेगा. हर महीने अपने पति को पंद्रह हज़ार तक भेज पायेगी. सोच के बताना."

घर आ कर भीमा ने बुधिया को ये बात बताई. बुधिया की एक पंचर बनाने की दुकान थी. उससे कोई इतनी कमाई तो होती नहीं थी. बुधिया तो खुश हो गया. और भीमा... वो तो बस सपने बुनने में लगी थी. बीच-बीच में बुधिया कुछ पूछता तो उसे खलल जान पड़ता. उन सपनों में तो वो अमेरिका पहुँच भी चुकी थी और वहां के एक स्कूल में उसकी बेटी पढ़ने भी लगी थी. प्रिया बेबी और मैडम जी के जैसी फर्राटेदार इंग्लिश भी बोलने लगी थी. फिर मिन्जुरा बड़ी भी हो गयी थी. और मैडम जी की तरह बड़ी अफसर भी बन गयी थी. "मिन्जुरा मैडम... मिन्जुर मैडम जी...", वो अपने आप से बोली भी थी. लेकिन सपनों की उड़ानों में हवाएं हमेशा मद्धम ही होती हैं. तूफ़ान तो असल जिंदगियों में आते हैं.

कुछ ही दिनों बाद भीमा को तेज़ खांसी उठने लगी, लगातार बुखार रहने लगा. जांच करवाई तो टीबी निकली. उधर जाने के दिन करीब आते जा रहे थे. भीमा कर्जा ले ले के इलाज करवाने में लगा था. किसी तरह बीमारी जल्दी ठीक हो जाए तो बाद में पैसे तो सब चुका ही देंगे. कर्जा धीरे-धीरे इतना बढ़ गया कि पंचर की दूकान बंद हो गयी और बुधिया मजदूरी करने में लग गया.

फिर एक दिन मैडम जी घर आयीं और उन्होंने कह दिया - "देख भीमा! मैं तो तुझे ले चलती पर तेरी हालत ही अभी जाने लायक नहीं है. मुझे वहां खुद कितना काम रहेगा, फिर माँ को देखना. अब अगर तेरी भी हालत ऐसी ही रही तो मैं कैसे मैनेज कर पाउंगी? एक काम कर तू ये कुछ पैसे रख और अपना इलाज करा. मैं किसी और को ढूंढ लेती हूँ."

भीमा कुछ न बोली. क्या कहती. हाथ जोड़े और पैसे ले लिए. मैडम जी चली गयीं. भीमा ने पैसे गिने... पूरे पच्चीस हज़ार. भीमा ने पैसे एक डब्बे में छुपा लिए.

दिन बीतते गए और वो दिन भी आया जब मैडम जी को दिल्ली जाना था. एक महीने बाद दिल्ली से ही उनको अमेरिका निकलना था. भीमा सुबह से उठ कर तैयार होने लगी. बुधिया भी सुबह से अनमना था. डपटते हुए पूछा - "कहाँ जा रही है ऐसी हालत में?"

"मैडम जी से आख़िरी बार मिल आऊँ"

"क्या करेगी मिल के? उन्होंने तो वैसे भी मना कर दिया. अब क्या वहाँ जा के आरती उतारेगी उनकी?"

भीमा ने बुधिया की बात अनसुनी कर मिन्जुरा को तैयार करने में लगी रही. फिर उसने डिब्बा खोला और पैसे अपने आँचल में छुपा लिए.

भीमा जब मैडम जी के घर पहुँची तो बाहर टैक्सी खड़ी थी. भीमा मैडम जी के आगे हाथ जोड़ के घुटने के बल बैठ गयी.

"क्या बात है भीमा? ये क्या कर रही है?"

"मैडम जी! मिन्जुरा को अपने साथ ले जाओ. इसकी ज़िंदगी बन जाएगी. यहाँ रहेगी तो मेरी ही तरह झाड़ू-पोछा करती रह जायेगी."

"ऐसे कैसे होगा भीमा? ऐसे थोड़े होता है?

"मैं आपके हाथ जोडती हूँ. मेरी बीमारी की सज़ा मेरी बेटी को ना दो. ये पैसे भी ले लो. इससे इसका खाता खुलवा देना."


****



बुधिया बीडी बुझा के अन्दर आ गया. पलंग पर भीमा फिर से नींद के आगोश में जा चुकी थी. उसके एक हाथ में एक रूमाल था और दूसरा हाथ एक प्लास्टिक की गुडिया के ऊपर जिसे वो नींद में कभी-कभी थपकी दे देती थी. 

Wednesday, March 30, 2016

ओडीसी (Offshore Development Center)


"तू जूस लेगी?", जसप्रीत ने जूस काउंटर से खड़े-खड़े चिल्ला कर पूछा.

"नहीं रे. आज रूम पे ही ठूस ठूस के खा लिया था", तनूजा अपनी कुर्सी से उठकर जसप्रीत की तरफ बढ़ती हुई बोली. "नेहा की मम्मी आयीं है न. सुबह से उठ गयीं. पराठे-शराठे. आलू की सब्जी... दही... तो उसके चक्कर में अपना भी दांव लग गया."

"नेहा छुट्टी पे है?"

"हाँ"

"और जोशी?"

"तुझे क्या लगता है? आंटी को छोड़ के आएगा? और नेहा आने देगी?", तनूजा आँख मटकाते हुए बोली. जवाब में जसप्रीत मुस्कुरा दी. जूस काउंटर से जूस ले के दोनों चल पडीं अपने ओडीसी की तरफ. तनूजा और जसप्रीत दोनों ने अभी हाल ही में सत्यम कम्प्यूटर्स जॉइन किया था. जहां तनूजा एक मराठी परिवार से थी, वहीं जसप्रीत एक सिखणी थी चंडीगढ़ से. दोनों अपने-अपने इंजीनियरिंग कॉलेज से कैंपस सिलेक्शन के ज़रिये बंगलौर पहुंचे थे. एक साथ ट्रेनिंग हुई. इस दौरान घनिष्टता भी बढ़ गयी.

तनूजा नेहा के साथ रूम शेयर करती थी. नेहा उसकी नागपुर इंजीनियरिंग कॉलेज की क्लास-मेट थी. दोनों इंजीनियरिंग के पहले साल से ही रूम मेट थे. दोस्ती भी बहुत पक्की थी. साथ में पुटाला तालाब पे टहलने जाना, कामत, हल्दीराम, पराठा शॉप, में खाना. साथ में मूवी देखना... शॉपिंग. साथ में कंप्यूटर लैब... लाइब्रेरी... कैंटीन... प्रशासनिक भवन. जहाँ भी होतीं थीं दोनों साथ होतीं थीं. लेकिन क्या ज़िंदगी इतनी सुलझी और सपाट हो सकती है?

दूसरे साल में एक नया एडमिशन. जोशी. नागपुर के ही पोलिटेक्निक कॉलेज का पास आउट. वैसे उसका पूरा नाम निशांत जोशी था लेकिन सब उसे जोशी ही बुलाते थे. कंप्यूटर प्रोग्रामिंग का मास्टर. पोलिटेक्निक के शुरुआती दिनों से ही उसे प्रोग्रामिंग का एक नशा-सा हो गया था. जब उसके बैच के बाकी लड़के ग्राउंड में क्रिकेट खेलते तो वो कोई पुरानी सी कंप्यूटर की मैगजीन लिए डिबगिंग क्विज सॉल्व करने में लगा रहता. रात में जब कंप्यूटर में पोर्न फिल्में चलनी बंद होतीं और लड़के अपने-अपने पलंग की तरफ चल पड़ते, तब जोशी कंप्यूटर पर बैठता कोड लिखने. कीबोर्ड की खटर खुटुर सुबह तीन, साढ़े तीन या चार बजे तक चलती रहती. उसने मशीनों को खोलने-कसने की एक किट भी खरीद ली. धीरे-धीरे हॉस्टल में किसी का भी कंप्यूटर खराब होता तो पहले वह जोशी के पास ही आता, उसके बाद ही किसी सर्विस सेंटर पर जाता. लेकिन ज़्यादातर को इसकी ज़रुरत नहीं ही पड़ती.
अपने इस नए कॉलेज में भी एडमिशन के कुछ ही दिन में वह काफी मशहूर हो गया. नेहा और तनूजा की भी प्रोग्रामिंग में रूचि थी. कंप्यूटर लैब में अक्सर ही जोशी उनकी मदद करने लगा. धीरे-धीरे उनकी चर्चाएँ लम्बी खिंचने लगीं. धीरे-धीरे चर्चाओं ने रुख भी मोड़ना शुरू कर दिया. पहले तो चर्चाएँ लैब से बाहर आयीं और फिर ग्राउंड में, पुटाला तालाब के किनारे, फिर कामत, हल्दीराम, पराठा शॉप से होती हुई मूवी थिएटर तक पहुँच गयीं. ज़िंदगी आखिर कब तक सुलझी बनी रहती. कुछ बल तो पड़ने ही थे और एक दिन आया जब वे बल तनूजा के माथे की भवों के बीच सिलवटों की शक्ल में नमूदार हुए.

उस दिन फिफ्थ सेमेस्टर का आखिरी पेपर था. एग्जाम हॉल से जोशी और नेहा पहले निकल आये थे. तनूजा बाद में बाहर निकली. जब निकली तो बाहर न तो जोशी दिखा और न ही नेहा. रूम पर पहुँची तो नेहा रूम पर भी नहीं थी. उसे लगा कि ये लोग चले कहाँ गए? नेहा को कॉल किया पर घंटी वहीं तकिये के नीचे से सुनाई दी. एग्जाम हॉल में मोबाइल ले जाना मना होता था तो नेहा वहीं रूम पर ही छोड़ कर गयी थी. लेकिन इसका मतलब ये हुआ कि पेपर के बाद नेहा रूम पर आयी ही नहीं. उसने जोशी का भी नंबर लगाया पर कोई फ़ायदा नहीं. तनूजा के पेट में कुछ ऐंठन सी उठने लगी. वो रूम से वापस कॉलेज पहुँच गयी. ग्राउंड, लैब, लाइब्रेरी सब जगह ढूँढा पर दोनों कहीं नहीं दिखे. उसे मितली-सी आने लगी. वो वापस अपने रूम आ गयी और नेहा का इंतज़ार करने लगी. रात के 8 बजे नेहा आयी. तनूजा तब तक इंतज़ार करते करते सो चुकी थी.

"तनूजा! तनूजा! तनूजा!", नेहा जोर जोर से झकझोरते हुए उसे उठाने लगी.

तनूजा नेहा की आँखों की खुशी देखकर सहमती जा रही थी पर होंठों पर मुस्कान लाते हुए बोली - "कहाँ थी सुबह से? फ़ोन भी यहीं छोड़ के चली गयी थी."

नेहा बिना बात पर गौर करते हुए चहकी - "तनूजा! तनूजा! गेस व्हाट?", और बोलते-बोलते तनूजा के पेट पर दोनों बाजू पैर डाल कर बैठ गयी. अब तक तनूजा समझ चुकी थी की जो वो सोच रही है वही बात है.

कई बार हमारी भावनाएं हमें धोखा दे देतीं हैं. जिस वक़्त जैसे भावों की उम्मीद होती है, वैसे कई बार नहीं उमड़ कर आते. हम लोग शायद खुद भी किसी हॉस्टल की मानिंद होते हैं. भावनाओं के किसी चलते-फिरते हॉस्टल की मानिंद. जिसमें अलग-अलग कमरे अलॉट हों अलग-अलग भावनाओं को. किसी कमरे में कभी कोई भाव हो तो किसी दूसरे कमरे में कभी ताला भी डला हो. कई बार दो अलग-अलग भाव अलग-अलग कमरों से बाहर आकर कॉमन रूम में टीवी के सामने या खाने की मेज पर बैठकर चउरा भी करने लगें. और अंततः ये क्रॉस-प्रोडक्ट हमें ही चकमा दे दें. कहाँ तो तनूजा पूरी दोपहर दुखी हुए जा रही थी, वहीं अब नेहा की आँखें में खुशी देखकर भीतर के किसी कमरे में शायद खुश भी हो रही थी. उसकी खुशी नकली नहीं थी, पर दुःख भी तो नकली नहीं था. अपनी दोस्त को गले लगाती हुई पूछी - "उसने कि तूने?"

"उसने", नेहा ने कहा था.

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ओ डी सी पहुँच कर तनूजा और जसप्रीत ने सबसे पहले अपनी टाइम-शीट सबमिट की. उसके बाद वहीं बैठ कर गप्पें शुरू हो गयीं. ज़्यादातर फ्रेशर्स अभी खाली ही बैठे थे या यूं कहें कि उन्हें अभी कोई प्रोजेक्ट मिला ही नहीं था. ऐसे लोगों को आम भाषा में बेंच कहा जाता था. वहीं भारी-भरकम कॉर्पोरेट भाषा में इन्हें अनअलोकेटेड रिसोर्स पूल कहा जाता. कुल मिला कर इन लोगों के पास समय की बहुत अधिकता थी. जो ओडीसी भी मिला था वो अमेरिका के एक बैंक का काम देखता था. मंदी के चलते बैंक डूब गया था और अब उस ओडीसी में अनअलोकेटेड रिसोर्स पूल बैठा करता था. दिन भर हंसी मजाक और ऑनलाइन कंप्यूटर गेम्स में बीतता था. जसप्रीत इस गेम की चैंपियन थी. कई बार उसके रिकार्ड्स टूटे भी, पर रिकार्ड्स टूटने को वो प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेती और नया हाई स्कोर सेट करने का जैसे उसे एक अघोषित प्रोजेक्ट मिल जाता. खैर, इस समय उसका स्कोर ही सबसे ज्यादा था. कई लोग लगे थे उसका रिकॉर्ड ब्रेक करने में, पर जसप्रीत आराम से गप्पों में व्यस्त थी.

"नेहा-जोशी का भी सही है न! उसने कितनी आसानी से अपनी मम्मी को बता दिया और उसकी मम्मी भी तैयार हो गयीं! और तो और पापा भी एक ही बार में तैयार हो गए! नहीं!", इतना कहकर जसप्रीत अपना जूस स्ट्रॉ से खींचने में लग गयी.

"अरे, बात जितनी सीधी दिखती है उतनी है नहीं", तनूजा ने अपने चश्मा रुमाल से पोंछते हुए कहा.

"क्यों?"

"इसके पापा की इसकी मम्मी से शादी थोड़ी हुई है. ये लोग बस साथ रहते भर हैं. इसके पापा की पहले ही एक पत्नी और एक लडकी है."

"फिर? उससे तलाक ले के इनसे शादी कर लेते!"

"इतना आसान हो जैसे"

"क्यों?"

"इसके पापा नागपुर के सबसे बड़े रईसों में हैं. कोई औरत क्या ऐसे ही छोड़ देगी? उसने तो बोल दिया की तलाक तो मैं ना दूंगी, तुमको उसके साथ रहना हो तो रहो."

"फिर?"

"अरे, कोई औरत क्या ऐसे ही अपना परिवार छोड़ देगी? उसकी बेटी का पूरा भविष्य है उसके सामने. एकलौती बेटी है. पति के बाद सब कुछ उसी का तो है. तलाक दे देती तो बाद में बेटी को तो कुछ न मिलता. फिर क्या! उसने तो बोल दिया की मैं न दे रही तलाक. तुम्हें रहना हो तो उसी के साथ रह लो लेकिन कागज़ पर तो मैं ही बीवी रहूंगी."

"तब तो नेहा और उसकी मम्मी के लिए बहुत मुश्किल हो गयी होगी?"

"देखो! अब आप दूसरे की ज़िंदगी में टांग अडाओगे, तो कर्मा भी तो कोई चीज़ है न! मुझे तो खुद बहुत बाद में पता चला. जब से पता चला मेरी तो नज़रों से ही उतर गयीं दोनों माँ-बेटी."

"अरे अब उसमें नेहा क्या करें? उसकी तो कोई गलती नहीं है"

"मैं मानती हूँ कि उसकी कोई गलती नहीं. पर बार-बार अपने बड़े-बड़े शौक के लिए फरमाइशें करना भी ठीक है क्या? कोई अच्छा मोबाइल देखा तुरंत पापा को फ़ोन कर दिया - 'पापा! इतने पैसे डाल दो.' कोई महंगी ज्वेलरी पसंद आयी फिर फोन कर दिया - 'पापा! इतने और डाल दो." अरे! ये कोई बात होती है? और इसकी मम्मी भी इसे नहीं रोकतीं."

जसप्रीत को अब भी लगता था कि इसमें नेहा की कोई गलती नहीं. उसने तो पैदा होते ही जिसे अपने पास देखा वही तो उसका पिता है और बेटी पिता से न मांगे तो किस्से मांगे! उन दोनों का रिश्ता शायद इन कागज़ी दावेदारियों से ऊपर हो. लेकिन उसने कुछ कहा नहीं.

तनूजा अपनी बात जारी रखते हुए बोली - "पता नहीं लोग ऐसी ज़िंदगी चुन कैसे लेते हैं. दूसरों का सुख-चैन छीनकर पता नहीं इन्हें नींद कैसे आ जाती है. मैं होऊँ तो बोल दूं ऐसे आदमी से कि 'भाई! क्यों अपनी सुख-चैन की ज़िंदगी में खुद आग लगा रहा है? जा अपनी बीवी-बच्चों के पास वापस जा. मैं तो कहती हूँ कि चलो उन लोगों का तलाक नहीं हुआ. लेकिन अगर तलाक हो भी जाता और इनकी शादी भी हो जाती तो भी क्या किसी दुखते दिल की हाय न लगती?"

तभी सामने से झूमते हुए शिखा आयी. "मुबारक हो तनूजा!"

"किस बात की मुबारक रे!"

"अरे जर्मनी जाने की. और किस बात की?"

"कौन जा रहा जर्मनी?"

"ये लो! इन्हें कुछ पता ही नहीं! सात लोगों को गूगल मैप के प्रोजेक्ट के लिए जर्मनी जाना है हम लोगों के बैच से. तुमने चिन्मय की मेल नहीं देखी?"

"नहीं तो. हम लोग अपनी बातों में मगन थे. रुक! अभी आउटलुक चेक करती हूँ"

तनूजा अपनी मेल पढ़ती करती जा रही थी. सात लोगों को गूगल मैप के एक मोड्यूल पर काम करने के लिए एक साल के लिए जर्मनी जाना है. तनूजा लिस्ट में अपना नाम चेक कर रही थी.

1. शिखा नेरूरकर

2. रजनीश खेवरिया

3. तनूजा पंधेकर

4. आशीष तिवारी

5. सेंथिल टी.एन.

6. निशांत जोशी

7. रेणुका चंदेल


तीसरे नाम तक आते-आते उसके होठों पर मुस्कराहट उभरने लगी थी. छटवें नाम तक आते-आते उसके पेट में ऐंठन उठने लगी थी और उसे लगा था कि जैसे उसे मितली आ रही है.