Sunday, August 28, 2016

किताबें सितंबर की

अगस्त के लिए चार किताबों का लक्ष्य था और ये किताबें सोचीं थीं:
1. Metamorphosis (फ्रैंज काफ्का)
2. गुनाहों का देवता (धर्मवीर भारती)
3. मेरे मंच की सरगम (पीयूष मिश्रा)
4. Home and the World (रबिन्द्रनाथ टैगोर)

इनमें से 'मेरे मंच की सरगम' और 'Home and the World' की delivery ही नहीं हो पाई। इसलिए इन दो किताबों की जगह ली ट्विंकल खन्ना की 'मिसेज़ फनीबोन्स' और जीनेट वॉल्स की 'द ग्लास कैसल' ने। अभी 'द ग्लास कैसल' पढ़ रहा हूँ और जल्द ही अनुभव साझा करूंगा। 

सितंबर का टार्गेट भी चार किताबों का है और जो किताबें चुनी हैं वे हैं:

1. Home and the World (रबिन्द्रनाथ टैगोर)


2. मेरे मंच की सरगम (पीयूष मिश्रा)


3. मधुशाला (हरिवंश राय 'बच्चन')


4. ब-बाय (कृष्ण बिहारी)


Saturday, August 20, 2016

गुनाहों का देवता


अगस्त महीने की तीसरी किताब थी - गुनाहों का देवता। किताब के लेखक हैं धर्मवीर भारती। बहुत कुछ सुना था इस किताब के बारे में। इस किताब को मेरे जान-पहचान के बहुत लोगों ने recommend भी किया था। ये हिन्दी रोमैंटिक उपन्यासों में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय उपन्यासों में एक है। इसके कई भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं, सौ से ज़्यादा संस्करण निकल चुके हैं और आज भी युवा वर्ग में हिन्दी प्रशंसकों की ये पसंदीदा किताबों में एक है। इस उपन्यास में प्रेम का एक बलिदानी रूप लेखक ने खींचा है और वो कितना सही, कितना गलत है इसे open-ended रख छोड़ा है। ख़ैर, इस उपन्यास के इतने लोकप्रिय होने के बारे में अलग-अलग लोगों की अलग-अलग राय है।

इस उपन्यास का पहला संस्करण 1949 में छपा था। तब देश का माहौल कुछ दूसरा था। उस समय की जो युवा पीढ़ी थी उसके चारों तरफ त्याग, बलिदान और आदर्श के लिए प्रेरणास्रोत बने क्रांतिकारी थे। उसी समय नई-नई आज़ादी मिली थी। दूसरे विश्वयुद्ध के ख़त्म होने और हिटलर के पतन के बाद जो दुनिया एक नए शीत-युद्ध की तरफ बढ़ रही थी वो दो धड़ों में बंट चुकी थी। एक तरफ अमरीका का घोर पूंजीवाद था जो ताज़ा-ताज़ा हिरोशिमा-नागासाकी पर बम गिरा चुका था और दूसरी तरफ था समाजवाद। भारत ने हाल ही में 200 साल के क्रोनी कैपिटलिज़्म से मुक्ति पाई थी। ऐसे में समाजवाद एक नैचुरल रोमांटिक थॉट था। भारत के शीर्ष नेता नेहरू, जो दुनिया के बड़े डेमोक्रैट्स में गिने जाते थे, खुद समाजवादी थे। भारती का ये उपन्यास ऐसे ही दौर में युवा पीढ़ी के भीतर का द्वंद्व है जिसे एक प्रेम कहानी की शक्ल में खींचा गया है। 

कोई इंसान अपने कर्मों से महान बनता है लेकिन यदि कर्मों का प्रयोजन ही सिर्फ महानता को प्राप्त कर लेना हो जाये तो परिभाषा का एक नया संकट पैदा हो जाता है। महानता की परिभाषा का। कहानी का मुख्य किरदार है चंदर जिसकी परवरिश इलाहाबाद के शुक्ला जी के घर में होती है जो शिक्षा विभाग में बड़े अधिकारी हैं। उनकी एक लड़की है सुधा। चंदर और सुधा में एक अनकहा प्रेम है। शुक्ला जी के चंदर के ऊपर बहुत अहसान हैं। एक दिन शुक्ला जी चंदर को बुलाते हैं और उसे अपनी नई किताब के बारे में बतलाते हैं। किताब में भारत की जाति व्यवस्था की पुरज़ोर पैरवी की गई है। चंदर और सुधा की जाति एक नहीं है। और एक समय आता है जब वो शुक्ला जी के अहसानों के लिए अपने प्यार को बलिदान कर देता है। त्याग और बलिदान के आदर्शों पर चलने वाले के लिए ये बात बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है कि त्याग और बलिदान का उद्देश्य क्या है। गांधी ने त्याग किया अंग्रेजों का मनोबल तोड़ने के लिए। भगत सिंह ने बलिदान दिया देश में आज़ादी के जज़्बे को जगाने के लिए। वो दौर जब नेहरू और अंबेडकर हिन्दू कोड बिल की तैयारी कर रहे थे, एक त्याग जिसके अंतस में जाति-व्यवस्था के लिए रजामंदी छुपी है। उस त्याग के ऊपर एक लेप लगाया गया शुक्ला जी के अहसानों का। फिर एक और कवर चढ़ाया गया प्लेटोनिक लव का जिसमें दैहिक संबंध के बिना अपने प्रेम का चरम रूप दो प्रेमी दिखाना चाहते हैं। और इस प्लाटोनिक लव के नाम पर नायक का खुद को देवता समझ लेना उसे अंत आते-आते तक गुनाहों का देवता बना देता है। लिखावट में बहुत पैनापन है। भारती कहानी में मेटाफोर गढ़ने और मेटाफोर में कहानी गढ़ने में उस्ताद नज़र आते हैं। आपको उनकी लिखावट को between the lines भी interpret करते चलना होता है। मसलन कई जगह फूलों का ज़िक्र है कि फूल सिर्फ पौधे में लगे रहें तो सुंदर हैं और अगर किसी ने उन्हें तोड़ के बालों में लगा लिया तो वो 'उपयोग' की श्रेणी में आ गया। प्यार और सेक्स के बीच संबंध क्या है? क्या शादी के पहले सेक्स करना पाप है? यथार्थ में घट रहे प्रेम को अनदेखा कर आदर्शवादी और आज्ञाकारी बने रहना इस उपन्यास के तमाम पात्रों की चारित्रिक विवशता नज़र आती है। अंत में सुधा को फूल तोड़ कर पूजा में चढ़ाते दिखाया गया है। उपन्यास में उस समय के शहरी मध्यम वर्ग की उदासीनता भी नज़र आती है। एक ऐसा मध्यम वर्ग जो आज़ादी के बाद एक आदर्श समाज की परिकल्पना तो करता है पर उसके सामाजिक जीवन में कोई बदलाव नहीं चाहता क्योंकि वो खुद जाति-व्यवस्था में कुछ ऊंचे पायदान पर है। शुक्ला जी उसी मध्यम वर्ग के प्रतीक हैं। एक ऐसा मध्यम वर्ग जो अपने गाँव को बहुत पहले छोड़ चुका है, अपनी जड़ों से कट चुका है और अब उन्हें सीमेंट, टाइल्स और कांक्रीट के नीचे तलाश कर रहा है। जब गाँव की एक लड़की जिसका नाम बिनती है चंदर से कहती है कि गाँव में तो शादी के पहले भी सेक्स हो जाता है और वहाँ पर ये इतना बड़ा मुद्दा नहीं है जितना आप लोगों ने इसे शहर में बना दिया है। शहरी मध्यम वर्ग के लिए ये outrageous है, क्योंकि उसकी जड़ें, जो दरअसल काल्पनिक हैं, वो तो ऐसी हो ही नहीं सकतीं। 

कुल मिला के एक बहुत बढ़िया उपन्यास है। एक ऐसा उपन्यास जो ख़त्म हो जाने के बाद आपके भीतर कहीं दोबारा शुरू होता है। 

इस उपन्यास को आप Amazon से खरीद सकते हैं।

Friday, August 12, 2016

मिसेज़ फनीबोन्स



अगस्त महीने की दूसरी किताब थी - "मिसेज़ फनीबोन्स"। किताब की लेखिका हैं ट्विंकल खन्ना। ट्विंकल खन्ना, जिन्हें ज़्यादातर लोग कई रूप में जानते हैं - राजेश खन्ना और डिंपल कपाड़िया की बेटी, अक्षय कुमार की बीवी और एक फ्लॉप एक्ट्रेस। लेकिन इनके अलावा इनकी एक शख्सियत और है। ये बात अक्सर मध्यम वर्गीय लोगों में ईर्ष्या उपजाती है कि सम्पन्न वर्ग के पास अपने पसंदीदा करियर के तमाम विकल्प मौजूद हमेशा ही रहते हैं। अगर एक में असफल हो जाओ तो दूसरे में हाथ आजमाओ। ये बात किसी हद तक सही होते हुए भी प्रतिभा का पर्याय तो नहीं बन सकती। ट्विंकल खन्ना अपने एक्टिंग करियर में असफल होने के बाद इंटीरियर डिसाइनर बन गईं और उसके बाद टाइम्स ऑफ इंडिया में एक कॉलम भी लिखने लग गईं। आप भले ही राजेश खन्ना या अमिताभ बच्चन के वंशज हों पर यदि प्रतिभा नहीं है तो पब्लिक पसंद नहीं करेगी। आप भले ही बिना किसी अनुभव के अभिनेता या कॉलम्निस्ट या लेखक बन जाएँ पर आपको दर्शक या पाठक तभी पसंद करेंगे जब आपके अभिनय या आपकी लेखनी में दम होगा। इधर कई लेखक अपनी किताब सेल्फ-पब्लिश करवा रहे हैं पर जब तक पढ़ने वाले को आप बांध नहीं पाओगे, आपको पाठक मिल ही नहीं पाएंगे।

'मिसेज़ फनीबोन्स' एक दमदार किताब है। पूरी किताब में ट्विंकल खन्ना का सेंस ऑफ ह्यूमर बेहद शानदार लगा है। किताब के द्वारा वो एक ऐसी महिला के रूप में सामने आतीं हैं जिनका दिमाग बिलकुल सही जगह पर है। ट्विंकल की लिखावट पर मोनी मोहसीन की 'द डायरी ऑफ अ सोशल बटरफ्लाय' का असर स्पष्ट रूप से समझ आता है। लेकिन प्रेरणा लेने और कॉपी करने में अंतर होता है। ट्विंकल ने कई जगहों से प्रेरणा ली है लेकिन अपने मूल को उन प्रेरणाओं की सहाता से बेहतर ही बनाया है। प्रेरणा का मकसद भी दरअसल यही होता है। एक जगह तो menstruation पर उन्होनें लिखा है जिसकी भूमिका standup comedian अदिति मित्तल के इसी विषय पर बनाए गए एक जोक से ली है। वैसे भी बॉलीवुड वाले थोड़ा बहुत कॉपी कर भी लें तो पब्लिक उन्हें माफ कर देती है, और ट्विंकल ने तो फिर भी अपनी मौलिकता बरकरार रखी है।

बहुत पहले शफ़ी इनामदार और राकेश बेदी का एक कॉमेडी शो टीवी पर आया करता था - 'ये जो है ज़िंदगी' जिसमें ज़िंदगी की छोटी-छोटी घटनाओं पर observational कॉमेडी की जाती थी। जसपाल भट्टी का एक शो था 'फ्लॉप शो', वो भी observational humor पर ही आधारित था। हाल के कोमेडियन्स में राजू श्रीवास्तव और बिसवा कल्यान का बेहद शानदार observation है। ट्विंकल की शैली भी observational humor के ही इर्द-गिर्द घूमती है। जो घटनाएँ हमारे सभी के जीवन में घटती हैं उन छोटी-छोटी बातों को बहुत बढ़िया तरीके से उन्होनें लिखा है। एक जगह एक थर्मामीटर के बारे में लिखा है जो सिर्फ सेल्सियस में बुखार बताता था और तब उन्हें मिला विक्स कंपनी का एक डिजिटल थर्मामीटर जो उन्हें इतना पसंद आया कि लगा कि अब और किस किसका temperature ले लूँ? उन्होनें menstruation से ले कर मदर-इन-लॉं तक के बारे में लिखा है, वालेंटाइन डे से ले कर करवाचौथ तक के बारे में लिखा है। डोमेस्टिक हेल्प्स से ले कर पड़ोसियों के बारे में भी, pets से ले कर perverts के बारे में भी, अपने बच्चों के बारे में भी और उनके डाइपर्स के बारे में भी। ये सब ऐसी बातें हैं जो हम सभी की ज़िंदगियों में होती रहती हैं। ट्विंकल की सबसे अच्छी बात ये है कि वो खुद के ऊपर हंसने का माद्दा रखतीं हैं। अपने नाम के बारे में भी मज़ाक करतीं हैं और अपनी एक्टिंग के हुनर का खुद मज़ाक उड़ाती हैं। अपने एथीस्ट बिलीफ से लेकर अपने अरेस्ट वॉरेंट का भी मज़ाक बनातीं हैं। शुरुआत में भले किताब सोशल बटरफ्लाय से influenced लगती है लेकिन धीरे-धीरे ट्विंकल पढ़ने वाले को बांध पाने में न केवल सफल ही रहतीं हैं बल्कि ये एहसास करा पाने भी कि "अरे! ऐसा तो हमारे साथ भी होता है!!".

इन सब हंसी-मज़ाक के बीच कहीं-कहीं उन्होनें आधुनिक प्रगतिशील सोच के साथ थोड़ा-बहुत ज्ञान भी डाल दिया है जो कि किताब की चमक को और उम्दा करता है। एक घटना का ज़िक्र है जब वो जर्मनी के किसी शहर के अस्पताल जातीं हैं तो देखतीं हैं कि जो भी इलाज के लिए आया है, अकेला आया है। भारत में तो अगर कोई अस्पताल जाता है तो बहुत नहीं तो एक-आध बंदा तो साथ होता ही है। इस संदर्भ में लिखा है

Looking at these old people shuffling along by themselves, all I can say is: "We may have potholed roads but at least we have many people willing to travel with us on them".

किताब बहुत ज़बरदस्त है और पढ़ने लायक है। किताब को आप Amazon से खरीद सकते हैं

Monday, August 8, 2016

मेटामोर्फोसिस


किसी भी देश के द्वारा चुनी गई आर्थिक नीतियाँ केवल वहाँ के नागरिकों की सामाजिक और आर्थिक ज़िंदगियों पर ही असर नहीं डालतीं बल्कि उन ज़िंदगियों की पारिवारिक और नैतिक बुनियादें भी तय करतीं हैं। ग्रेगोर साम्सा नाम का एक आदमी एक दिन सुबह-सुबह नींद से जागता है और अपने आप को एक बहुत बड़े कीड़े में बदल चुका हुआ पाता है। कहानी जो शुरुआत में किसी साइन्स फिक्शन की तरह लगती है धीरे-धीरे एक पूंजीवादी देश के पारिवारिक मूल्यों पर चोट करती महागाथा में बदल जाती है। मेटामोर्फोसिस (Metamorphosis)। 1915 में फ्रांज़ काफ्का का जर्मन में लिखा एक लघु उपन्यास जो कि अपनी अनोखी लिखावट की वजह से एक कालजयी रचना बन चुका है। मेटमोर्फोसिस दरअसल एक बायलॉजिकल प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई कीड़ा या मछली अपनी शारीरिक रचना को बनाता है मसलन लार्वा से किसी कीड़े का बनना या कैटरपिलर से किसी तितली का।

अपने ही परिवार के बीच में कोई कैसे alienate हो सकता है! इस बुनियादी सवाल को केंद्र मानकर लेखक ने मुख्य किरदार को एक कीड़ा बना दिया। इस तरह लेखक ने न केवल उसे alienate ही किया बल्कि उसके alienation को अमूर्त्य (abstract) भी कर दिया। ये alienation किसी की विकलांगता की वजह से हो सकता है, लकवे की वजह से, दिमागी स्थिति की वजह से, या फिर बुढ़ापे की वजह से भी हो सकता है। ग्रेगोर एक ट्रैवल सेल्समैन है जिसकी कमाई से पूरा घर चलता है। धीरे-धीरे लोगों को उसकी कमाई की आदत लग जाती है। लोग उसे एक पारिवारिक इंसान की तरह न मानकर उसे एक ATM मशीन समझने लगते हैं। लेकिन वो खुश है। और उसकी खुशी शायद इस बात पर ज़्यादा टिकी है कि वो ज़्यादातर बाहर ही रहता है। कभी-कभार ही घर आता है तो वो इस बदलाव को कभी इतने गौर से नहीं समझ पाया। लेकिन ऐसा व्यक्ति यदि अब अपाहिज हो जाये तो क्या बाक़ी सदस्य उसकी ताउम्र देखभाल कर सकेंगे? और यदि कर भी सकेंगे तो क्या 'अपनेपन' से कर सकेंगे? ये कुछ मानवीय स्वभाव को कुरेदने वाले सवाल हैं।

जलगाँव में रहने वाले दिवाकर चौधरी के बड़े भाई की दिमागी स्थिति कुछ खराब हो गई और एक दिन उन्होनें अपने ही 8 साल के बेटे और अपनी बीवी की हत्या कर दी। बाद में कोर्ट ने उन्हें इलाज के लिए मानसिक चिकित्सालय भेज दिया। दिवाकर ने अपने भाई के साथ अपनी ज़िंदगी के अनुभव को 'स्कीत्ज़ोफ़्रेनिया' में बयान किया है जो कि मेटामोर्फोसिस की कहानी से एकदम उलट है और रिश्तों की गहराइयों का एहसास कराती है। स्कीत्ज़ोफ़्रेनिया की कहानी 1991 के आर्थिक सुधारों के पहले के एक गाँव की कहानी है जबकि मेटामोर्फोसिस प्रथम विश्वयुद्ध की तरफ बढ़ रहे यूरोप के एक पूंजीवादी देश की कहानी है। अभी हाल में अनुराग कश्यप की एक फिल्म आई थी 'Ugly' (अग्ली), जिसमें 2014 का मुंबई दिखाया गया है और एक बच्ची के किडनैप के बैकड्रॉप में जो कहानी बुनी है वो यही बताती है कि इंसान भीतर से इतना सड़ चुका हैं कि इंसानियत में अब फफूंद लग चुकी है। 'लगे रहो मुन्नाभाई' का एक दृश्य है जिसमें एक बूढ़ा पिता, जिसने ताउम्र मेहनत कर के अपने बेटे को पढ़ाया लिखाया, आज खुद उनकी ही दुनिया में फिट नहीं हो पा रहा। ठीक फ्रांज़ काफ्का के ग्रेगोर साम्सा की तरह।

इस लघु उपन्यास को आप Amazon से खरीद सकते हैं।