वजूद तक नहीं रहता, फासला जहां नहीं रहता
किसी साये का अपना कोई बाक़ी निशां नहीं रहता
यूं तो वो क़ायनात के ज़र्रे-ज़र्रे में मौजूद है
जिस भी गली मैं देखूँ, केवल वहाँ नहीं रहता
मुद्दतें गुज़रीं, अब किससे मिलने आए हो
वो शख्स कोई और था, अब यहाँ नहीं रहता
तलाशते अपनी ज़मीन को यां पहुंच तो गए लेकिन
मालूम न था शहर में अब आसमां नहीं रहता
कोई राज़ तब जाकर मुक़म्मल होता है जब
उसका दुनिया में अंतिम भी राज़दां नही रहता
जो तन्हा छोड़ दो तो वो भी खंडहर हो जाएगा
अपने बाशिंद से जुदा तो कोई मकां नहीं रहता
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ये उन दिनों की बात है : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDeleteबहुत आभार 🙏🙏
Deleteबहुत खूब ...अपनों से जुदा हो के मकां नहीं रहता ... गहरी बातें ...
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार ११ जनवरी २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
जो तन्हा छोड़ दो तो वो भी खंडहर हो जाएगा
ReplyDeleteअपने बाशिंद से जुदा तो कोई मकां नहीं रहता....
बहुत खूब ..........
बेहतरीन रचना.....आदरणीय
ReplyDeleteजो तन्हा छोड़ दो तो वो भी खंडहर हो जाएगा
ReplyDeleteअपने बाशिंद से जुदा तो कोई मकां नहीं रहता
बहुत लाजवाब...
शानदार अस्आर एक से बढ़कर एक उम्दा बेहतरीन।
ReplyDeleteBehad khoobsurat Rachana!
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