Monday, May 12, 2025

कोई मंज़िल न निशाँ है मुझ में (ग़ज़ल)

कोई मंज़िल न निशाँ है मुझ में

इक सफ़र ही तो बस रवाँ है मुझ में

 

शोर बाहर का थमा तो समझ आया 

भीतर भी इक शहर है यहाँ मुझ में 

 

फिर आएगी बारिश, चली जाएगी 

बुझ न पाएगा वो धुआँ है मुझ में

 

ढूँढता रहा जिसे मैं यूं तमाम उम्र 

कहीं और नहीं वो यहाँ है मुझ में 


छोड़ दिया तूने जिसे पीछे कहीं 

वो लम्हा एक अब तक जवाँ है मुझ में 

 

जाना था मैंने जिसे अपना कभी

वो शख़्स भी अब लेकिन कहाँ है मुझ में 


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