Friday, April 4, 2014

चल जाने दो



कब से आख़िर तपते-तपते झुलस गया होगा 
मेरे हिस्से का जो सूरज ढलता है ढल जाने दो 

भाले,बर्छी और कटार, बहुत बना लिए सबने 
ये लोहा जो वीणा में, ढलता है ढल जाने दो 

ज़मीर को अपने बेच कर, ऊंचे महल जब बनवाये  
ईमान का भी जो थोड़ा कुछ, फलता है फल जाने दो 

मैं तो आँखों देखी कहता, तुम जानो अपने दिल की 
मेरा कहा अगर किसी को, खलता है खल जाने दो 

मुजरिम जब अब मान लिया है, बिना किसी सुनवाई के 
फैसले का जो दिन भी गर, टलता है टल जाने दो  

चलता है धड़ल्ले से, अब जब काला पैसा भी 
किसी ग़रीब का खोटा सिक्का, चलता है चल जाने दो 

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