Saturday, December 15, 2018

गुच्छा




दशहरे का रावण धधक रहा था। चारों तरफ भीड़-भाड़। चारों तरफ खुशियां। लोग रावण को जलता देख रहे थे। लाउड स्पीकर पर रावण के कराहने की आवाजें चल रहीं थीं। मेले में एक ओर खाने-पीने के स्टॉल लगे थे, जहां लोग पाव-भाजी, चाट-फुलकी, आइसक्रीम का मज़ा ले रहे थे। वहीं दूसरी ओर बच्चों के गोल-गोल झूले, जहां से उठतीं उनके हंसने, रोने और चिल्लाने की आवाज़ें लाउड-स्पीकर की आवाज़ों से टकरा कर बिखर रहीं थीं। चकरी वाला अपनी चकरियों के हुनर से बच्चों को लुभा रहा था। Satan के लाइट वाले सींग लगाए एक दूसरा लड़का टिमटिमाते खिलौने बेच रहा था। टिर्र-टिर्र करता एक और आदमी अपनी आँखों में गुब्बारे लिए छोटे बच्चों को टूँगा रहा था। आसमान से उतरते बौने पैराशूट, उनमें डोलते बौने अमरीकी सैनिक और उनकी बौनी LMG माहौल को काफी प्रतीकात्मक बना रहीं थीं। जगह-जगह तैनात पुलिस वाले पान-गुटखे की पीकें थूक रहे थे, गपशप कर रहे थे और माँ-बहन की गालियां बक रहे थे।

उसने अपनी जेब से मली तमाकू की एक पुड़िया निकाली और एक फांक लेकर एक फाइबर की कुर्सी में बैठ गया। पीछे सटी दुकानों में लोगों को कहते सुना- 'इस बार का रावण पिछली बार से छोटा है'। अतीत की सबसे खास बात ये है कि वो खुद को हमेशा वर्तमान से बेहतर और गौरवशाली होने का वहम बनाए रखता है। हालांकि रावण तो उसे भी छोटा लग रहा था। उसे याद था कि सात-आठ साल पहले रावण जलाते समय हादसा हो गया था। उस हादसे में सुक्कू सतराम की मौत भी हो गई थी। वो उसके परिचितों में था। उसे याद था कि अगले दिन अख़बार में एक छोटे से कॉलम में उस हादसे की खबर छपी थी। सुक्कू सतराम का नाम नहीं दिया था, बस लिखा था- 'एक आदमी की मृत्यु'। अपने किसी परिचित के एक संख्या में सिमट जाने का अनुभव उसने पहली बार किया था। थोड़ा अजीब लगा था उसे। जो लोग ज़िंदा रहते कभी ज़्यादा जगह नहीं घेर पाते, मरने के बाद संख्याओं में सिकुड़ते जाते हैं। दो आदमी मरे, चार घायल, तीन शहीद, 15 ढेर। क्या रावण के कद का बड़ा होना सुखद है? क्या वाक़ई राम के लिए?

उस हादसे के बाद हर साल रावण की लंबाई घटने लगी। विचारों की इन्हीं गलियों में भटकता वो अपने बचपन के बारे में सोचने लगा। तब लाउड-स्पीकर वगैरह नहीं होते थे मेले में। वो लोग राम-लीला मैदान के पीछे के ग्राउंड में क्रिकेट खेलते थे। उसकी बैटिंग तब पूरे ज़िले में मशहूर थी। ये उसका क़स्बा था। जब वो यहाँ आया था तब दो या तीन साल का था। इस क़स्बे से इतर उसकी कोई याद नहीं है। आज पैंसठ सालों बाद वो दादा और नाना बन चुका था। 

फाइबर की कुर्सी समेत सारा मेला एक पृष्ठभूमि में सिमट गया। अतीत के लम्हें विचारों की गलियों से निकल कर मेले के कैनवस पर फोर-ग्राउंड में उछल-कूद करने लगे। जो वक़्त उसने यहाँ गुज़ारा था वो उस कैनवस पर आ कर रंग भरने लगा। उसकी शादी... उसकी पहली तनख्वाह... उसके बच्चों का इस दुनिया में आना... और फिर उनकी शादियाँ... और फिर उनके बच्चे जिन्हें गोदी में लेकर वो बाज़ार जाया करता था... जो बाद में उसके स्कूटर के आगे खड़े हो कर इसी मेले में आया करते थे। उसके माँ-बाप का रुख़सत होना। सब कुछ यहीं था। सभी उसे यहाँ पंडित-जी के सम्बोधन से बुलाया करते। उसे लगने लगा कि उसने एक अच्छी ही ज़िंदगी बिताई है।

वो कुर्सी से उठा और घर के लिए चल पड़ा। तभी उसे लगा कि भीड़ में उसकी जेब से कुछ गिर गया है। उसने ग़ौर से नीचे देखा लेकिन कहीं कुछ नज़र नहीं आया। उसने अपनी जेबें टटोलीं। जेब में उसकी चाबियों का गुच्छा नहीं था। उसने दोबारा नीचे देखा लेकिन गुच्छा नहीं दिखा। उसने सोचा कि चलो डुप्लिकेट चाबी वाले को बुला लेंगे और वो भीड़ से बाहर की ओर निकल पड़ा।

भीड़ से बाहर निकलते ही उसे एहसास हुआ कि अचानक सब कुछ शांत हो गया है। उसने पलटकर देखा तो उसे सब कुछ बदला-बदला सा लगा। खाने-पीने के स्टॉल दूसरे थे। झूले, गुब्बारे, खिलौने सब बदल चुके थे। आसमान से अमरीकी सैनिकों की बमबारी भी नदारद थी। उसने भीड़ को ज़ूम कर के देखा। उसे कोई भी चेहरा पहचाना हुआ सा नहीं लगा। वो चेहरे भी जब उसकी ओर देखते, अजनबी नज़रों से ही देखते। तभी उसकी नज़र पड़ी कि पार्किंग वाली जगह पर अब पार्किंग नहीं रही। मेन-गेट का नाक-नक़्श भी थोड़ा जुदा सा लगा। वो हिम्मत कर के मेन-गेट तक गया लेकिन बाहर की सड़क वो नहीं थी जिसे वो पहचानता था। सहसा उसे ख़याल आया कि वो दरअसल एक सपने के भीतर क़ैद है। उसे ये ख़याल भी आया कि चाबियों का गुच्छा गुम गया है और उस गुच्छे के गुम होने की वजह से ही उसके सपने में सब कुछ बदल गया है। उसने सपने में ही ये निष्कर्ष निकाला कि अगर वो गुच्छा उसे वापस मिल जाए तो सब कुछ पहले की ही तरह हो जाएगा। उसका अपना - जाना-पहचाना।

वो दोबारा उस अजनबी भीड़ की तरफ गया और घुटनों के बल बैठ कर अपना गुच्छा ढूँढने लगा। उसने तय किया कि चाहे कुछ भी हो जाये वो अपने लम्हों को इस तरह खोने नहीं देगा। ख़ाक छानते-छानते उसके घुटनों में रगड़ लग रही थी और उसे लगा कि शायद कुछ ख़ून भी बहने लगा हो। उसकी झुंझलाहट बढ़ती जा रही थी। घुटनों पर ही बैठे-बैठे उसने अपना सिर ऊपर की ओर घुमाया। उसने देखा कि भीड़ के सारे लोग एक घेरा बना कर उसे ही घूर रहे थे। उसी घेरे में उसे उसकी पत्नी भी नज़र आई। उसकी आँखों में एक शिकायत दिखाई दी। सालों पहले किसी छोटी-सी बात पर अपना रौब दिखाने के लिए जब उसने सभी के सामने अपनी पत्नी को पीटा था, उस बेइज्ज़ती की शिकायत। उसकी हिम्मत टूटने लगी। वो नज़रें झुका कर दोबारा मिट्टी टटोलने लगा। इस बार वो कुछ ढूंढ भी नहीं रहा था। उसे लगा कि शायद उसका वो गुच्छा अब उसे दोबारा कभी ना मिले। वो गुच्छा जिसमें उसने अपने मनचाहे लम्हों को चुन-चुन कर इकट्ठा किया था और उसे एक खुशनुमा ज़िंदगी का वहम दिया था। उसने सोचा कि अगर वो चाहे तो ज़ोर से अपने शरीर को झँझोड़ कर अभी इस सपने को तोड़ सकता है। उसने दोबारा चेहरा उठा कर देखा। गौरवशाली अतीत अब जा चुका था। उसकी पत्नी अब वहाँ नहीं थी।

तभी उसने फैसला किया कि वो मैदान से बाहर जा कर इन अजनबी गलियों में अपने नए मकां को ढूँढेगा। लम्हों का एक और नया गुच्छा बनाएगा। शायद एक गौरवशाली भविष्य। ये सोच कर जैसे ही वो उठा उसे मेन-गेट पर उसकी पत्नी दिखाई दी जो उसका इंतज़ार कर रही थी।

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