खुशवंत सिंह की एक उपन्यास 'ट्रेन टु पाकिस्तान' मैंने अपने कॉलेज के समय पढ़ी थी। वो उपन्यास आज भी मेरे पसंदीदा उपन्यासों में एक है। हाल ही में इंटरनेट सर्फ करते हुए मैं उनकी लिखी खुशवंतनामा तक पहुंच गया। यह किताब आत्मकथा नहीं है, निबंध भी नहीं हैं, न ही कोई दर्शन, लेख या चुटकुलों की किताब है। किताब ये सब कुछ न होते हुए भी कुछ कुछ सब कुछ है। ऐसा लगता कि खुशवंत सिंह ब्लॉग लिखना चाहते थे और किताब लिख बैठे। अलग-अलग विषयों पर छोटे-छोटे लेख हैं। विषय भी धर्म, गांधी, पत्रकारिता, लेखन, हास्य आदि से लेकर विस्कि और खाने-पीने तक की विविधता लिए हुए हैं।
खुशवंत सिंह कट्टर धर्मनिरपेक्ष लोगों में से एक हैं। लिबरल सोच और फ़्रीडम ऑफ स्पीच के ज़बरदस्त पैरोकार। उन्होनें जो देखा और जो महसूस किया वो बिंदास लिखा। देश में बढ़ती असहिष्णुता के बारे में भी उन्होनें लिखा। मैं भी उनकी इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ। असहिष्णुता देश में एक ज़हर की तरह फैलती जा रही है। जब अखलाक ही दादरी में हत्या हुई थी तब सत्ता पक्ष के तमाम लोग उन साहित्यकारों को निशाना बनाने में लगे थे जिन्होनें अपने पुरस्कार वापस किए थे। जबकि अवार्ड वापसी एक पुराना हथियार है अपना विरोध प्रकट करने का। नेटिव अमेरिकन्स के द्वारा फिल्मों में इंडियन्स को नीचा और गंवार दिखाने को लेकर के मर्लोन ब्रांडो ने मोशन पिक्चर कम्यूनिटी पर रेसिस्ट होने का आरोप लगाया था। और इसके लिए अपना विरोध जताते हुए उन्होनें गॉड फादर के लिए बेस्ट एक्टर का ऑस्कर अवार्ड वापस कर दिया। रबिन्द्रनाथ टैगोर ने नाइटहुड की अपनी उपाधि जलियाँवालाबाग हत्याकांड के विरोध में ब्रिटिश सरकार को वापस कर दी थी। इसी तरह खुशवंत सिंह ने भी अपना पद्म भूषण 1984 में इंदिरा गांधी द्वारा स्वर्ण मंदिर में सेना भेजने के विरोध में वापस कर दिया था। हाल ही में साहित्यकारों ने जब अवार्ड वापस किए तो इसकी गूंज न्यूयॉर्क टाइम्स तक सुनाई दी। सरकार की किरकिरी होने पर उन्होनें साहित्यकारों को ही निशाने पर लिया। इस पूरी कवायद का सबसे दुखद पहलू ये रहा कि नयनतारा सहगल, रोमिला थापर से ले कर उदय प्रकाश और यहाँ तक कि अशोक वाजपेयी जैसी महान शख़्सियतों की इंटेग्रिटी पर सवालिया निशान लगाया गया। सरकार के सुर में सुर मिलाते हुए जनता खुशी से झूमे जा रही थी। व्हाट्सएप और फेसबुक पर बुद्धिजीवियों के चरित्रहनन का फैशन चल पड़ा। जो समाज अपने बुद्धिजीवियों की नहीं सुनता और सरकारी वर्ज़न पर ज़्यादा भरोसा करता है ऐसे समाज का अंत बस निकट ही है। संस्कृत का एक श्लोक है -
लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडयन्
पिबेच्च मृगतृष्णिकासुसलिलं पिपासर्दितः ॥
कदाचिदपि पर्यटन् शशविषाणमासादयेत्
न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥
एक बार रेत से भी तेल निकल सकता है, एक प्यासे आदमी को भी एक बार मरीचिका में पानी मिल सकता है, इधर-उधर भटकते हुए किसी को शायद खरगोश के सींग भी मिल जाएँ लेकिन एक पढे-लिखे जिद्दी मूर्ख को समझाया नहीं जा सकता। जब किसी का मन पूर्वाग्रहों से ग्रसित हो तो वो लॉजिक नहीं समझ सकता। शायद इसी से सबक लेते हुए सत्ता पक्ष ने अपनी पूरी ऊर्जा साहित्यकारों, फ़िल्मकारों, चित्रकारों, इतिहासकारों और यहाँ तक कि वैज्ञानिकों तक को कांग्रेस का एजेंट बताने में लगा दी और पब्लिक के दिमाग में एक ऐसा चित्र ठूंस दिया कि जो भी सरकारी वर्ज़न से असहमत है वो गद्दार है। अब न कोई महंगाई पर बात करे न विदेश नीति पर और न ही रोहित वेमुला पर। ये दुनिया के तमाम शासक वर्गों का सबसे खूबसूरत ख्वाब है कि उनकी जनता उन्हीं के सुर में सुर मिलाये। कोई भी ऐसा सवाल न उठाए जिससे सत्ता पक्ष की नाकामयाबी उघड़े। खुशवंत सिंह ने किताब में इस बारे में आगाह किया है। जनता चुनाव तो सत्ता पक्ष का करती है लेकिन खुद उसे विपक्ष में ही बैठना चाहिए ताकि सरकार जवाबदेही से बंधी रहे। आपने अपना वोट दे दिया और आपकी पसंद की सरकार भी बन गई। एक लोकतन्त्र में आपका जो रोल मतदाता का था वो आपने अदा कर दिया। क्या हमेशा ही मतदाता बने रहेंगे? अब नागरिक के रोल में भी तो आओ। कुछ कड़े सवाल तो करो सरकार से।
आस्था पर भी खुशवंत सिंह ने बहुत अच्छा लिखा है। खुशवंत सिंह खुद को नास्तिक (अनीश्वरवादी; atheist) मानते हैं लेकिन साथ ही उन्हें धर्म दर्शन पढ़ना अच्छा लगता है। मैं भी एक अनीश्वरवादी हूँ और मुझे भी दर्शन पढ़ना अच्छा लगता है। इस मामले में मैं खुद को खुशवंत सिंह के ज़्यादा नजदीक पाता हूँ बनिस्बत भगत सिंह के। खुशवंत सिंह ने ताउम्र पगड़ी रखी। धर्म में भरोसा न करते हुए भी ऐसा करना अपनी परम्पराओं के सम्मान के अतिरिक्त और कोई वजह तो मुझे नहीं देता। जबकि दूसरी ओर भगत सिंह भी अनीश्वरवादी थी। उन्होनें अपनी पगड़ी हटा दी थी। हालांकि ऐसा उन्हें अंग्रेजों से बचने के लिए करना पड़ा लेकिन बाद में उन्होनें इसका ज़िक्र करते हुए कहा था कि उनका बस चले तो अपने पहचान से हर उस चिन्ह को हटा दें जो किसी भी तरह सिक्खी से ताल्लुक रखता है। पिछली कांग्रेस सरकार ने जो मूर्ति लगवाई है संसद परिसर में वो ये है:
जानबूझकर एक अनीश्वरवादी के सिर पर पगड़ी रखी जा रही है ताकि अपनी पार्टी के 1984 में किए गए पापों को पगड़ी से ढांपा जा सके । अभी हाल में एक 'जॉइन आरएसएस' का विज्ञापन देखा था जिसमें भगत सिंह की कांग्रेस की पहनाई पगड़ी को फोटोशॉप के जरिये भगवा कर दिया गया और उनके हाथ में एक भगवा झण्डा थमा दिया गया। नीचे एक कैपशन कुछ एस तरह चिपका दिया गोया भगत सिंह खुद कह रहे हो कि आओ और आरएसएस जॉइन करो। एक वामपंथी क्रांतिकारी का आरएसएस से क्या लेना देना? भगत सिंह के बारे में अगर और जानना है तो मलविन्दरजीत सिंह वढैच की लिखी भगत सिंह को फांसी - वॉलयूम 1 और भगत सिंह को फांसी - वॉलयूम 2 पढ़ना चाहिए।
खैर एक प्रश्न है जो हमेशा मुझे दुविधा में डालता है कि नास्तिक होने के बाद क्या मुझे अपनी परम्पराएँ छोड़ देनी चाहिए? या फिर उन्हें फॉलो करते रहना चाहिए सिर्फ इस बात के लिए कि वो हमारी 'परम्पराएँ' हैं। मेरे दादाजी मूर्तिपूजा के इस कदर विरोधी थे कि वो दिवाली की पूजा में भी शरीक नहीं होते थे। इस तरह से वो मुझे भगत सिंह के खेमे में नज़र आते हैं। जबकि मैं दिवाली की पूजा में न केवल शामिल होता हूँ बल्कि घर में झालर तागने से ले कर पटाखे चलाने तक बड़ा उत्साहित भी रहता हूँ। मैं इसे धार्मिक अनुष्ठानों से इतर एक परंपरा के रूप में ज़्यादा देखता हूँ। हमारी सभ्यता 5000 सालों से इस ज़मीन पर है और इसने न जाने कितने उतार चढ़ाव देखें। न जाने कितनी ही संस्कृतियों से प्रभावित हुई और न जाने कितनों को प्रभावित किया। एक सभ्यता ने इस सफर में, जो अभी भी जारी है, न जाने कितनी परम्पराएँ विकसित कीं। उनमें से जो हानिकारक नहीं हैं उन्हें फॉलो करने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। किताब पढ़ते हुए खुशवंत सिंह का जो एक चित्र खिंचता है उसमें वो एक उदार अनीश्वरवादी प्रतीत होते हैं। जब हम ईश्वरवादी लोगों से उम्मीद करते हैं कि वे धर्मांधता में न उलझें, कट्टरपंथ छोडकर उदारवाद की तरफ बढ़े। धर्म में रिफॉर्म्स की वकालत करते भी नहीं अघाते तो अनीश्वरवादियों को भी थोड़े उदारवाद की ज़रूरत है।
किताब के अंतिम हिस्से में उन्होनें अपने कुछ चुट्कुले भी डालें हैं और कहा है कि भारत एक हास्य प्रधान देश नहीं है। लोग अपने ऊपर नहीं हँसना जानते। हर चीज़ को बहुत गंभीर बना के रखते हैं। एक जगह उन्होनें अपने बीमारी का ज़िक्र किया है जब डॉक्टर ने उन्हें बताया कि उन्हें अंदरूनी बवासीर है। उनका कहना है कि ये ऐसा है कि लगता है कैंसर होता तो बेहतर होता। कैंसर में जो एक रूमानियत है, बवासीर में वो बिलकुल भी नहीं है।
उन्होनें बाबाओं, ज्योतिषियों और अंधविश्वास का ताउम्र विरोध किया। बाबाओं को तो उन्होनें परजीवी तक कह डाला। 1984 में भिंडरावाले के उत्थान के समय उन्होनें बहुत छापा था खालिस्तान की मांग के विरोध में। उन्हें बहुत धमकी भरे पत्र आते थे। ट्रोलिंग ट्विटर आने के बाद ईजाद हुई संस्कृति नहीं है। कनाडा से आये एक पत्र का ज़िक्र किया है जिसके ऊपर लिखा पता सिर्फ इतना था-
बास्टर्ड खुशवंत सिंह,
इंडिया।
उन्होनें भारतीय डाक सेवा का आभार माना कि उन्होनें इतने बड़े देश में एक मात्र हरामी को ढूंढ निकाला।
कुल मिला के किताब एक बार पढ़ने लायक है। खुशवंत सिंह का सीधा मंत्र है- जब तक जियो, पूरी ज़िंदादिली से जियो। किताब को आप Amazon
से खरीद सकते हैं.
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " अलगाववाद का नशा!! " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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