पुराने मोड़ से रस्ते नए निकल जाते हैं
नए तजुर्बों से पुराने हल निकल जाते हैं
सच कहूँ तिरी बात से अब कोई गिला नहीं
ये तो आँसू हैं, बस यूं ही निकल जाते हैं
तमाम दुनियादारी में अब डूबते-उबरते
वक़्त कट जाता है दिन निकल जाते हैं
तेरे हाथ भी जोड़ने से कुछ न हुआ होता
जाने वाले तो हर बात पे निकल जाते हैं
इतना भी गुमान ना कर अपनी ख़ुदाई का
तमाम ख़ुदा आख़िर में पत्थर निकल जाते हैं
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बेहतरीन, लाज़वाब गज़ल।
ReplyDeleteसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २० दिसम्बर २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
वाह ! एक से बढ़कर एक अश्यार, आख़िरी पंक्ति को पढ़े बिना यह ख़्याल मन में आया था, हर पत्थर से कोई ख़ुदा निकल आते हैं
ReplyDeleteबहुत खूब 😊
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