Friday, June 20, 2025

अब रोज़ तमाशा मैं नया देख रहा हूँ




अब रोज़ तमाशा मैं नया देख रहा हूँ
हर शख़्स को हर शख़्स से ख़फ़ा देख रहा हूँ

सूरज भी लगा आज उदासी से है निकला
और शाम में भी दर्द नया देख रहा हूँ

हर मौत पे मुस्कान है, उत्सव का समां है
मैं दोस्तों का रंग जुदा देख रहा हूँ

इस दौर के इंसान की तहरीर क्या कहिए
हर आँख में बाज़ार छुपा देख रहा हूँ

तन्हाई के साहिल पे खड़ा हूँ मैं अकेला
लहरों में तेरा नाम लिखा देख रहा हूँ

अख़बार में भरमार-ए-इश्तेहार छपी है
सच का लहू बहता हुआ देख रहा हूँ

वो लौट के आया नहीं बरसों से मगर मैं
रस्ते में उसी की ही सदा देख रहा हूँ

मन्नतें मांगू भी तो किस मुंह से मैं मांगू
हर मोड़ पे लाचार ख़ुदा देख रहा हूँ

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