अब रोज़ तमाशा मैं नया देख रहा हूँ
हर शख़्स को हर शख़्स से ख़फ़ा देख रहा हूँ
सूरज भी लगा आज उदासी से है निकला
और शाम में भी दर्द नया देख रहा हूँ
हर मौत पे मुस्कान है, उत्सव का समां है
मैं दोस्तों का रंग जुदा देख रहा हूँ
इस दौर के इंसान की तहरीर क्या कहिए
हर आँख में बाज़ार छुपा देख रहा हूँ
तन्हाई के साहिल पे खड़ा हूँ मैं अकेला
लहरों में तेरा नाम लिखा देख रहा हूँ
अख़बार में भरमार-ए-इश्तेहार छपी है
सच का लहू बहता हुआ देख रहा हूँ
वो लौट के आया नहीं बरसों से मगर मैं
रस्ते में उसी की ही सदा देख रहा हूँ
मन्नतें मांगू भी तो किस मुंह से मैं मांगू
हर मोड़ पे लाचार ख़ुदा देख रहा हूँ
***