मेरे हिस्से का जो सूरज ढलता है ढल जाने दो
भाले,बर्छी और कटार, बहुत बना लिए सबने
ये लोहा जो वीणा में, ढलता है ढल जाने दो
ज़मीर को अपने बेच कर, ऊंचे महल जब बनवाये
ईमान का भी जो थोड़ा कुछ, फलता है फल जाने दो
मैं तो आँखों देखी कहता, तुम जानो अपने दिल की
मेरा कहा अगर किसी को, खलता है खल जाने दो
मुजरिम जब अब मान लिया है, बिना किसी सुनवाई के
फैसले का जो दिन भी गर, टलता है टल जाने दो
चलता है धड़ल्ले से, अब जब काला पैसा भी
किसी ग़रीब का खोटा सिक्का, चलता है चल जाने दो
शुभ प्रभात
ReplyDeleteपसंद आई आपकी रचना
सादर
वाह क्या खूब लिखा है अभिषेक भाई...
ReplyDeleteसुन्दर रचना।। सादर धन्यवाद।।
ReplyDeleteनई कड़ियाँ : अप्रैल माह के महत्वपूर्ण दिवस और तिथियाँ
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वाह लिखा है अभिषेक भाई...
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