धड़! धड़! धड़! धड़!
ज़ोर से दरवाज़ा पटकने की आवाज़
हुई. 102 डिग्री बुखार में तपता नीलेश अकेला भीतर कंबल में घुसा लेटा था. रात के कोई
साढ़े बारह बज रहे होंगे. बत्ती भी गुल थी. बाहर मॉनसून की झड़ी लगी थी. तीन दिन से बादल
थमने का नाम नहीं लेते थे. रूममेट भी घर गया था.
धड़! धड़! धड़! धड़!
"कौन है?"
"पंकज! पीयूष का दोस्त!"
"वो तो घर गया है."
"तुम रूममेट हो उसके?"
"हाँ"
"थोड़ी देर के लिए अंदर आने दो
यार. बहुत बारिश है बाहर."
"इतनी रात में कहाँ से
कौन आ गया." - बड़बड़ाता हुआ नीलेश अपने कंबल से निकला. हाथ से सिरहाने रखा मोबाइल
टटोला और टॉर्च ऑन की.
"थोड़ी देर के लिए बस आ
जाने दो"
"हाँ यार! रुको तो! आ
रहा हूँ!
आहिस्ते-आहिस्ते कदम बढ़ाते
हुए दरवाज़े के नजदीक पहुंचा.
"आओ अंदर" - कहते
हुए उसने कुंडी खोल दी. दरवाज़ा खुलते ही छत पर डली तिरपाल की तड़तड़ाहट अंदर आई,
उसके पीछे फुहारों को समेटे एक झोंका भी भीतर आया और फिर बस. कुछ नहीं! कहीं कोई न
था. नीलेश ने टॉर्च की रोशनी में आजू-बाजू टटोला. जगह-जगह से नालियों के शोर और पाइपों
के शोर और टपकते टपकों के शोर के अलावा कहीं कुछ न दिखाई दिया न सुनाई दिया.
कौन था? मैं किससे बात कर रहा था? क्या बुखार से दिमाग चल गया है? कोई प्रेत...?
धड़कनें उछालें मारने लगीं. मन हुआ कि जल्दी से दरवाज़ा बंद कर के फिर अंदर घुस जाये, पर पैर उठते ही न थे. तिरपाल की तड़तड़ाहट कानों को चीरे डाल रही थी. धीरे-धीरे दरवाज़ा उडकाया. हल्के से कुंडी खसकाई गोया खुद कोई चोर हो. तिरपाल की तड़-तड़ मद्धम हुई. तभी लगा कि कानों में किसी के सांस लेने की आवाज़ पड़ी. खुद उसकी सांस बहुत तेजी से चल रही थी लेकिन वो यक़ीनी तौर पर नहीं कह सकता था कि ये आवाज़ उसकी खुद की साँसों की ही थी. तेजी से पूरे कमरे में टॉर्च घुमाई. सारी चीजों ने एक-एक कर अपनी हाज़िरी बजाई. कहीं कोई न दिखा. आखिरी मोमबत्ती कोई आधे घंटे पहले खत्म हो चुकी थी. मोबाइल के बैटरी चेक की. सिर दो डंडियाँ बचीं थीं. टॉर्च लेकिन लगातार जला तो जल्दी खत्म हो सकती थी. लेकिन टॉर्च बंद कैसे कर दे!!
दोबारा अपने बिस्तर पर पहुंचा.
कंबल ओढा और हिम्मत जुटा कर टॉर्च बुझा दी. उसे अपने पर शक होने लगा कि उसने आँखें
खोल रखीं हैं या बंद की हुई हैं! घुप्प अंधेरा! तभी अचानक बाहर बिजली चमकी. धक! दरवाज़े
के पास कौन खड़ा है? जल्दी से मोबाइल टटोला. अनलॉक किया. एप्प की लिस्ट
में से टॉर्च सिलेक्ट किया. एक बार फिर रोशनी हुई. फिर कहीं कोई नहीं! हो न हो बुखार
दिमाग तक जा पहुंचा है. लेकिन टॉर्च बंद करने की झस अब और न थी. रोशनी का रुख सीलिंग
की ओर कर के अपने सिरहाने रख लिया.
धड़! धड़! धड़! धड़!
"क...कौन है?"
"मैं नितिन. पंकज आया
क्या?"
क्या जवाब दूँ?
कौन नितिन? कौन पंकज? उसने सोचा
"लेकिन मुझे पता चला कि
वो अंदर आया है" - बाहर से आवाज़ आई
लेकिन मैंने तो कुछ बोला ही
नहीं! बाहर वाला ऐसे क्यों बात कर रहा है जैसे मेरी किसी बात का जवाब दे रहा हो! क्या
सच में मैंने कुछ नहीं बोला?
"अगर वो आए तो दरवाज़ा
मत खोलना और अंदर आने की रजामंदी तो क़तई मत देना"
अबकी हिम्मत कर के उसने पूछा
- "क्यूँ?"
"क्योंकि वो एक वहम है"
"वहम है?"
"हाँ वहम. बस इतना ध्यान
रखना कि अंदर आने को मत कहना."
फिर बस मेन गेट बंद
होने की आवाज़ सुनाई दी. लगता था कि शख्स अब जा चुका था. नीलेश ने मोबाइल उठाया. नेटवर्क
नहीं था. मन हुआ कि गाने लगा ले कि थोड़ा मन भटके. लेकिन बैटरी! ऐसे ही लेटे-लेटे आधा
घंटा बीत गया.
टीं! टीं!
मोबाइल की बैटरी ने दम तोड़
दिया. चंद मिनिटों बाद अपनी कंपनी का लोगो दिखाते हुए मोबाइल भी स्विच ऑफ हो गया. एक
बार फिर से वही अंधेरा. सारी जिम्मेदारे जैसे यकायक कानों ने संभाल ली. वो लेटा-लेटा
गौर से कुछ सुनने की कोशिश करने लगा. तिरपाल की आवाज़ के सिवाय कोई आवाज़ तो नहीं आती
थी. फिर एक पल लगा कि कोई आहट हुई क्या! अगले पल लगा कि भ्रम था. उसके अगले पल दुविधा
कि सच में भ्रम ही था कि भ्रम का भी भ्रम हो रहा था. फिर अगले पल दोबारा कोई और आहट
जान पड़ती. ये सिलसिला काफी देर यूं ही चलता रहा. तभी एक ज़ोर की आवाज़ हुई कोने वाली
कुर्सी के गिरने की. कुर्सी का एक पाया नहीं था इस करके उसे कोने में रख छोड़ा था ताकि
कोई उस पर बैठ न जाये. कोई कुर्सी पर बैठ रहा था क्या!
सारी हिम्मत बटोर के वो तेजी से कमरे के बाहर निकाल आया. कुछ देर वहीं खड़ा रहा. सांस
तेज चल रही थी. इतनी तेज़ कि तिरपाल की आवाज़ भी धीमी लग रही थी उसके आगे. कहाँ जाऊँ?
चलो किसी दोस्त के रूम चलता हूँ. लेकिन चप्पल! चप्पल के लिए दोबारा धीरे से दरवाज़ा
धकेला. ओह! किसी ने दरवाज़ा भीतर से बंद कर लिया! बगैर एक लम्हा वहाँ रुके वो सीधे मेन
गेट से बाहर दौड़ आया. चारों तरफ अंधेरा. 102-103 बुखार. ठंड. बारिश. किसी तरह रास्ते
का अंदाज़ा ले ले कर अपने एक दोस्त के रूम की ओर चल पड़ा.
सुबह हो चुकी थी. बारिश भी
आज चौथे दिन जाकर बंद हो गई थी. नीलेश दोस्तों के साथ दोबारा रूम पर आया. ये क्या!
दरवाज़े पर ताला! एक दोस्त के हाथ में एक पन्नी थी जिसमें नीलेश के रात वाले भीगे कपड़े
रखे थे. उसने न जाने क्या सोच कर भीगे पैंट की जेबें टटोलीं. चाबी जेब में थी. सब दोस्तों
ने ज़ोर से ठहाका लगाया. नीलेश की समझ में ना आया कि क्या जवाब दे. ताला खोल कर सब लोग
कमरे के भीतर आए. कुर्सी सीधी खड़ी थी कोने में. मोबाइल देखा. स्विच ऑफ नहीं था. नीलेश
बिस्तर पर कंबल ओढ़ के दोबारा लेट गया.
तभी एक दोस्त बोला- "बुखार
की वजह से वहम हो गया होगा."
"हाँ,
वहम ही तो था" - नीलेश ने जवाब दिया
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