"तू जूस लेगी?", जसप्रीत ने जूस काउंटर
से खड़े-खड़े चिल्ला कर पूछा.
"नहीं रे. आज रूम पे ही ठूस ठूस के खा लिया
था", तनूजा अपनी कुर्सी से उठकर जसप्रीत की तरफ बढ़ती हुई बोली. "नेहा की
मम्मी आयीं है न. सुबह से उठ गयीं. पराठे-शराठे. आलू की सब्जी... दही... तो उसके
चक्कर में अपना भी दांव लग गया."
"नेहा छुट्टी पे है?"
"हाँ"
"और जोशी?"
"तुझे क्या लगता है? आंटी को छोड़ के आएगा?
और नेहा आने देगी?", तनूजा आँख मटकाते हुए बोली. जवाब में जसप्रीत मुस्कुरा
दी. जूस काउंटर से जूस ले के दोनों चल पडीं अपने ओडीसी की तरफ. तनूजा और जसप्रीत
दोनों ने अभी हाल ही में सत्यम कम्प्यूटर्स जॉइन किया था. जहां तनूजा एक मराठी
परिवार से थी, वहीं जसप्रीत एक सिखणी थी चंडीगढ़ से. दोनों अपने-अपने इंजीनियरिंग
कॉलेज से कैंपस सिलेक्शन के ज़रिये बंगलौर पहुंचे थे. एक साथ ट्रेनिंग हुई. इस
दौरान घनिष्टता भी बढ़ गयी.
तनूजा नेहा के साथ रूम शेयर करती थी. नेहा उसकी
नागपुर इंजीनियरिंग कॉलेज की क्लास-मेट थी. दोनों इंजीनियरिंग के पहले साल से ही
रूम मेट थे. दोस्ती भी बहुत पक्की थी. साथ में पुटाला तालाब पे टहलने जाना, कामत,
हल्दीराम, पराठा शॉप, में खाना. साथ में मूवी देखना... शॉपिंग. साथ में कंप्यूटर
लैब... लाइब्रेरी... कैंटीन... प्रशासनिक भवन. जहाँ भी होतीं थीं दोनों साथ होतीं
थीं. लेकिन क्या ज़िंदगी इतनी सुलझी और सपाट हो सकती है?
दूसरे साल में एक नया एडमिशन. जोशी. नागपुर के ही
पोलिटेक्निक कॉलेज का पास आउट. वैसे उसका पूरा नाम निशांत जोशी था लेकिन सब उसे जोशी
ही बुलाते थे. कंप्यूटर प्रोग्रामिंग का मास्टर. पोलिटेक्निक के शुरुआती दिनों से
ही उसे प्रोग्रामिंग का एक नशा-सा हो गया था. जब उसके बैच के बाकी लड़के ग्राउंड
में क्रिकेट खेलते तो वो कोई पुरानी सी कंप्यूटर की मैगजीन लिए डिबगिंग क्विज
सॉल्व करने में लगा रहता. रात में जब कंप्यूटर में पोर्न फिल्में चलनी बंद होतीं
और लड़के अपने-अपने पलंग की तरफ चल पड़ते, तब जोशी कंप्यूटर पर बैठता कोड लिखने.
कीबोर्ड की खटर खुटुर सुबह तीन, साढ़े तीन या चार बजे तक चलती रहती. उसने मशीनों को
खोलने-कसने की एक किट भी खरीद ली. धीरे-धीरे हॉस्टल में किसी का भी कंप्यूटर खराब
होता तो पहले वह जोशी के पास ही आता, उसके बाद ही किसी सर्विस सेंटर पर जाता.
लेकिन ज़्यादातर को इसकी ज़रुरत नहीं ही पड़ती.
अपने इस नए कॉलेज में भी एडमिशन के कुछ ही दिन
में वह काफी मशहूर हो गया. नेहा और तनूजा की भी प्रोग्रामिंग में रूचि थी.
कंप्यूटर लैब में अक्सर ही जोशी उनकी मदद करने लगा. धीरे-धीरे उनकी चर्चाएँ लम्बी
खिंचने लगीं. धीरे-धीरे चर्चाओं ने रुख भी मोड़ना शुरू कर दिया. पहले तो चर्चाएँ
लैब से बाहर आयीं और फिर ग्राउंड में, पुटाला तालाब के किनारे, फिर कामत,
हल्दीराम, पराठा शॉप से होती हुई मूवी थिएटर तक पहुँच गयीं. ज़िंदगी आखिर कब तक
सुलझी बनी रहती. कुछ बल तो पड़ने ही थे और एक दिन आया जब वे बल तनूजा के माथे की
भवों के बीच सिलवटों की शक्ल में नमूदार हुए.
उस दिन फिफ्थ सेमेस्टर का आखिरी पेपर था. एग्जाम
हॉल से जोशी और नेहा पहले निकल आये थे. तनूजा बाद में बाहर निकली. जब निकली तो बाहर
न तो जोशी दिखा और न ही नेहा. रूम पर पहुँची तो नेहा रूम पर भी नहीं थी. उसे लगा कि
ये लोग चले कहाँ गए? नेहा को कॉल किया पर घंटी वहीं तकिये के नीचे से सुनाई दी.
एग्जाम हॉल में मोबाइल ले जाना मना होता था तो नेहा वहीं रूम पर ही छोड़ कर गयी थी.
लेकिन इसका मतलब ये हुआ कि पेपर के बाद नेहा रूम पर आयी ही नहीं. उसने जोशी का भी
नंबर लगाया पर कोई फ़ायदा नहीं. तनूजा के पेट में कुछ ऐंठन सी उठने लगी. वो रूम से
वापस कॉलेज पहुँच गयी. ग्राउंड, लैब, लाइब्रेरी सब जगह ढूँढा पर दोनों कहीं नहीं
दिखे. उसे मितली-सी आने लगी. वो वापस अपने रूम आ गयी और नेहा का इंतज़ार करने लगी.
रात के 8 बजे नेहा आयी. तनूजा तब तक इंतज़ार करते करते सो चुकी थी.
"तनूजा! तनूजा! तनूजा!", नेहा जोर जोर
से झकझोरते हुए उसे उठाने लगी.
तनूजा नेहा की आँखों की खुशी देखकर सहमती जा रही
थी पर होंठों पर मुस्कान लाते हुए बोली - "कहाँ थी सुबह से? फ़ोन भी यहीं छोड़
के चली गयी थी."
नेहा बिना बात पर गौर करते हुए चहकी - "तनूजा!
तनूजा! गेस व्हाट?", और बोलते-बोलते तनूजा के पेट पर दोनों बाजू पैर डाल कर
बैठ गयी. अब तक तनूजा समझ चुकी थी की जो वो सोच रही है वही बात है.
कई बार हमारी भावनाएं हमें धोखा दे देतीं हैं.
जिस वक़्त जैसे भावों की उम्मीद होती है, वैसे कई बार नहीं उमड़ कर आते. हम लोग शायद
खुद भी किसी हॉस्टल की मानिंद होते हैं. भावनाओं के किसी चलते-फिरते हॉस्टल की
मानिंद. जिसमें अलग-अलग कमरे अलॉट हों अलग-अलग भावनाओं को. किसी कमरे में कभी कोई
भाव हो तो किसी दूसरे कमरे में कभी ताला भी डला हो. कई बार दो अलग-अलग भाव अलग-अलग
कमरों से बाहर आकर कॉमन रूम में टीवी के सामने या खाने की मेज पर बैठकर चउरा भी
करने लगें. और अंततः ये क्रॉस-प्रोडक्ट हमें ही चकमा दे दें. कहाँ तो तनूजा पूरी
दोपहर दुखी हुए जा रही थी, वहीं अब नेहा की आँखें में खुशी देखकर भीतर के किसी कमरे
में शायद खुश भी हो रही थी. उसकी खुशी नकली नहीं थी, पर दुःख भी तो नकली नहीं था. अपनी
दोस्त को गले लगाती हुई पूछी - "उसने कि तूने?"
"उसने", नेहा ने कहा था.
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ओ डी सी पहुँच कर तनूजा और जसप्रीत ने सबसे पहले
अपनी टाइम-शीट सबमिट की. उसके बाद वहीं बैठ कर गप्पें शुरू हो गयीं. ज़्यादातर
फ्रेशर्स अभी खाली ही बैठे थे या यूं कहें कि उन्हें अभी कोई प्रोजेक्ट मिला ही
नहीं था. ऐसे लोगों को आम भाषा में बेंच कहा जाता था. वहीं भारी-भरकम कॉर्पोरेट
भाषा में इन्हें अनअलोकेटेड रिसोर्स पूल कहा जाता. कुल मिला कर इन लोगों के पास
समय की बहुत अधिकता थी. जो ओडीसी भी मिला था वो अमेरिका के एक बैंक का काम देखता
था. मंदी के चलते बैंक डूब गया था और अब उस ओडीसी में अनअलोकेटेड रिसोर्स पूल बैठा
करता था. दिन भर हंसी मजाक और ऑनलाइन कंप्यूटर गेम्स में बीतता था. जसप्रीत इस गेम
की चैंपियन थी. कई बार उसके रिकार्ड्स टूटे भी, पर रिकार्ड्स टूटने को वो
प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेती और नया हाई स्कोर सेट करने का जैसे उसे एक अघोषित
प्रोजेक्ट मिल जाता. खैर, इस समय उसका स्कोर ही सबसे ज्यादा था. कई लोग लगे थे
उसका रिकॉर्ड ब्रेक करने में, पर जसप्रीत आराम से गप्पों में व्यस्त थी.
"नेहा-जोशी का भी सही है न! उसने कितनी
आसानी से अपनी मम्मी को बता दिया और उसकी मम्मी भी तैयार हो गयीं! और तो और पापा
भी एक ही बार में तैयार हो गए! नहीं!", इतना कहकर जसप्रीत अपना जूस स्ट्रॉ से
खींचने में लग गयी.
"अरे, बात जितनी सीधी दिखती है उतनी है
नहीं", तनूजा ने अपने चश्मा रुमाल से पोंछते हुए कहा.
"क्यों?"
"इसके पापा की इसकी मम्मी से शादी थोड़ी हुई
है. ये लोग बस साथ रहते भर हैं. इसके पापा की पहले ही एक पत्नी और एक लडकी
है."
"फिर? उससे तलाक ले के इनसे शादी कर
लेते!"
"इतना आसान हो जैसे"
"क्यों?"
"इसके पापा नागपुर के सबसे बड़े रईसों में
हैं. कोई औरत क्या ऐसे ही छोड़ देगी? उसने तो बोल दिया की तलाक तो मैं ना दूंगी,
तुमको उसके साथ रहना हो तो रहो."
"फिर?"
"अरे, कोई औरत क्या ऐसे ही अपना परिवार छोड़
देगी? उसकी बेटी का पूरा भविष्य है उसके सामने. एकलौती बेटी है. पति के बाद सब कुछ
उसी का तो है. तलाक दे देती तो बाद में बेटी को तो कुछ न मिलता. फिर क्या! उसने तो
बोल दिया की मैं न दे रही तलाक. तुम्हें रहना हो तो उसी के साथ रह लो लेकिन कागज़
पर तो मैं ही बीवी रहूंगी."
"तब तो नेहा और उसकी मम्मी के लिए बहुत
मुश्किल हो गयी होगी?"
"देखो! अब आप दूसरे की ज़िंदगी में टांग
अडाओगे, तो कर्मा भी तो कोई चीज़ है न! मुझे तो खुद बहुत बाद में पता चला. जब से
पता चला मेरी तो नज़रों से ही उतर गयीं दोनों माँ-बेटी."
"अरे अब उसमें नेहा क्या करें? उसकी तो कोई
गलती नहीं है"
"मैं मानती हूँ कि उसकी कोई गलती नहीं. पर
बार-बार अपने बड़े-बड़े शौक के लिए फरमाइशें करना भी ठीक है क्या? कोई अच्छा मोबाइल
देखा तुरंत पापा को फ़ोन कर दिया - 'पापा! इतने पैसे डाल दो.' कोई महंगी ज्वेलरी
पसंद आयी फिर फोन कर दिया - 'पापा! इतने और डाल दो." अरे! ये कोई बात होती
है? और इसकी मम्मी भी इसे नहीं रोकतीं."
जसप्रीत को अब भी लगता था कि इसमें नेहा की कोई
गलती नहीं. उसने तो पैदा होते ही जिसे अपने पास देखा वही तो उसका पिता है और बेटी
पिता से न मांगे तो किस्से मांगे! उन दोनों का रिश्ता शायद इन कागज़ी दावेदारियों
से ऊपर हो. लेकिन उसने कुछ कहा नहीं.
तनूजा अपनी बात जारी रखते हुए बोली - "पता
नहीं लोग ऐसी ज़िंदगी चुन कैसे लेते हैं. दूसरों का सुख-चैन छीनकर पता नहीं इन्हें
नींद कैसे आ जाती है. मैं होऊँ तो बोल दूं ऐसे आदमी से कि 'भाई! क्यों अपनी
सुख-चैन की ज़िंदगी में खुद आग लगा रहा है? जा अपनी बीवी-बच्चों के पास वापस जा.
मैं तो कहती हूँ कि चलो उन लोगों का तलाक नहीं हुआ. लेकिन अगर तलाक हो भी जाता और
इनकी शादी भी हो जाती तो भी क्या किसी दुखते दिल की हाय न लगती?"
तभी सामने से झूमते हुए शिखा आयी. "मुबारक
हो तनूजा!"
"किस बात की मुबारक रे!"
"अरे जर्मनी जाने की. और किस बात की?"
"कौन जा रहा जर्मनी?"
"ये लो! इन्हें कुछ पता ही नहीं! सात लोगों
को गूगल मैप के प्रोजेक्ट के लिए जर्मनी जाना है हम लोगों के बैच से. तुमने चिन्मय
की मेल नहीं देखी?"
"नहीं तो. हम लोग अपनी बातों में मगन थे.
रुक! अभी आउटलुक चेक करती हूँ"
तनूजा अपनी मेल पढ़ती करती जा रही थी. सात लोगों
को गूगल मैप के एक मोड्यूल पर काम करने के लिए एक साल के लिए जर्मनी जाना है. तनूजा
लिस्ट में अपना नाम चेक कर रही थी.
1. शिखा नेरूरकर
2. रजनीश खेवरिया
3. तनूजा पंधेकर
4. आशीष तिवारी
5. सेंथिल टी.एन.
6. निशांत जोशी
7. रेणुका चंदेल
तीसरे नाम तक आते-आते उसके होठों पर मुस्कराहट
उभरने लगी थी. छटवें नाम तक आते-आते उसके पेट में ऐंठन उठने लगी थी और उसे लगा था कि
जैसे उसे मितली आ रही है.
nice story with real emotions
ReplyDeleteThanks Asheesh
DeleteInteresting read! Offshore development center services not only enhance scalability and cost efficiency but also ensure seamless team integration—perfect for achieving long-term operational goals with a global edge!
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