Sunday, May 1, 2022

बक्सा (कहानी)



मुझे हमेशा अफ़सोस रहेगा कि तुम मम्मी से नहीं मिल सकीं. पता है, ये कोई तीन साल पहले की बात है. हालांकि इसकी शुरुआत उससे भी पहले हो चुकी थी. मुझे याद है वो अक्सर अपनी चीज़ों को इधर-उधर रखकर भूल जाती थीं. ये ख़ासकर उनके चश्मे के साथ होता था. हम सभी के साथ इस तरह की चीज़ें होती रहती हैं, इसलिए मैंने भी कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया. और वैसे देखा जाए तो उनकी उमर भी हो रही थी. सोचा कि उमर का भी कुछ असर तो दिखेगा ही. 


एक बार वो किचन से निकलकर अपने कमरे की ओर जा रही थीं कि अचानक चलते-चलते रुक गयीं. मैं अपने कमरे में बैठा अख़बार पढ़ रहा था. मेरे कमरे से बीच वाला बारामदा दिखाई देता है. अख़बार पढ़ते-पढ़ते मैंने पन्ना पलटने के लिए अपनी नज़रें हटाईं तो मुझे वो बीच बारामदे में खड़ी नज़र आईं. घुंघराले सफ़ेद बालों के नीचे उनके चश्मे और उनसे झांकती हुईं भावशून्य आँखें. मुझे लगा कहीं उन्हें चक्कर तो नहीं आ रहे. मैं अपना अख़बार रखकर बारामदे की ओर बढ़ा. मैंने पूछा, "क्या हुआ मम्मी"? उन्होनें आवाज़ की तरफ अपना सिर घुमाया. मुझे एकटक देखती रहीं. मैंने उनके कंधे पर हाथ रखते हुए दोबारा पूछा, "क्या हुआ"? उन्होनें ठिठकर कहा, "अरे कुछ नहीं! मैं किचन से वापस लौट रही थी तो ऐसा लगा कि अपने कमरे का रास्ता भूल गयी हूँ". उस वक़्त भी मुझे ख़ास कुछ अहसास नहीं हुआ. मैंने कहा, "कोई बात नहीं! हो जाता है कभी-कभी". उसके बाद उन्होनें जो कहा उसने मुझे हिलाकर रख दिया. उन्होनें कहा, "हाँ, हो जाता है कभी-कभी. लेक़िन किस तरफ़ है मेरा कमरा? मुझे अभी भी याद नहीं आ रहा". उस दिन पहली बार मुझे लगा कि शायद कोई बड़ी बात है. 


शाम को ऑफ़िस से लौटकर मैं उन्हें डॉक्टर के पास ले गया. अगले कई दिनों तक उनकी तमाम जांचें चलती रहीं. आख़िरकार एक दिन डॉक्टर ने बताया कि उनके दिमाग़ की कोशिकाएं ख़तम हो रही हैं. उन्होनें समझाया, "हमारे दिमाग़ को चलाने की ज़िम्मेदारी जिन कोशिकाओं की होती है उन्हें न्यूरॉन कहते हैं. दिमाग़ में न्यूरॉन्स का एक बहुत पेचीदा जाल होता है. दिमाग़ जब काम करता है तो ये न्यूरॉन्स एक दूसरे को इलेक्ट्रिकल सिग्नल भेजती हैं. जिस तरह बिजली के तारों के ऊपर रबर की एक इंसुलेटर कोटिंग होती है, उसी तरह न्यूरॉन को सिग्नल भेजने वाली कोशिकाओं पर भी एक कोटिंग होती है जिन्हे मायलिन कहते हैं. आपकी मम्मी के दिमाग़ में न्यूरॉन और मायलिन दोनों घट रही हैं. इसका सीधा असर उनकी याद्दाश्त पर तो पड़ेगा ही, लेक़िन इसका असर उनके चलने-फिरने की या छोटे-छोटे काम करने की क़ाबिलियत पर भी पड़ेगा. जहां की कोशिकाएं मर चुकी हैं, वे यादें पूरी तरह ख़त्म हो जाएँगी, लेक़िन जहां की कमज़ोर हैं, वो बातें इन्हें थोड़ी-थोड़ी याद रहेंगी. धीरे-धीरे इनका स्वभाव हो सकता है चिड़चिड़ा या अनप्रेडिक्टिबल हो जाए, या रेंडमली कोई पुरानी बात याद आ जाए और वो रोने लगें, या कोई और अनप्रेडिक्टिबल व्यवहार करें. बेहतर होगा कि आप इनके लिए एक नर्स का बंदोबस्त कर लें ताक़ि आपके दफ़्तर जाने के बाद भी कोई देखभाल के लिए इनके पास रहे". 


मैंने पास के एक नर्सिंग होम में बात करके एक नर्स का इंतेज़ाम कर लिया. नर्स रोज़ सुबह मेरे ऑफ़िस जाने के पहले आ जाती और शाम को मेरे लौटने के बाद ही वापस जाती. एक दिन मैं अपने कलीग के साथ ऑफ़िस में लंच कर रहा था. मेरे मोबाइल पर नर्स का कॉल आया. उसने कहा, "हैलो सर! आंटी बहुत हाइपर हो रही हैं. किसी बक्से के बारे में पूछ रही हैं. सारे कमरों में इधर-उधर जा रही हैं बार-बार. कह रही हैं कि बक्सा चोरी हो गया. मेरा सामान रखा था उसमें. अभी मैंने समझा-बुझा कर बैठाया है कि आपके बेटे को पता है बक्से के बारे में. मैं उन्हें फ़ोन दे रही हूँ. आप कुछ समझा देना. शाम तक तो शायद भूल जाएंगी". फिर उसने मम्मी को फ़ोन देते हुए कहा, "आंटी, कैलाश का फ़ोन है. आपसे बात करना है". अगली आवाज़ मम्मी की थी, "कैलाश! वो बक्सा रखा था ना भगवान् वाले कमरे के बाहर! वो कहाँ चला गया? सब जगह देखा, कहीं नहीं है". मैंने उन्हें याद दिलाने की क़ोशिश की, "मम्मी! अपन ने वो बक्सा बेच दिया था दस साल पहले". मम्मी ने कहा, "नहीं! मैंने नहीं बेचा बक्सा! मेरा सामान था उसमें". मैंने कहा, "कुछ सामान मेरी अलमारी में है, कुछ दीवान में है. मैं शाम को लौटकर देख दूंगा. अभी आप आराम करो".


शाम को लौटते वक़्त डॉक्टर से मशविरा करने गया तो उन्होंने कहा, "इस तरह के अल्ज़ाइमर में कभी-कभी अग्रेशन या गुस्से के लक्षण होते हैं. नींद की कमी, गैस या कभी-कभी तो मामूली भूख-प्यास जैसे डिस्कम्फर्ट की वजह से भी ऐसा हो सकता है. घर का एकाएक अजनबी-सा लगने लगना, या हो सकता है अकेलापन ही लग रहा हो! ऐसे वक़्त दिमाग़ स्ट्रेस रिलीज़ करने के लिए सहज ही अतीत में कम्फर्ट ढूंढने लगता है और ना मिलने पर कभी-कभी अग्रेशन दिखाई देता है. ध्यान रखें कि उनकी बातों को ख़ारिज न करें. अगर उन्हें लगेगा कि उन्हें कोई सीरियसली नहीं ले रहा तो वो और ज़िद्दी होने लगेंगी. ध्यान भटकाने की कोशिश करें. फैक्ट्स के बजाय उनकी फ़ीलिंग्स पर फ़ोकस करें.".


डॉक्टर से मिलकर सीधा घर की और रवाना हो गया. रास्ते भर एक ही बात मेरे दिमाग़ में चलती रही, "फैक्ट्स के बजाय फ़ीलिंग्स पर फ़ोकस करें". गाड़ी खड़ी करके, बग़ैर जूते-मोज़े उतारे सीधा मम्मी को देखने उनके कमरे में पहुँच गया. बाहर सूरज अस्त हो रहा था. भीतर खिड़की के परदे गिरे हुए थे. कमरे की लाइट बंद थी, केवल कोने में रखा एक लैम्प अपनी हल्की पीली रोशनी बिखेर रहा था. मम्मी अपने बिस्तर पर सो रही थीं. उन्होंने पीले रंग की एक चादर गले तक ओढ़ राखी थी. छत पर दो की धीमी रफ़्तार में पंखा घूम रहा था. पलंग के बाजू में एक कुर्सी पर नर्स बैठी अपना मोबाइल चला रही थी. मैं मम्मी के बाजू में जाकर बैठ गया. मुझे देखकर नर्स ने अपना मोबाइल लॉक कर लिया और मेरी ओर मुख़ातिब हुई, "आपके फ़ोन के बाद भी बहुत ग़ुस्सा हुईं. मैंने समझा बुझा कर किसी तरह रिलेक्सेंट दिया. उसके बाद थोड़ी देर में सो गईं". मेरी नज़र उनके सिरहाने पड़ी. एक फ़ोटो-फ्रेम रखा हुआ था. फ्रेम के भीतर मेरे बचपन की फोटो थी. नर्स ने कहा, "अपना सामान ढूंढने आपके कमरे गई थीं. वहां से उठा ले आई थीं. जब सो गईं तो मैंने उन्हीं के सिरहाने रख दी". मैंने नर्स को थैंक्स कहा और अपने कमरे में आ गया. 


उस रात मैं बहुत देर तक अपने बिस्तर पर करवटें बदलता रहा. उस बक्से के बारे में सुनकर बहुत-से पुराने बिम्ब आँखों के सामने तैरने लगे. वो एक लोहे का बड़ा और गहरा बक्सा था. उसे मेरे दादाजी ने अपने रिटायरमेंट के समय बनवाया था. उसके नीचे लोहे के दो मज़बूत गुटखे लगे थे जिससे वो ज़मीन से कुछ इंच ऊपर रहता था. सामने दो कुंदे थे जिन्हें बंद करके ताला लगाया जा सकता था. दोनों बाजू दो पतले-पतले हैंडल थे, उसे उठाकर शिफ़्ट करने के लिए. पूरे बक्से में वो दो हैंडल ही थे जिन्हें काले रंग से पेंट किया गया था, बाक़ी पूरा बक्से का रंग लोहिया ही था. उसके पल्ले में भीतर की ओर लोहे की दो पतली ज़ंजीरें लगी थीं ताक़ि खोलने पर पल्ला पीछे की ओर न चला जाए. पल्ले में ही भीतर एक लोहे का जेबनुमा खाना भी बना हुआ था जिसमें सालों तक मम्मी-पापा की शादी का कार्ड रखा रहता था, लाल रंग का. क़रीब तेरह साल पहले वो बक्सा मम्मी ने हमारी हेल्पर को बेच दिया था. उसका पति एक ठेला लेकर आया और चालीस साल तक हमारे घर में रहने के बाद वो बक्सा एक मामूली से लकड़ी के ठेले पर चला गया. 


कुछ दिनों बाद एक रोज़ सुबह-सुबह मैं अपने कमरे में ऑफ़िस के लिए तैयार हो रहा था. नर्स ने मेरे दरवाज़े पर दस्तक देते हुए कहा, "आपको आंटी बुला रही हैं". मैं तैयार होकर मम्मी के कमरे में पहुंचा. नर्स कोने में रखी टेबल पर दवाइयों के डिब्बे टटोल रही थी. मम्मी सिरहाने एक खड़ा तकिया लगा कर अपने पलंग पर बैठी हुई थीं. उन्होंने कमर तक चादर ओढ़ रखी थी. उनके एक हाथ में वही फ़ोटो फ़्रेम था जो वो कुछ दिन पहले मेरे कमरे से उठा लाई थीं. मैं पलंग के बाजू में रखी कुर्सी पर बैठ गया. उनकी नज़रें तस्वीर पर ही जमी रहीं. मैंने कहा, "मम्मी! आपने बुलाया था"? उन्होनें बग़ैर मेरी ओर देखे बहुत धीमी आवाज़ में कहा, "तुम्हें नहीं, कैलाश को बुलाया था". मैंने अपने हाथ को आहिस्ता उनके दूसरे हाथ के ऊपर रख दिया और धीमी आवाज़ में कहा, "मैं कैलाश हूँ मम्मी". मम्मी ने नज़रें मेरी ओर उठाईं. उन्होंने चश्मे नहीं पहने थे. उन आखों को मैंने बचपन से देखा था, कत्थई रंग की बड़ी-बड़ी आँखें और उन बड़ी-बड़ी आँखों के ऊपर बड़ी-बड़ी पलकें. उनके इर्द-गिर्द अब झुर्रियां घिरने लगी थीं. ऐसा लगता था थकावट की वजह से उन्हें अपनी पलकें खोलने में भी कोशिश लगती थी और इसलिए वो उन्हें आधा ही खोलती थीं. उन्होंने अपनी नज़रें दोबारा हाथ में रखी तस्वीर की तरफ घुमा लीं. खिड़की का पर्दा खुला था. धूप की एक पतली लक़ीर उनके हाथ में रखी तस्वीर के ऊपर पड़ रही थी. वो तस्वीर को एकटक देखती रहीं. उन्होंने दोबारा मेरी ओर देखा. हालांकि डॉक्टर ने मुझे बताया था कि उनकी याद्दाश्त पर असर होगा लेक़िन कभी सोचा नहीं था कि मुझे ही न पहचानेंगी. उनकी आँखें मेरी आँखों के भीतर तस्वीर वाले कैलाश को ढूंढ रही थीं. उस बच्चे को जो एक छोटे से घर में किचन के सामने रखे बक्से पर बैठकर खाना खाता है जब उसकी मम्मी मिट्टी के तेल वाले एक स्टोव पर खाना बनाती है. जब वो कालिख़ खुरचने के लिए पिन उठाती है तो बच्चा कूदकर आता है कि मम्मी मैं करूँगा. वो पिन बच्चे को दे देती है, बच्चा उसे स्टोव में घुसेड़ता है और स्टोव अपनी धूधू की आवाज़ को तेज़ कर देता है. मेरे मन में ख़याल आया कि अगर मुझे नहीं पहचाना तो मैं उस तस्वीर वाले कैलाश को कहाँ से लाऊंगा? अगर मेरे मम्मी कहकर आवाज़ देने पर उन्होंने मेरी ओर देखना बंद कर दिया तो कैसे उन्हें यक़ीन दिलाऊंगा? लग रहा था हम दोनों एक-दूसरे को एक-दूसरे की आँखों में तलाश कर रहे थे. मुझे उनकी आँखों के कोने से एक बूँद उभरती दिखी. उन्होंने मेरा हाथ कसकर पकड़ लिया और कहा, "कैलाश! ऑफ़िस से आ गया बेटा"? मैंने उनके हाथों को उठाया और चूमते हुए कहा, "नहीं मम्मी! अभी ऑफ़िस जा रहा हूँ. सुबह के नौ बज रहे हैं". उन्होंने खिड़की से बाहर देखा और फिर सिर झुका लिया. दो बूँदें उनकी आँखों से निकलकर धूप के चकत्ते में ढुलक गईं. मैं कुर्सी से उठकर बिस्तर के किनारे बैठ गया और उन्हें गले लगा लिया. वो थोड़ी देर शांत चिपकी बैठी रहीं फिर अचानक फ़फ़ककर रोने लगीं. मैं उनकी पीठ पर हाथ फेरकर उन्हें चुप कराने लगा. हम दोनों बहुत देर तक ऐसे ही बैठे रहे.


एक रोज़ मैं किचन में ऑमलेट बना रहा था. वो एक इतवार की सुबह थी. मम्मी ने मुझे आवाज़ लगाई. मैं उनके कमरे में पहुंचा. उन्होंने दोबारा वही सवाल किया, "वो बक्सा कहाँ है जो भगवान् वाले कमरे के बाहर रखा था"? मुझे डॉक्टर की बात याद आई, "फ़ैक्ट्स पर नहीं फ़ीलिंग्स पर फ़ोकस करें". मैंने जवाब दिया, "मेरा एक दोस्त ले गया था, उसको शिफ्टिंग करने के लिए चाहिए था. कल-परसों तक वापस कर देगा". उन्होंने कहा, "उसमें मेरा सामान था. कहाँ है"? मैंने कहा, "सामान तो सारा यहीं रखा है. कुछ मेरी अलमारी में है, कुछ दीवान में. आप अलमारी देख लो पहले अगर मिल जाए नहीं तो मैं दीवान खोल दूंगा". मम्मी अगले आधे घंटे मेरी अलमारी टटोलती रहीं. फिर बोलीं, "नहीं मिल रहा. दीवान खोल दे". मैंने पूछा, "क्या सामान है"? उन्होंने कहा, "अरे, है मेरा कुछ सामान. तू बस दीवान खोल दे". मैंने दीवान खोल दिया. अगले एक घंटे तक दीवान टटोलती रहीं. मैं अपने कमरे में नाश्ता करने चला गया. लौटकर देखा तो दीवान खुला पड़ा था और मम्मी अपने पलंग पर लेटी थीं.


मैं नहीं चाहता था कि एक बक्से को लेकर में उनको बार-बार स्ट्रेस हो. दस साल पहले जो हेल्पर हमारे यहां काम करती थी वो अब पता नहीं कहाँ होगी. मैंने लोहार से वैसा ही एक दूसरा बक्सा बनवाने की सोची. दो दिन बाद नया बक्सा भगवान् वाले कमरे के बाहर रख दिया. पुराने समय की तरह ही उसमें कुछ गद्दे-रज़ाई और पुराने फ़ोटो एल्बम वग़ैरह डाल दिए.


एक दिन मुझे दोबारा ऑफ़िस में नर्स का फ़ोन आया, "आंटी को फिर आज पैनिक अटैक आया था. बक्से का सारा सामान उथल-पुथल कर दिया. कह रही थीं उनका कुछ सामान रखा था बक्से में. नहीं मिल रहा. मैंने पूछा भी कि क्या था सामान तो कुछ नहीं बताया. फ़िलहाल रिलैक्सेंट ले कर सो रही हैं". मैंने नर्स को कहा कि मम्मी का ध्यान रखे और फ़ोन काट दिया. फ़ोन कटने के बाद मैं सोचने लगा कि मम्मी क्या ढूंढ रही हो सकती हैं. हां, उनकी शादी का कार्ड तो रखा हुआ था उसमें. शायद वही ढूंढ रही होंगी. मुझे कार्ड का डिज़ाइन मोटा-मोटी याद था. मैंने ऑफ़िस में ही अपने लैपटॉप पर शादी का कार्ड बनाया. एक मोटे वाले काग़ज़ पर प्रिंटआउट लिया और उसको कार्ड के आकार में काट लिया. शाम को मैंने उसे बक्से के भीतर रख दिया और सोचा कि मम्मी को शायद और परेशानी ना हो. 


शुरुआत में हर घटना हमारे भीतर कुछ नई भावनाएं उकेरती है. लेक़िन फिर उन घटनाओं का बार-बार होते चला जाना, हर बार उन भावनाओं पर मशीनीपन की एक परत चढ़ा देता है. अंत में हम किसी मशीन ही की तरह उनपर अपनी प्रतिक्रियाएं देते चले जाते हैं. कुछ ही समय बाद मम्मी मुझे अक़्सर ही भूल जाया करतीं. मैं अक़्सर ही दूसरा हो जाता जबकि वो पहले को खोजती रहतीं. इसी तरह बक्से के भीतर भी हर कभी कुछ खोजने बैठ जातीं. मेरा अंदाज़ा ग़लत था. वो अपनी शादी का कार्ड नहीं ढूंढ रही थीं. वो क्या खोजती थीं कभी नहीं बताया उन्होंने.


उन्हें गुज़रे आज दो साल हो गए हैं. उनके जाने के बाद भी उनका शादी का कार्ड उसी बक्से में बंद है. एक दिन मैंने अपना फोटो फ्रेम भी उसी बक्से में डाल दिया. अगर मुझे पता होता कि वो बक्से में क्या ढूंढती थीं तो मैं वो भी बक्से में डाल देता.


मुझे हमेशा अफ़सोस रहेगा कि तुम उनसे मिल नहीं सकीं.

Thursday, January 6, 2022

2021 की किताबें और पॉडकास्ट्स

किताबों के मामले में ये साल कुछ बहुत अच्छा नहीं रहा। इस साल बहुत थोड़ी सी किताबें पढ़ पाया। लेकिन इस साल पॉडकास्ट्स की दुनिया से मैं रूबरू हुआ। जो किताबें पढ़ीं और जो मेरे मनपसंद पॉडकास्ट्स हैं उनके नाम यहाँ दे रहा हूँ।

किताबें:

DraculaBram Stoker6
Malevolent RepublicK. S. Komireddi6
The God DelusionRichard Dawkins6
Apni Apni BimariHarishankar Parsai6
Black Holes: The Reith LecturesStephen Hawking5
Matdan Kendra Par JhapakiKedarnath Singh2
The Subtle Art of Not Giving a F*ckMark Manson5
The Home and the WorldRabindranath Tagore6
Rashmi RathiRamdhari Singh Dinkar6
A Passage to IndiaE. M. Forster6
Hell of a BookJason Mott6

1Boring - Left Midway
2Poor / Too Hard to understand
3Average
4Partly Good OR Language
5Good
6Must Read

पॉडकास्ट्स:

  1. Anurag Minus Verma Podcast (anurag minus verma)
  2. Brave New World -- hosted by Vasant Dhar (Data Governance Network)
  3. Cyrus Says (IVM Podcasts)
  4. george carlin (george)
  5. Highway On My Podcast (Newslaundry.com)
  6. History Daily (Noiser)
  7. History Of The Great War (Wesley Livesay)
  8. History of the Second World War (Wesley Livesay)
  9. Invisibilia (NPR)
  10. Know Your Kanoon (IVM Podcasts)
  11. Let's Talk About (Newslaundry.com)
  12. NL Charcha (Newslaundry.com)
  13. NL Hafta (Newslaundry.com)
  14. Newslaundry Conversations (Newslaundry.com)
  15. Prime Time with Ravish (NDTV)
  16. Puliyabaazi Hindi Podcast (IVM Podcasts)
  17. Real Dictators (Noiser Podcasts)
  18. Reporters Without Orders (Newslaundry.com)
  19. Secular Jihadists for a Muslim Enlightenment (Ali. Rizvi & Armin Navabi)
  20. Short History Of... (NOISER)
  21. Simblified (IVM Podcasts)
  22. StarTalk Radio (Neil deGrasse Tyson)
  23. Stop Press (Newslaundry.com)
  24. Teen Taal (Aaj Tak Radio)
  25. The Awful & Awesome Entertainment Wrap (Newslaundry.com)
  26. The Doug Stanhope Podcast (All Things Comedy)
  27. The Media Rumble podcast (Newslaundry.com)
  28. The Seen and the Unseen - hosted by Amit Varma (Amit Varma)
  29. Throughline (NPR)
  30. Unofficial Sources (The Ken)
  31. Urdunama (The Quint)
  32. Where Were You When (Where Were You When)

ये सारे पॉडकास्ट्स Google podcast पर असानी से मिल जाएँगे। Google podcast की app भी है।
NL Hafta और Let's Talk About पॉडकास्ट्स केवल paid हैं, बाक़ी सारे फ्री हैं।