Saturday, February 21, 2015

लकीरें




सीधी सही पर 
बड़ी पेचीदा होती हैं 
कभी कच्ची 
तो कभी 
गाढ़ी होती हैं 
लकीरें 

वो 
जो कच्ची होती हैं 
खिंचती हैं 
काली सी स्लेट पर 
और फिर जब 
स्लेट को छोड़ दो 
रख दो कहीं 
बस यूं ही ख़ुद-ब-ख़ुद 
धुंधला जाती हैं 
लकीरें 

कुछ लकीरें 
जब उकरतीं हैं 
रेत के अखाड़े  में 
और बनाती हैं पाला 
कबड्डी का 
हँसते हैं सभी 
खिलखिलाते हैं 
जब टूटती हैं साँसें 
और बद जाता है दाम 
फिर जब 
चलती है हवा अखाड़े में 
तो मिट जाते हैं 
पैरों, पंजों और एड़ियों के 
निशाँ 
और मिट जाती हैं 
लकीरें भी 

लेकिन एक बार हमने 
बनायी थी इक लकीर 
कबड्डी की नहीं 
सरहदों की लकीर 
उस रोज़ भी 
टूटी थीं साँसें 
लेकिन इस बार 
बहुत सा ख़ून भी 
उमड़ आया था उसमें 
जिसने 
कर दिया था गाढ़ा 
उन लकीरों को 

कुछ सरफ़िरों ने सोचा भी 
कि चलो लाते हैं 
कोई पोछा बड़ा सा 
और मिटा देते हैं 
इन लकीरों को 
पर 
लाल हो गया पोछा भी 
जब पड़ा वो 
उस लकीर पे 
तब 
और भी ताज़ी हो गयीं 
लकीरें 
और भी गाढ़ी हो गयीं 
लकीरें 

6 comments:

  1. बहुत खूब , मंगलकामनाएं आपको !

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  2. बहुत सुन्दर ....
    आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक मंगलकामनाएं!
    ब्लॉग लिखते रहिये ..

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