अब बस ढोता हूँ तुम्हारी ग़ैर-मौजूदगी को
एक बोझे की मानिंद—
बोझा जिसे किसी ने एक हुक में पिरोकर
मेरी चमड़ी के ठीक नीचे टाँक दिया हो।
सांस दर सांस
तुम्हारे कर्ज़ में डूबता जाता हूँ,
हर कदम पर उठती है आहट
कहती है— “तुम क्यों? मैं क्यों नहीं?”
मेरा आधा जिस्म चलता है यहाँ-वहाँ,
ज़िंदा आदमियों, जानवरों और पेड़ों के बीच,
और आधा दफ़न है तुम्हारी चुप्पी में।
हर गुज़रता दिन मेरे कान में फुसफुसाता है,
याद दिलाता है— तुम नहीं हो।
मैं बुदबुदाता हूँ,
माफ़ी मांगता हूँ
अपने सीने में अब तक थड़-थड़ बजती धड़कन के लिए।
हर सपना तुम्हारी नींद में एक सेंध-सा लगता है,
जैसे तुम्हारे आँखें मूँदते ही
चुरा लाया था मैं तुम्हारा सारा जमा ख़ज़ाना,
और अब उसी में से
रोज़ निकाल कर एक-एक सिक्का
चुका रहा हूँ दाम—
सूरज का, सुबह का, सांस का।
हर सुबह उधारी की,
हर मुस्कान चोरी की।
तुम्हारा नाम उठाए,
परछाई ओढ़े,
बस खड़ा हूँ
एक मुसाफ़िर की तरह,
जो सफ़र में कहीं पीछे छूट गया है,
कि जिसके पैरों में बंधी हैं
ज़ंजीरें तुम्हारी ग़ैर-मौजूदगी की।
बहुत सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteमार्मिक
ReplyDeleteसुंदर भाव को छू लेती रचना !
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