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Saturday, February 13, 2021

वीडियो-गेम और परछाइयाँ

 


 

खरगोन, मेरा ननिहाल। उसी शहर में मेरी मम्मी का भी ननिहाल है जिसे सब लोग सरमण्डल का बाड़ा कहते हैं। बाड़ा अंग्रेजों के ज़माने की कोई सरकारी इमारत थी शायद। बीचों-बीच एक बड़ी इमारत थी और चारों तरफ चार बाड़े थे। दो आजू-बाजू, एक सामने और एक पीछे। चारों बाड़ों में काफी सारे कमरे थे जिनमें काफी सारे किरायेदार रहते थे। सरमण्डल के बाड़े के भीतर आने के लिए एक बड़ा लाल रंग का लकड़ी का किले-नुमा दरवाज़ा था। पीछे के बाड़े में गाय-भैंसें बांधी जातीं थीं।

मेरा बचपन मेरे दादाजी के ग़ैर-ज़रूरी अनुशासन (या डर?), पापा के ग़ैर-ज़रूरी अनुशासन (या डर?) और अपने ननिहाल की खिलंदड़ ज़िंदगी के बीच झूलता रहा। एक ओर जहां दादाजी के घर में रेडियो पर भी गाने नहीं चलते थे, वहीं दूसरी ओर मेरी मम्मी के ननिहाल में पूरा परिवार बड़े-बड़े स्पीकरों की तेज़ आवाज़ गानों पर देर रात तक नाचा करता था। अपने घर से जब कभी मैं ननिहाल जाया करता था तो एक क़िस्म की आज़ादी महसूस किया करता था। उन गलियों में लगता था कि जैसे दिन कभी गुज़रते नहीं थे, बस आ-आ के वहीं जमा होते जाते थे। भीड़ बढ़ाते जाते थे। और उसी भीड़ में फिर ख़ुद ही बिलबिलाते थे। कभी दुपहिया गाड़ियों पर चढ़कर गुर्राते थे। हॉर्न बजाते थे। फिर उन्हीं के आगे फुदक-फुदक कर बचते निकलते चलते थे। आवारागर्दी करते थे। अकड़ते थे। पान खा कर इधर-उधर थूकते थे। बेशर्मी से ठिठोली करते थे। बेवजह चिल्लाते थे। ज़ोर-ज़ोर से ताल ठोंककर हँसते थे और आखिर उन्हीं गलियों में अपनी बदहवासी समेटे, इधर-उधर भागते बेवकूफ़ पतंगों की तरह कहीं टकराकर ढह जाते थे। रात को लोहे के पतरे और टीन के शटर और लकड़ी के फाटक और चिकनी फ़र्शी के ओटले और तिरपाल के शेड और बिजली के खंबों से फड़फड़ाती चिन्दियाँ और आधी फटी इश्तेहारों की कतरनें सफ़ेद रंग की एक अनमनी ख़ामोशी ओढ़ाने की कोशिश करतीं। लेकिन अगली ही सुबह मस्जिदों के भोपुओं से निकलती अज़ाने उन चादरों को खींच देतीं थीं और उनकी आबादी में एक और दिन जोड़ देती थीं।

बरसात के मौसम में वो दिन काले छातों में अपने सिरों को दुबकाए, रबर की हवाई चप्पलों से गीली मिट्टी के छित्तों को उछालते फिरते थे। पुरानी इमारतों की पुरानी दीवारों पर काई की नई खेती करते थे। उनकी दीवारों पर सरक-सरक कर नक़्शे बनाते थे। कभी पतरे की छतों से रिस-रिस कर भीतर पतीलों में टपकते थे, कभी उन्हीं पतरों से शोर मचाते बाहर रखे ड्रमों में इकट्ठा होते थे। सरकारी बिजली के गुल होने पर उमस भरे अख़बारों के पंखे झलते थे, वर्ग-पहेली भरते थे और जामुन की दरदरी जीभ से बच्चों को चिढ़ाते थे।

गर्मी की छुट्टियों में वो सारे दिन जमा होकर आमों से भरी बाल्टियों के पानी में डूबे रहते और जिन्हें हमें बस निकाल-निकाल के चूसना होता और गुठली को जितनी ताक़त से दूर तलक फेंक सकते फेंकना होता। रात में छत पर बिछे गद्दों पर लेटकर आसमान तकना होता था। कभी एक दूसरे को डरावनी कहानियाँ सुनानी होतीं थीं, कभी टॉयलेट ह्यूमर पर गला फाड़-फाड़ कर हँसना होता था। शादियों के समय आनन-फानन जैसे चिरकुट गानों पर नाचना होता। और ये सब-कुछ साल-दर-साल, हर छुट्टियों में बस होता चला जाता था। लेकिन उन्हीं दिनों एक डॉक्टर ने एक ऑपरेशन में लापरवाही की और वे दिन जिनके बारे में लगता था कि कहीं नहीं जाएंगे, उनमेें से कुछ हमेशा के लिए अलविदा हो गये। 

जब हम छोटे होते हैं तो हम बहुत से काम ज़िंदगी में पहली बार करते हैं। और बहुत सी बार हम किसी के जैसे बनने की नकल करते हैं। और बहुत सी बार हम किसी के पिछलग्गू होते हैं। उसके जो हर चीज़ में आपको कूल लगता है। कोई होता है जिसके छोटे हो गए कपड़े पहनते हैं, जिसकी पतंग की घिर्री पकड़ते हैं, बेसिकली हर चीज़ में उसकी साइड-किक बनने की कोशिश करते हैं और साइड-किक होने में गर्व भी महसूस करते हैं। अक्सर लोगों का बड़ा भाई ये रोल प्ले करता है। मेरे लिए वो थे मेरी मम्मी के ममेरे भाई और मेरे (दूर के?) मामा। गोटू मामा। वो मुझसे कुछ ही साल बड़े थे। उनके घर के बाहर वाले कमरे में लकड़ी का एक बड़ा झूला था। वो स्केट्स पहन कर उसके इर्द-गिर्द रोल करते। मैं भी उनके स्केट्स ट्राय करता लेकिन गिर जाता। उसी कमरे की दीवार पर चॉक से तीन लाइने खींचकर विकेट बनाते और वन टिप वन हैंड क्रिकेट खेलते। Desperate खिलाड़ियों का सीमित जगह वाला ये जुगाड़ू क्रिकेट फ़ारमैट मैंने उन्हीं से सीखा था।

उनके मौसाजी अक्सर विदेशों का दौरा किया करते और कभी-कभी उनके लिए वहाँ से चॉकलेट और सिक्के ले आते। उन्होनें कुछ सिक्के मुझे भी दिये थे और शायद अभी तक मेरे मम्मी के पास कहीं रखे हों। सिक्कों पर तो लिखा होता था कि किस देश के हैं लेकिन चॉकलेट के बारे में उनका जवाब काफी जेनेरिक होता - फॉरेन की चॉकलेट हैं। उनके पास कैरम था जिसपर मैंने खेलना सीखा था। बहुत समय तक मैं उसे स्टाइगर बोलता था और उनकी चाल की नकल करने की भी कोशिश करता था।

एक बार उन्होनें गर्मी की छुट्टियों में कॉमिक्स किराए पर देने की दुकान खोली। उन्होनें उसके लिए बाक़ायदा एक ठप्पा सील भी बनवाई थी। उसपर उन्होनें उसे 'वाचनालय' लिखवाया था - अमित वाचनालय। वाचनालय मतलब लाइब्रेरी उन्होनें बताया था। तब मैंने कहा था कि वो पुस्तकालय होता है। उन्होनें बोला था कि वाचनालय मतलब ऐसी लाइब्रेरी जहां बैठकर पढ़ना होता हो। मैंने बोला था - 'लेकिन हमारे यहाँ कोई कहाँ बैठेगा?'। उसके पहले मैं कभी लाइब्रेरी नहीं गया था। हमारे स्कूल में भी कोई लाइब्रेरी नहीं थी। लेकिन यहाँ गर्मियों की छुट्टियों में अमित वाचनालय रोज़ शाम छः बजे खुल जाता। बाड़े के किलेनुमा लाल दरवाजे के बाहर काफी जगह थी। बस वहीं ज़मीन पर पानी छिड़क कर मई-जून की शाम को पहले थोड़ा ठंडा किया जाता और फिर दीवार से बंधी रस्सियों पर कॉमिक्स लटका दी जातीं। सामने एक दरी बिछा दी जाती और बाक़ी कॉमिक्स उसके ऊपर। एक कॉमिक्स एक दिन - किराया 25 पैसे। डाइजेस्ट - 50 पैसे। जब भी नया सेट आता तो कभी-कभी सील का ठप्पा मैं लगाता। महसूस होता कि कोई बहुत ज़रूरी ओहदे वाला काम हो। वाचनालय बंद होते-होते कोई न कोई कुल्फी वाला निकलता और हम लोग कुल्फी खाते।

उनकी एक पुरानी साइकिल थी नीले रंग की। उसकी हाइट इतनी कम थी की आसानी से चलाया जा सकता था। मैंने उसी से साइकिल चलाना सीखा था। बाद में उनके पास एक दूसरी नीले रंग की साइकिल आ गई थी सीधे हैंडल वाली जिसके आगे डंडे पर वो मुझे बैठा लेते थे और हम लोग वीडियो गेम की दुकान जाते थे। वीडियो-गेम भी मैंने उन्हीं के साथ खेलना सीखा था। काफी बाद में जब वो बीमार रहने लगे तब उनके कमरे में भी एक वीडियो गेम रखा रहता था। लेकिन तब उनके सिरहाने एक घंटी भी लगी होती थी कि वो मदद के लिए किसी को बुला सकें।

वो ड्राइंग करते थे। एक बार उन्होनें अपने कमरे में मुझे अपनी ड्राइंग्स दिखाईं थीं। मैंने भी देखा-देखी कॉमिक्स के कार्टून सामने रख कर कॉपी करना शुरू कर दिया। उन दिनों मेरी एक मौसी पेंटिंग सीखने जाती थीं और मैं भी उनके साथ उनकी क्लास पहुँच गया ड्राइंग सीखने। पहले ही दिन मुझे आई-ब्रो बनाने दी गई। मैं 2 दिन तक आई-ब्रो बना-बना के कंटाल गया और क्लास बंद हो गई। आज सोचता हूँ तो लगता है दरअसल मुझे ड्राइंग सीखना ही नहीं था। शायद मुझे बस उनके जैसा कूल बनना था। उनकी एक ड्राइंग जो उन्होनें मुझे दिखाई थी उसमें मोगली बघीरा की पीठ पर बैठा था और बघीरा एक लंबी छलांग लगा रहा था। बैक-ग्राउंड में नारंगी रंग का सूरज था। उनके जाने के कुछ सालों बाद मैंने वो ड्राइंग अपनी मम्मी की डायरी में चिपकी देखी। अगर डायरी अब तक उनके पास हो तो शायद वो ड्राइंग भी अब तक हो।

वो पतंग उड़ाते थे और क्या ख़ूब उड़ाते थे। बाक़ी सब लोग जब कोई पेंच काटते हैं तो कटी पतंग उड़ जाती है और गली के बच्चे उसे लूटते फिरते हैं। जितना मुझे याद है वो पेंच काट कर, कटी पतंग के ही चारों तरफ गोल-गोल अपनी पतंग घुमाते थे और कभी-कभी कटी पतंग के झूलते माँजे के सहारे उसे भी अपनी पतंग के साथ खींचकर उतार लेते थे और गली के लड़कों को लूटने का मौका नहीं देते थे। ये कला मैंने किसी और को दिखाते नहीं देखा। जब वो पतंग उड़ाते थे तो मैं बस घिर्री पकड़े खड़ा रहता था। जब पतंग दूर आसमान में पहुँच जाती तो वो मुझे भी पकड़ा देते। वो अपने दोस्तों के साथ पीछे के बाड़े में जा कर काँच से माँजा बनाते और मुझे सब बड़ा कूल लगता - ब्रेकिंग बैड के पिंकमन की तरह। वो आटे की लेई और चावल से पतंग चिपकाते मैं फूँक मार-मार के सुखाता। वो पतंग खरीदने जाते तो सर से बीच वाली लकड़ी दबा के देखते, मैं दोहराता। मुझे पता भी नहीं था कि वो देख क्या रहे हैं, लेकिन मैं भी वोही करता जो वो करते। एक बार इसी टोटके के चक्कर में मुझसे एक पतंग टूट गई। इससे पहले कि दुकान वाला देखता मामा ने जल्दी से मेरे हाथ से ले के उसके ढेर में वापस रख दी। हमारे पैसे बच गए।

उनके दादाजी ने एक शेर का शिकार किया था। उनके कमरे के बाजू में एक कमरा था जहां उस शेर के सिर को मसाला वगैरह भर के रखा हुआ था। उस कमरे में अंधेरा ही रहता था। मुझे उस शेर की मुंडी से बहुत डर लगता था। मैं बचपन से ही डरपोक था। एक बार वो मुझे उस कमरे में ले के गए थे। उन्होनें लाइट बंद कर दी और मुझे टार्च की रोशनी में उसकी आखें दिखाईं। मैंने पहली बार उसे इतने अंधेरे में देखा था और पहली बार मुझे डर भी नहीं लगा था।

उनके घर में एक कमरा था जिसे सब लोग सामने वाली खोली (या बीच वाली?) बोलते थे। पता नहीं क्यों। उस सामने वाली खोली में एक खिड़की थी जिसमें नीचे की तरफ एक छेद था। दोपहर में हम सारे खिड़की-दरवाजे बंद कर देते तब उस छेद से बाहर गुजरने वाले लोगों, साइकिलों, कुल्फी वालों की परछाइयाँ दिखतीं। हम लोग उसे पिक्चर (सिनेमा) बोलते थे। कभी-कभी हम लोग एक दो लोगों को बाहर फुटबॉल वगैरह से खेलने को बोलते और उनकी परछाई की पिक्चर देखते। घुप्प अंधेरा और दीवार पर तैरती परछाइयाँ। उनकी तबीयत ख़राब होने के बाद काफी समय वो उसी कमरे में रहे। एक पलंग, बाजू में उल्टी लटकीं बोतलें, एक घंटी, सामने वीडियो-गेम और परछाइयाँ।

वो दिसंबर '93 की एक सुबह थी। उनकी तबीयत ज़्यादा बिगड़ गई थी। मम्मी ने मुझे सुबह-सुबह उठाया था। जब मैं उनके कमरे में पहुंचा, वहाँ काफी लोग इकट्ठा थे। उनकी मम्मी उनके सिरहाने बैठीं थीं। उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं थे। मैं वहाँ थोड़ी देर खड़ा रहा। अचानक उनकी नाक से खून की दो धार निकलीं। उनकी मम्मी ने रुई से पोंछा और किसी तरह का कोई अतिरिक्त भाव नहीं दिया। शायद मन में उम्मीद रही हो। बाद में डॉक्टर ने बताया कि वो नहीं रहे। बाहर वाले कमरे का झूला हटाया गया और उन्हें वहीं लेटाया गया। मैंने पहली बार किसी को गुज़रते देखा था। दीवार पर तब कोई परछाई नहीं थी।

जिन दिनों के ना गुज़रने का भरोसा हो और जब वे गुज़र जाएँ तो क्या रह जाता है?
शायद साथ बीते चंद लम्हों की एक बहुत छोटी सी फेहरिस्त!!

Friday, November 28, 2014

इलाहाबाद में अस्थि विसर्जन

पिछले दिनों मेरी दादी का देहावसान हुआ था। हम लोग अस्थि विसर्जन के लिए इलाहाबाद गए थे। मैं पहली बार अस्थि विसर्जन के लिए गया था। इतना तो मुझे पता था कि ये कोई फिल्मों की तरह का अस्थि विसर्जन नहीं होगा जिसमें शाहरुख खान अकेले ही नदी में खड़े हो कर अस्थि प्रवाहित कर दे और डुबकी लगा ले। ये धार्मिक आडंबरों से ओतप्रोत कोई कार्यक्रम होगा, लेकिन मैं आडंबरों के परिमाण को देखना चाहता था। हिन्दी फिल्में तो यथार्थ से इतनी दूर होतीं हैं कि कभी नायक अपने पिता की मृत्यु में बाल भी नहीं देता। सिर्फ एक फिल्म मुझे याद है 'नेमसेक' जिसमें ऐसा हुआ था, लेकिन उसमें इसे महिमामंडित किया था और इसे हमारी जड़ों के साथ जोड़ा गया था।

हमें इलाहाबाद में संगम जाना था। मुझे चाचा ने बताया था कि हमें हाथी पंडा के पास जाना था। मैं उम्मीद कर रहा था कि जैसे ही हम वहाँ पहुंचेंगे पंडा हमें ऐसे घेर लेंगे जैसे रेल्वे स्टेशन के बाहर ऑटो वाले। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। हमारी गाडियाँ जैसे ही उस क्षेत्र में पहुँचीं, एक मोटरसाइकल वाले आदमी ने हमें रोका। वो कुछ पूछता इससे पहले ही चाचा ने बोल दिया- "हाथी पंडा"। वो बोला-"पीछे आओ"। और फिर हमारी गाडियाँ उसकी मोटर साइकल के पीछे चल पड़ी। माहौल किसी बड़े से हाट सा लग रहा था।  सभी पंडा लोगों के अलग अलग पंडाल थे। हर पंडाल में एक झण्डा लगा हुआ था जिसमें उस पंडा का चिन्ह था, किसी राजनीतिक पार्टी के चुनाव चिन्ह सरीका। भैंस, शेर, भालू, बैलगाड़ी, नाव, घोडा, यहाँ तक कि रेलगाड़ी और हवाईजहाज वाले पंडा भी थे। कुछ देर में हम हाथी वाले पंडा के पंडाल के आगे रुक गए। इनके पंडाल में हाथी का झण्डा लगा था। चाचा ने बताया कि ये लोग एक दूसरे के 'यजमान' नहीं हथियाते, जो जिस पंडा का यजमान है उसी के यहाँ जाता है।

पंडाल में मौजूद पंडा ने हमें तखत पर बैठाया। हमारे लिए चाय का ऑर्डर दिया गया। उन्हें बताया कि हम लोग गाँव अमखेड़ा, जालौन से आए हैं। मैं थोड़ा इधर उधर का माहौल देखने लगा। आगे एक बहुत बड़ा होटल सा लग रहा था। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि अगर ये पंडा लोग पीढ़ी दर पीढ़ी यही काम करते हैं तो आज तक इन्होंने अपने पक्के स्ट्रक्चर क्यों नहीं खड़े किए। हर जगह टाट, तिरपाल और कपड़ों के पंडाल बंधे हुए थे। बाद में किसी ने बताया कि ये ज़मीन होटल वालों की है और वो इस पर पक्का कुछ भी खड़ा नहीं करने देते। इन सबका भी ठेका होता है। जगह जगह दीवारों पर गंगा की सफाई के नारे लिखे थे- "गंगा दर्शन ही गंगा स्नान है"। लेकिन मुझे गंगा का काला पानी देख कर लग नहीं रहा था कि इस नारे का कुछ असर हुआ है। हो सकता है कि मैं बरसात के मौसम में आया था इसलिए पानी कुछ ज़्यादा ही गंदा लग रहा था। और वैसे भी भक्तों को केवल दर्शन से चैन थोड़े ही मिलेगा, स्नान तो वे करेंगे ही। हर पंडाल में कुछ बड़े बड़े लोहे के बक्से रखे थे। हाथी पंडा के यहाँ भी थे। इनमें यजमानों का लेखा जोखा था। मैं इधर उधर ताकने के बाद वापस आया तब तक एक बक्सा खुल चुका था और उसमें से एक मोटा सा लेखा निकल चुका था। लेखा के ऊपर एक खाकी हरे रंग का कवर भी था ताकि अंदर तक सीलन ना पहुंचे और लेखा पीढ़ियों तक चलता रहे। पंडा ने कवर हटाया, उसके ऊपर जालौन लिखा था। कुछ पन्ने पलटने के बाद उन्होने हमारा पन्ना खोज निकाला।

एक वंश को दो पेज आबंटित होते हैं। हमारे पन्ने के ऊपर हमारे दादाजी के दादाजी का नाम लिखा था। हमारे खानदान से सबसे पहले उनकी ही अस्थियों के विसर्जन के लिए उनके पुत्र इन हाथी वाले पंडाजी के यहाँ आए थे। लेखा में उन लोगों के नाम भी लिखे थे जो अस्थियाँ लाये थे और उन सभी लोगों के भी जो उन सभी उपस्थित लोगों के वंश को आगे बढ़ाने वाले थे। यानि उनके सभी पुत्रों के, और उनके पुत्रों के, और उनके पुत्रों के, इस तरह उनके पास पूरी वंशावली थी। मुझे भी कहा गया कि मैं भी अपना नाम लिखवा दूँ इस वंशावली में लेकिन मुझे आश्चर्य हुआ जब मेरा नाम पहले से ही मौजूद था। खैर मेरे चाचा ने अपने पोते का जो अभी 2 साल का है उसका नाम ज़रूर जुड़वा दिया। मेरी मम्मी ने मुझे अपनी बेटी का नाम लिखवाने के लिए कहा लेकिन - "औरतों का नाम नहीं लिखा जाता"। अब बारी आई इस बार के प्रयोजन की तो लिखवाया गया हमारी दादी का नाम और उनकी अस्थि विसर्जन में जो जो पहुंचा था उनका नाम। बुआ ने कहा मेरा भी नाम लिखो, ताऊजी ने दूर से ही कहा- "औरतों का नाम नहीं लिखा जाता"। ये बात बुआ को नागवार गुज़री। उन्होंने कहा- "अपनी माँ की अस्थि विसर्जन करने आए हैं तो नाम तो लिखेगा ही।" ताऊजी सरेंडर। ताना देते हुए बोले- "लिख दो भाई इनका भी नाम। औरतों का तो आजकल बराबरी का हिस्सा है।" बुआ बोलीं- "मैं कोई हिस्सा थोड़े ही मांग रही हूँ भाईसाहब, नाम ही तो लिखने को कह रही हूँ। माँ तो वे सबकी थी और आए भी सभी हैं।" मुझे मज़ा आ गया बुआ की इस बात पर। खैर बुआ का और शायद सभी महिलाओं का नाम लिखा गया। मैं यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि ये नाम वंशावली वाले नहीं थे बल्कि इस बाबत थे कि कौन-कौन व्यक्ति अस्थि विसर्जन करने आया है। वंशावली में औरतों का नाम नहीं लिखा जाता, मेरी बहन का नहीं लिखा गया ना ही मेरी बेटी का। अपनी बेटी का नाम लिखवाना मेरी प्राथमिकता भी नहीं थी। इसलिए मैंने बुआ की तरह कोई विरोध भी नहीं किया। खैर फिर शुरू हुई पूजा। चाचा तखत पर बैठे। पिंडदान वही करता है जिसने दाह संस्कार किया हो और दाह संस्कार सबसे बड़ा या सबसे छोटा पुत्र करता है। पिंडदान का पिंड आटे की एक बड़ी सी लोई की तरह होता है (शायद आटे की लोई न हो पर दिखता वैसा ही है) और उसकी पूजा की जाती है। पूजा के बाद जब हमने पिंड देखा तो उस पर तमाम सिंदूर, चावल, कलावा और बहुत कुछ चढ़ा था। अस्थियाँ जो एक प्लास्टिक की एक थैली में लायी गईं थीं उनकी भी कुछ पूजा हुई। पंडा मंत्र पढ़ते गए और बताते गए कि कैसे कैसे पूजा करना है।

दादी का जब दाह संस्कार किया गया था तो उनकी पैरों की बिछिया और हाथ की एक चूड़ी जो चांदी की थी, और नथ जो सोने की थी पंडित जी ने उतरवा दी थीं। उनको भी अस्थियों के साथ विसर्जित करना था। पंडा को वो सब आइटम भी दे दिये गए। पंडा ने बड़ी चतुराई से हाथ की छींगली उंगली में सोने की नथ दबा के बाकी चांदी के आइटम अस्थियों के साथ मिला दिये। बाकी किसी का ध्यान नहीं गया पर चाचा का ध्यान चला गया। चाचा ने पहले ही देख लिया था कि ये नथ उंगली में दबा रहा है और उन्होने पंडा से कहा भी कि लाइये मुझे दीजिये पर पंडा ने जल्दी जल्दी बाकी सारी चीज़ें मिला दीं और ऐसे बर्ताव किया जैसे उसने कुछ भी नहीं दबाया। चाचा ने बाद में हमसे कहा -"मैंने सोचा कि छोड़ो अब किसी न किसी को तो मिलना ही है पर गंगा का जल छू जाता और उसके बाद कोई ले लेता तो मुझे दुख नहीं होता।" अब बारी थी संगम तक जाने की। पंडा ने दो नाव बुक करवाईं हम लोगों के लिए। उसने हम से कहा- "आपको संगम तक जाना है और प्रतिव्यक्ति 10 रुपये से ज़्यादा नहीं देना है। नाव वाला बीच में और ज़्यादा माँगेगा पर आप सिर्फ इतना ही देना। संगम में स्नान करने का कुल 100 रुपया दे दीजिएगा। इससे ज़्यादा नहीं। संगम पर ही आपको अस्थि विसर्जन करना है। वहाँ पर पंडित लोग कुछ कुछ बोलेंगे उस पर ध्यान नहीं दीजिएगा। हर चीज़ का पैसा लगता है।" हम लोग दो नावों में चल दिये। पानी एकदम काला दिख रहा था। शायद बरसात की वजह से। हालांकि मैं स्नान का इच्छुक नहीं था पर अक्सर ही मैं रीती रिवाजों के बीच आस्तिकों और श्रध्द्धालुओं का दिल नहीं दुखाता जब तक कोई ठोस कारण ना हो। नाव में चढ़ने से पहले कई सारे डिब्बे खरीद लिए गए थे गंगाजल भरने को। उनकी कीमत शायद 20 रुपये प्रति डिब्बा थी।

नाव थोड़ी आगे चली तो केवट ने शुरू किया- "उस ओर से कानपुर से गंगा आ रही है और इस ओर से दिल्ली से जमुना आ रही है। वहाँ पर संगम है जहां आपको लकीर दिखाई दे रही है। इस घाट पर लेटे हनुमान जी का मंदिर है। उस घाट पर (मुझे याद नहीं किसका) किला है। सरस्वती इनके नीचे से बहती है जो दिखाई नहीं देती जैसे कि हवा है हमें महसूस होती है पर दिखाई नहीं देती, जैसे कि आवाज़ है सुनाई तो देती है पर दिखाई नहीं देती। वैसे ही सरस्वती है जो है तो पर दिखती नहीं।" फिर उसने बोला-"किसकी अस्थियाँ है?" ताऊजी ने बताया-"माँ की"। उसने कहा-"सबकी नैया पार लगाने वाले भगवान राम की नैया एक केवट ने पार लगाई थी आज आपकी माता जी की नैया ये केवट पार लगा रहा है। श्रद्धा से जो ठीक समझें दे दीजिये।" सब लोगों से एक सुर में कहना शुरू किया- "नहीं नहीं। अभी कुछ नहीं। जितनी बात हुई थी उतना ही देंगे।" केवट बोला- "अरे! अपनी माँ के कार्यक्रम के लिए आए हो, इतना नहीं कर सकते।" लेकिन उसका इमोशनल अत्याचार चल नहीं पाया। फिर वो बोला-"हाथी निकल गया भैया और तुम पुंछ पकड़ कर लटक गए!" उसकी बात सुन कर सब ठहाका लगा कर हंस पड़े।

संगम आया। चाचा ने थैली का मुंह खोला। बाजू में दो तीन लड़के पानी में गोता लगाने को तैयार खड़े थे। जैसे ही चाचा ने थैली पलटाई लड़के पानी में गोता लगा दिये। एक ने तो, जो बिलकुल बाजू में था, ऐसा गोता लगाया कि आधी अस्थियाँ तो शायद पानी के नीचे उसने ही लपक लीं। शायद उनमें से किसी को बिछियाँ और चूड़ी मिल गईं हों। नथ तो खैर पहले ही पंडा हड़प चुका था। संगम पर कई बड़ी बड़ी नावों ने आपस में मिल कर एक घेरा बनाया हुआ था। बीच घेरे में पानी के अंदर नीचे लकड़ी के पटिये बंधे थे, जो घेरे की नावों से बंधे थे। श्रद्धालुओं को अपनी नाव से इस घेरे वाली नाव पर आना था फिर पानी में डूबे उन पटियों पर उतरना था और डुबकी लगानी थी। सब ने बारी बारी से स्नान किया। मोबाइल से अस्थि विसर्जन की और गंगा स्नान की कुछ तस्वीरें भी उतारी गईं।

मैंने भी स्नान किया। हालांकि पानी देख कर स्नान करने का मन बिलकुल नहीं था, पर मैं बड़े बुज़ुर्गों से विद्रोही का मेडल नहीं जीतना चाहता था। वैसे भी पानी इतना गंदा था कि मेरे नहाने से पानी तो क्या गंदा होता उल्टे मुझे अपने ही गंदे होने का डर लग रहा था। स्नान करने के बाद एक आदमी जो वहाँ बैठा था मुझे हाथ में दूध का एक गिलास देते हुए बोला- "दूध अर्पित कीजिये"। मैं समझ गया कि ये इसके 10-20 रुपये माँगेगा। मैंने कहा- "नहीं ऐसे ही ठीक है"। दूध भी बस कहने को था। 90 प्रतिशत तो पानी था। कुछ लोग वहीं पर हवन भी करवा रहे थे। बाद में मुझे पता चला यहाँ हर चीज़ का ठेका होता है। संगम में पटिये लगा कर स्नान करवाने से लेकर दूध चढ़वाने और यहाँ तक कि गोता लगाने वालों तक का। ऐसा नहीं कि कोई भी जाये और गोता लगाकर अस्थियों में से सोना-चांदी लूटने लगे। फिर हम लोग वापस लौटने लगे। लौटने का मार्ग अलग था थोड़ा सा। शायद इन नाविकों में भी नम्बर सिस्टम चलता है। इसे अब सबसे पीछे लगाना था। जहां से लौटना था वहाँ का पानी थोड़ा उथला था। दो नावों में कुल तीन केवट थे। हमारी नाव में दो और दूसरी नाव में एक। उथले पाने की वजह से केवट के चप्पू (मुझे दूसरा शब्द नहीं पता) दलदल में फंस सकते थे। इसलिए केवट को उतार कर पानी में धक्का लगाना पड़ रहा था और दूसरा आगे से खींच रहा था। दूसरी नाव जिसमें महिलाएं थीं उसमें तो एक ही मल्लाह था और उसे तो अकेले ही नाव को धक्का भी लगाना पड़ रहा था और अकेले ही खींचना भी पड़ रहा था। पानी की धार भी उल्टी थी इसलिए मेहनत भी और ज़्यादा लग रही थी। खैर, हम लोग किनारे पहुंचे और केवट को चैन मिला। किनारे के दलदल भरे पानी में भी कई लोग मिट्टी टटोल रही थे। पन्नी में मिट्टी भरते फिर उसे टटोलते कि शायद कोई सोना, चांदी या सिक्के मिल जाएँ। दूसरी नाव किनारे पर आ रही पर एक आदमी इतना तल्लीन हो के मिट्टी टटोल रहा था कि उसे नाव दिखी ही नहीं। वो तो भला हो कि सबने शोर मचाया तो उसका ध्यान गया और वो नाव के रास्ते से हटा, नहीं तो नाव उस पर चढ़ने ही वाली थी। पापा ने केवट को 500 रुपये दिये तो केवट खुश हो गया। उसने इतनी उम्मीद नहीं की थी। पापा ने भी उसकी मेहनत देख कर उसे 500 दे दिये थे। वो काम वाकई बहुत मेहनत का था। फिर ताऊजी ने केवट से कहा- "अब तो पूंछ निकल गई भैया?" और फिर सब ने एक जोरदार ठहाका लगाया। मल्लाह भी मुस्कुरा दिया। फिर उसने बताया कि उन्हें जो पैसे मिलते हैं उनमें से आधे पैसे तो पंडा लोग ले लेते हैं। पंडाल में लौटते वक़्त कुछ भिखारी भी मिले लेकिन उन्हें हम में से किसी ने भी कुछ भी नहीं दिया।

हमारे ड्राइवर ने भी एक बिसलेरी की बोतल दी थी गंगा जल भर लाने को। सारे डिब्बे और बोतलें संगम पर ही भर लीं गईं थीं। पानी इतना काला था पीने की सोच भी नहीं सकते थे। लेकिन सारे बड़े लोग गंगाजल की तारीफ पर तारीफ कर रहे थे- "ये पानी इतना शुद्ध है कि कितने भी साल रखे रखो कभी कीड़े नहीं पड़ते। साधारण पानी को आप रख के देख लो, थोड़े ही दिनों में कीड़े पड़ जाएँगे। इसीलिए तो इसका महत्व है। दुनिया भर के वैज्ञानिक आश्चर्य करते हैं कि गंगा में ऐसा क्या है कि इसका पानी कभी खराब नहीं होता।"

खैर हम लोग वापस पहुंचे तो पंडा ने सबके हाथ में कलावा बांधा और 21000 रुपये की दक्षिणा मांग ली- "आपका हमारा साथ तो हमेशा का है। आप हमेशा हमारे यहाँ आते रहेंगे। पीढ़ियों का रिश्ता है। आपसे मांगना तो हमारा अधिकार है। देना आपकी श्रद्धा है। हमने तो बता दिया, अब आपकी जो मर्ज़ी हो दे दीजिये।" उसे कुल कितनी दक्षिणा दी, ये तो मुझे याद नहीं, लेकिन 21000 तो निश्चित रूप से नहीं ही दी थी। हमने फिर पंडा जी से बिदा ली। खाना हम लोग साथ लाये थे, वही जो उत्तर भारत में लगभग सभी लोग सफर में ले जाते हैं- पूरी, सब्जी, आचार और सेंव। पंडा ने बताया था- "आप लोग खाना लेटे हनुमान के मंदिर के बाहर जो मैदान है वहाँ बैठ कर खा लीजिये। लेकिन मंदिर के अंदर दर्शन के लिए मत जाइएगा। त्रयोदशी तक किसी का भी मंदिर में जाना वर्जित है।"

हम लोगों ने मंदिर के बाहर बने पार्क में चादरें बिछा कर खाना खाया। ताईजी और शायद चाची ने मंदिर के बाहर से ही कोशिश की कि शायद लेटे हनुमान के दर्शन हो जाएँ, लेकिन उन्हें वहाँ से हनुमानजी ने दर्शन नहीं दिये। मंदिर के अंदर तो जाने का प्रश्न ही नहीं था। पंडा ने पहले ही मना कर ही दिया था। खाने के बाद हम लोग वापस कटनी के लिए चल दिये।

गांधी जी की आत्मकथा 'सत्य के मेरे प्रयोग" में उन्होने अपनी काशी यात्रा का ज़िक्र किया है, जो मुझे प्रयाग (इलाहाबाद) यात्रा के इस पूरे घटनाक्रम में बराबर से याद आती रही। एक अंश इस प्रकार है:
संकरी, फिसलन वाली गली में से होकर जाना था। शांति का नाम भी नहीं था। मक्खियों की भिनभिनाहट तथा यात्रियों और दूकानदारों का कोलाहल मेरी सहन-शक्ति से परे था। जिस जगह मनुष्य ध्यान और भगवत-चिंतन की आशा रखता है, वहाँ उसे इनमें से कुछ नहीं मिलता। यदि ध्यान की ज़रूरत हो तो उसे अपने अंदर से पाना होगा। मंदिर में पहुँचने पर दरवाजे के सामने बदबूदार सड़े हुए फूल मिले। अंदर संगमरमर का बढ़िया फर्श था लेकिन किसी अंध श्रद्धालू ने उसे रुपयों से जडवाकर खराब कर डाला था और रुपयों में मैल भरा था।
दक्षिणा के रूप में कुछ चढ़ाने की मेरी श्रद्धा नहीं थी। इसलिए मैंने सचमुच ही सिर्फ एक पाई चढ़ाई, जिससे पुजारी पंडाजी तमतमा उठे। उन्होने पाई फेंक दी। दो-चार गालियां देकर बोले- "तू यों अपमान करेगा तो नर्क में सड़ेगा।" मैं शांत रहा। मैंने कहा- "महाराज, मेरा तो जो होना होगा सो होगा, पर आपके मुंह से गाली शोभा नहीं देती। यह पाई लेनी हो तो लीजिये, नहीं तो यह भी हाथ से जाएगी।" "जा तेरी पाई मुझे नहीं चाहिए", कहकर उन्होने मुझे दो-चार और सुना दीं। मैं पाई ले कर चल दिया। मैंने माना कि महाराज ने पाई खोई और मैंने बचाई। लेकिन महाराज पाई खोने वाले नहीं थे। उन्होने मुझे वापस बुलाया और कहा- "अच्छा, धर दे। मैं तेरे जैसा नहीं होना चाहता। मैं ना लूँ तो तेरा बुरा हो।" मैंने चुपचाप पाई दे दी और लंबी सांस लेकर चल दिया। इसके बाद मैं दो बार काशी-विश्वनाथ के दर्शन कर चुका हूँ, लेकिन वह तो 'महात्मा' बनने के बाद। इसलिए 1902 के अनुभव तो फिर कहाँ से पाता। मेरा 'दर्शन' करने वाले लोग मुझे दर्शन क्यों करने देते? 'महात्मा' के दुख तो मेरे जैसे 'महात्मा' ही जानते हैं। अलबत्ता, गंदगी और कोलाहल तो मैंने पहले जैसा ही पाया।
किसी को भगवान की दया के बारे में शंका हो, तो उसे ऐसे तीर्थ देखने चाहिए। वह महायोगी अपने नाम पर कितना ढोंग, अधर्म, पाखंड इत्यादि सहन करता है? उसने तो कह रखा है
ये यथा मां पद्यन्ते तांस्तथैव भ्जाम्यहम
अर्थात 'जैसी करनी वैसी भरनी'। कर्म को मिथ्या कौन कर सकता है? फिर भगवान को बीच में पड़ने की ज़रूरत ही क्या है? उसने तो अपना कानून बनाकर अपना पल्ला झाड लिया।

लौटते वक़्त गाड़ी में मुझे बड़े ताऊजी की बात याद आई, जो उन्होने नाव में अपना पर्स खंगालते हुए बोली थी- "कोई चिल्लर मिले तो गंगा जी में डाल दें।"

Friday, October 10, 2014

वो औरत

अभी पिछले दिनों मेरे दादी का इंतकाल हुआ। अस्थियाँ विसर्जित करने इलाहाबाद जाना था। घर की महिलाएं भी जाने की तैयारियां कर रहीं थीं। तभी किसी ने कह दिया - "औरतें अस्थि विसर्जन में नहीं जातीं"। हालांकि पहले हमारे ही घर में औरतें अस्थि विसर्जन में जा चुकीं थीं, लेकिन अक्सर ही पुरुष अपनी मर्ज़ी से औरतों के लिए नियम बना दिया करते हैं। खास तौर से प्रतिबंधित करने वाले। लेकिन मुझे देख कर खुशी हुई कि घर की औरतों ने अपना पक्ष रखा कि पहले जब हम जा चुके हैं तो अचानक ये नियम कैसा? और अपने माँ की अस्थि विसर्जन करने ही तो जा रहे हैं इसमें गलत क्या है? परिणाम स्वरूप घर के बड़े लोगों ने आपसी बातचीत में उनकी बात मान ली और तय हुआ कि सभी लोग चलते हैं। तीन गाडियाँ की गईं और सब लोग चल दिये।

हम लोग कटनी (म॰प्र॰) से इलाहाबाद जा रहे थे। ये घटना मैहर से कुछ दूरी पहले हुई। ड्राइवर ने गाड़ी धीमी की। हम सब लोग बाहर को देखने लगे। सड़क पर ढेर सारे वाहन पहले से ही रुके खड़े थे। ड्राइवर बोला -"लगता है चक्का जाम है आगे।" हम लोग उत्सुकता से देखने लगे। देखा तो सड़क के बीचों बीच बड़े बड़े पत्थर रख कर के रास्ता रोका गया था। सड़क के बीचों बीच एक आदमी पड़ा था और औरत उसके बाजू में बैठी रो रही थी। उसके चेहरे से ही गरीबी दिखाई दे रही थी। शायद गाँव के दलित आदिवासी थे। उनके चारों ओर कई सारे आदमी भी खड़े थे। दूसरी कई गाडियाँ भी चक्के जाम में फंसी हुईं थीं। उन में से कई लोगों को शायद जल्दी भी थी। कई लोग झल्लाए हुए भी थे। ड्राइवर ने काँच खोला। एक आदमी बताने लगा- "दारू पी के झगड़ा कर रहा था। पड़ोसी ने मार दिया। अब मर गया तो औरत ने सड़क जाम कर के रखी है। साले मादरचोद पहले तो दंगा करते हैं फिर पब्लिक को परेशान करते हैं। अरे जाओ यहाँ से, शमशान ले के जाओ उसे, यहाँ रोड में पड़े रहने से क्या मिलेगा।"

मैं भी गाड़ी से उतर आया। अचानक औरत ज़ोर ज़ोर से रोने लगी। कोई बोला-"अभी शांत बैठी थी अभी रोने लगी। सब ड्रामा है मादरचोदों का।" तभी देखा कि आदमी हिल डुल रहा था। कोई बोला-"जिंदा है। मैं न कहता था ड्रामा कर रहे हैं साले।" मैं थोड़ा नर्वस भी था। कई बार ख़बरों में पढ़ा है कि चक्का जाम करने वाले हिंसक भी हो जाते हैं, तोड़ फोड़ भी करने लगते हैं। फिर हमारी गाड़ी तो ड्राइवर साहब ने सबसे आगे लगा रखी थी। धीरे धीरे मैं आगे बढ़ा और उस भीड़ का हिस्सा बन गया तो उनके चारों ओर खड़ी थी। कुछ गाँव के भी लोग थे। कुछ लोग नेतागिरी भी कर रहे थे। एक शख्स मुझे याद है जो नीले टाइप का सफारी सूट पहने था। पान से होंठ लाल थे और तिलक भी लगाए था। बुदबुदा बुदबुदा कर उस औरत और आदमी को निर्देश दे रहा था - "अभी ज्यादा न रो। अभी डीएम साहब नहीं आए और सुन रे ज्यादा हिल डुल ना।"

तभी कुछ पुलिस वाले आ गए। जहां तक मुझे याद है कोई महिला पुलिस नहीं थी और कोई नारेबाजी भी नहीं हो रही थी। सफारी सूट धीरे से बुदबुदाया - "टीआई आया है। अभी नहीं हटना जब तक डीएम न आ जाये।" इतना कह कर वो थोड़ा पीछे हो लिया। पुलिस वाले ने पूछा - "क्या बात है? चलो हम आ गए हैं अभी बताओ क्या हुआ और रास्ता छोड़ो।" सफारी सूट शायद इसी बात का इंतज़ार कर रहा था। तुरंत सामने आया -"जब तक डीएम साहब न आएंगे रास्ता नहीं खुलेगा।" पुलिस वाला सफारी सूट को नज़रअंदाज़ करते हुए फिर औरत से बोला - "क्या हुआ? पहले रास्ता छोड़ो फिर बात करते हैं।" औरत दहाड़े मार मार के रोने लगी। हालांकि मुझे मामला अभी तक पता नहीं था लेकिन औरत के रोने में बनावट नहीं लग रही थी। ऐसा लगा की किसी बात पर वो वाकई में भीतर तक दुखी थी। सफारी सूट बताने लगा- "इनकी बच्ची को एक आदमी भगा ले गया। हरियाणा का आदमी पता नहीं कहाँ ले गया। यहाँ की लड़कियों को भागा ले जाते हैं और बताते हैं की कई कई दिन तक पानी तक नहीं मिलता। ये बोलते हैं किसी जंगल में ले जाते हैं। फिर बेच देते हैं यहाँ की बच्चियों को। कई बार थाने गए पर कोई सुनवाई नहीं हुई। तीन दिन से आदमी परेशान है। खाना भी नहीं खाया। तबीयत खराब हो गई तो औरत क्या करे? अब जब तक डीएम साहब न आएंगे चक्का जाम नहीं हटेगा।" औरत रोये जा रही थी। एक आदमी, जो भी मेरे साथ खड़ा था, मुझसे बोला- "अब लड़की भाग गई तो हम लोग क्या करें? हमारा काहे रास्ता रोके हो? अपनी लड़की संभालती  नहीं और अब जब भाग गई तो हमारा रास्ता रोके हैं। हम क्या कर लेंगे?" मैंने उस से बहस करना ठीक नहीं समझा। नाबालिग लड़की को भगाना और अगवा करना एक ही बात है। लड़की को धोखे से अगवा किया गया था।

इतने में डीएम की गाड़ी आ कर रुकी। औरत और ज़ोर से रोने लगी। सफारी सूट फिर बुदबुदाया- "अभी डीएम साहब आ गए हैं। अभी ज्यादा नौटंकी न करना। हम बात करते हैं।" फिर उसने अपने साथ के सभी लोगों को ज़ोर से आवाज़ दी -"चलो रास्ता खोलो रे।" पत्थर हटने लगे। गाडियाँ साइड से मिली जगह से निकालने लगीं। औरत और आदमी अब भी रोड पर ही थे। हमारे ड्राइवर ने भी गाड़ी स्टार्ट की और निकालने लगा। मैं भी वापस उसमें बैठ गया। तभी मेरे ताऊजी ने कहा- "हरियाणा में लोग लड़कियों को पैदा होते ही मार डालते हैं। अब वहाँ लड़कियां काफी कम हैं। जब उनको शादी के लिए लड़कियां ही नहीं मिलतीं तो कई लोग दूसरी जगहों से लड़कियां ले जा के वहाँ जबरन शादियाँ करवाते हैं।" तभी ताईजी बोलीं- "अरे! पैसे वैसे नहीं मिले होंगे सोई ये ड्रामा है। ये लोग अपनी लड़कियों को बेच देते हैं ना!" मन में तो आया कि कहूँ जो अगर पैसों के लिए किसी को अपनी बच्ची बेचना पड़ रहा है यही क्या कम ज़ुल्म है? फिर मुझे उस औरत का चेहरा याद आया जो गाड़ियों की धूल में अब तक ओझल हो चुका था। वे आँसू नकली कतई नहीं थे। मैंने ताईजी से इतना ही कहा- "सभी लोग थोड़े ही बेचते होंगे। कुछ लड़कियां कभी अगवा भी तो की जा सकतीं हैं।"

...और इसके बाद हम में से किसी ने इस बारे में बात नहीं की। बहुत देर से गाड़ी बंद होने से भीतर गर्मी काफी बढ़ चुकी थी। ड्राइवर ने एसी ऑन कर दिया।




PS:
मुझे नहीं मालूम फिर क्या हुआ? पुलिस ने कोई कार्रवाई की या नहीं। लेकिन मैंने बाद में इंटरनेट पर इस बाबत गूगल किया:

http://www.dnaindia.com/india/report-sex-ratio-in-haryana-worst-among-all-states-1829031

http://timesofindia.indiatimes.com/city/gurgaon/UN-report-highlights-grim-scenario-of-child-trafficking-in-Haryana/articleshow/20995848.cms


Friday, June 13, 2014

मामला कब ठंडा होगा?



पिछले इतवार की बात है। रात के करीब साढ़े ग्यारह पौने बारह बज रहे होंगे। हम लोग अपने घर में सोने की तैयारी में थे। तभी मेरे ढाई साल की बेटी ने पानी मांगा और मेरे पत्नी रसोई की तरफ पानी लेने बढ़ी। मैं बेडरूम में ही अपनी बेटी के साथ था। तभी मेरे पत्नी ने ज़ोर ज़ोर से आवाज़ दी -
"अभिषेक ! अभिषेक !"
आवाज़ ऐसी कि ज़ोर की भी और धीरी भी। कुछ ऐसी कि जब इंसान चाहता तो है ज़ोर से बोलना लेकिन कोई दूसरा ना सुन ले इस कर थोड़ी दबा कर भी बोलता है। चूंकी मैं बेडरूम में था मैंने वहीं से पूछा -
"क्या हुआ?"
उसने पलट कर बोला - "जल्दी आओ"।
मैं जल्दी से हॉल में पहुंचा। उसने कहा - "सुनो"।
हम लोग अपने हॉल में दीवार से सटे सोफ़े के नजदीक आ गए। दीवार पर बनी एक खिड़की से बाहर झाँकने लगे। बाहर शोर शराबे की आवाज़। कुछ औरतें शायद रो रहीं थीं। आदमियों की भी आवाज़। कुछ स्पष्ट सुनाई नहीं दे रहा था बस हो हो हा हा की तरह का कुछ शोर सुनाई दे रहा था। मैंने तुरंत अपने घर की तरफ देखा। हॉल की लाइट बंद थी। बेडरूम की लाइट भी बंद थी। बेडरूम में जो अटैच बाथरूम था उसकी बत्ती ज़रूर जल रही थी। मैंने तुरंत दौड़ कर बाथरूम की लाइट बंद की। मैं जिस इलाके में रहता हूँ वहाँ हिन्दू मुस्लिम दोनों रहते हैं। रहते क्या हैं काफी अच्छे से रहते हैं। आस पास दुकाने भी हिंदुओं और मुसलमानों दोनों की हैं। एक बाजू वाले पड़ोसी हिन्दू और दूसरे वाले मुस्लिम हैं। मेरे तो मकान मालिक भी एक मुस्लिम हैं। बाकी कोई विचार मेरे दिमाग में नहीं आया। अभी चंद रोज़ पहले ही एक मुस्लिम को पुणे में जिस तरह दाढ़ी बढ़ाने और टोपी पहनने की वजह से मार दिया गया था वही घटना मेरे दिमाग में सबसे पहले आई। लगा कि यहाँ भी तो कुछ हो नहीं गया। हालांकि बैंगलोर में इसकी उम्मीद ना के बराबर थी लेकिन फिर पुणे में भी तो उनके मोहल्ले वाले यही कह रहे थे कि वहाँ भी सब सामान्य हुआ करता था। लोग अच्छे से रहते थे। वो लड़का भी सॉफ्टवेअर इंजीनियर था। बाहर से आए लोगों ने किया जो किया और वो भी फेसबुक की किसी सामाग्री को ले कर के जिसके बारे में बाद में बताया गया कि वो फ़र्ज़ी थी। हालांकि बाहर के शोर में किसी तरह की कोई नारेबाजी नहीं थी लेकिन शायद दिमाग में नारेबाजी उठ खड़ी हुई थी। गौर से सुना कि कहीं कोई हर हर महादेव या जय श्रीराम या अल्लाह हो अकबर के नारे तो नहीं। नहीं, ऐसे कोई नारे नहीं थे। फिर भी मैंने अपनी पत्नी से कहा -
"पीछे की तरफ जाओ। आना (मेरी बेटी) को भी साथ ले जाओ। बिलकुल आवाज़ ना करना। रसोई की लाइट भी बंद कर दो।"
वो मेरी बात मानते हुए पीछे की ओर चल पड़ी बच्ची के साथ। मैं धीरे से दरवाजे पर आया। बिलकुल धीरे, बगैर किसी आवाज़ के दरवाजा खोला। हमारे घर में दरवाजे के बाहर एक चैनल है जिसे सुरक्षा की दृष्टी से मकान मालिक ने बनाया था। उसमें रात में हम लोग ताला डाल के सोते हैं। मैंने चैनल का ताला नहीं खोला। तभी मेन गेट से पार मेरी निगाह एक आदमी पर पड़ी । वो आराम से टहलता हुआ चला जा रहा था। तब मुझे समझ आया कि कोई 'वैसी' बात नहीं है। मैंने चैनल खोला फिर मेन गेट। बाहर आया, देखा - पड़ोस के आगे वाले अपार्टमेंट में शायद किसी की अचानक तबीयत खराब हो गई थी और उसी वजह से हो हल्ला मचा था। उनकी ही पत्नी या बच्चे रो रहे थे और आदमी लोग गाड़ी निकाल के उन्हें अस्पताल ले जा रहे थे।

कुछ समय बाद में जब मैं वापस घर आया और अपनी पत्नी और बच्ची के साथ बैठा था तो महसूस किया उस दहशत को जिसमें थोड़ी देर पहले क़ैद था। बाद में एक दफा उन लोगों का भी खयाल आया जिनके घर के बाहर कोई भीड़ सच में आई थी। हम सभी लोगों में असुरक्षा कितनी ज़्यादा भीतर तक पैठ चुकी है। काफी देर तक हम लोग यही चर्चा करते रहे। दूसरे दिन समाचारों में पता चला कि पुणे में मुसलमानों ने दाढ़ी हटा ली है और टोपी भी कुछ दिनों के लिए नहीं पहनने का फैसला किया है। तब तक जब तक मामला ठंडा ना हो जाये। आखिर ये मामला कब ठंडा होगा?