Saturday, July 12, 2014

वो इतवार नहीं आते



हर चन्द रोज़ों के बाद, अब इतवार नहीं आते 
आ भी गए जो गर भूले से, तो वैसे शानदार नहीं आते 

यूं तो अब भी भीग जाते हैं बारिश में कभी-कभी 
अंतस को जो तर कर छोड़े, वैसे बौछार नहीं आते 

दस पैसों में झोली भर के ख़ज़ाना कंपटों का 
ठसाठस भरे दड़बों में अब, नज़र वो बाज़ार नहीं आते 

जब से लड़के शहर गए, चाँद नोट कमाने को 
एकजुट हो खिलखिलाते, अब त्यौहार नहीं आते 

नए दोस्त आते हैं अब भी, हिक़ारत साझा करने को 
अपने कंचे मुफ्त में दे दें, यार वो दिलदार नहीं आते 

Friday, July 4, 2014

13 दिसम्बर - भारतीय संसद पर हमले का अजीबोग़रीब मामला


13 दिसम्बर - भारतीय संसद पर हमले का अजीबोग़रीब मामला। ये पुस्तक 2007 में लिखी गई थी लेकिन मैंने ये पुस्तक अभी हाल ही में पढ़ी। एक फिल्म भी है जो पिछले साल रिलीज़ हुई थी लेकिन मैंने अभी इस पुस्तक के पढ़ने के बाद ही देखी - "शाहिद"। एक समाचार भी है जो अभी हाल ही में सुनने में आया कि न्यायालय ने 26 नवंबर के दहशतगर्दाना हमलों के इल्ज़ाम में फहीम अंसारी और सबाह अलाउद्दीन को बाइज्जत बारी करने के बाद अक्षरधाम मंदिर के 6 मुस्लिम आरोपियों को भी रिहा कर दिया और साथ ही गुजरात के तात्कालीन गृहमंत्री को इस बाबत लताड़ भी लगाई।

ये तीनों ही स्रोत इस बात की ओर इशारा करते हैं की हिंदुस्तान में पुलिस, जांच और सुरक्षा एजेंसियों का जो रवैया है आतंकवाद के प्रति वो वाकई चिंताजनक है। जब भी कोई धमाका हो, हमला हो, बजाए इसके कि दोषी को सलाखों के पीछे किया जाये, अमूमन कोशिश ये होती है कि सबसे पहले तो ढेर सारे लोगों (मुसलमानों) को गिरफ्तार करो। कुछ को यातना दो थर्ड डिग्री और गुनाह कुबूल करवाओ। फिर सबूत प्लांट करो। गवाह तैयार करो। चार्जशीट तैयार करो।

पुस्तक 13 दिसम्बर जैसा कि मैंने बताया 2007 में लिखी गई थी लेकिन मैंने अभी पढ़ी है। इस पुस्तक में 13 लेख हैं और अफजल गुरु का एक इंटरव्यू भी है। ये पुस्तक इस बात पर प्रकाश डालती है कि किस तरह अफजल को इस मामले में अपना पक्ष रखने का मौका नहीं दिया गया। कोई वकील तक नहीं और सुनवाई ख़त्म। एसटीएफ़ का जम्मू कश्मीर के लोगों को आए दिन परेशान करने और पैसा वसूलने जैसी बातों का भी इस पुस्तक में जिक्र आता है। दिल्ली में अरबी के प्रोफेसर गिलानी की गिरफ्तारी के खिलाफ समाज के बुद्धिजीवियों का सामने आना और फिर श्री राम जेठमलानी जैसे विद्वान वकील का पैरवी के लिए तैयार होना और फिर अदालत द्वारा उन्हें बाइज्जत रिहा करना क्या बतलाता है?

यह पुस्तक अफजल की कहानी अफजल की जुबानी भी बताती है क्यूंकी उसका एक साक्षात्कार भी है। ये पुस्तक लोगों तक अफजल मामले की सच्चाई पहुंचाने के लिहाज़ से लिखी गई थी इस अपील के साथ कि लोग आगे आयें और अफजल को फांसी की सज़ा से बचाया जा सके। अब जब चूंकि अफजल को फांसी हो ही चुकी है ये पुस्तक बहुत अनोखा नज़रिया प्रदान करती है और उस नज़रिये से हम शाहिद और अक्षरधाम हमले के फैसले को देख सकते हैं। एक और नज़रिया जो मीडिया का होता है इस तरह के मामलों में उस पर भी प्रकाश डाला गया है। 256 पृष्ठों की ये पुस्तक पेंगुइन बुक्स द्वारा प्रकाशित है और इसका मूल्य 299 रूपये है। इसे आप Amazon से खरीद सकते हैं।


पुस्तक का एक अंश (साभार):
यह अफजल की दास्तान है जो हमें कश्मीर घाटी में जीवन के असली रूप की झलक दिखाती है। यह वह बालकथा नहीं है जो हम अपने अखबारों में पढ़ते हैं कि सुरक्षाबल उग्रवादियों से लड़ते हैं और निरपराध लोग क्रॉस-फायर में फंस जाते हैं। वयस्क कथाओं में कश्मीर घाटी उग्रवादियों, गद्दारों, सुरक्षा बलों, दोहरे अजेंटों, मुखबिरों, पिशाचों, ब्लैकमेल करने वालों, ब्लैकमेल हुए लोगों, जबरन वसूली करने वालों, भारत और पाकिस्तान के गुप्तचर एजेंसियों के जासूस, मानवाधिकार एक्टिविस्टों, गैर-सरकारी संगठनों और अकल्पनीय मात्रा में बेहिसाब पैसों और हथियारों से भरी हुई है। इन चीजों और लोगों को अलग करने वाली कोई स्पष्ट सीमाएं नहीं हैं, यह बताना मुश्किल है कि कौन किसके लिए काम कर रहा है।