Monday, March 27, 2017

आठ छोटी बेचैन अकविताएं




दिलों की लकड़ी 
शायद
गीली हो चुकी
धुआँ तो खूब ही करती है
पर
धधकती नहीं अब

***

एक टुकड़ा बादल
तलाशती हैं आँखें
गुज़रते घने बादलों में
आज भी

***

यूं तो
रोज़ ही मरते हैं
हम सभी
एक बित्ता
अपने भीतर ही
और
उस अंश के निमित्त
दो बूंद नमकीन सी
टपका भी देते हैं
और बढ़ जाती है आगे 
ज़िंदगी

***

हर आदमी 
अपने भीतर 
एक 
अनुकूल संसार 
बनाए रखता है
प्रत्यक्ष संसार से 
किनारा कर 
उसमें 
शरण पा सकने के लिए

***

ये 
हमारे आकाश का नहीं
खिडकियों का भेद है
और
हमारा 
ये समझना अभी बाकी है

***

कोई अभिमन्यु
फँस रहा है
किसी 
चक्रव्यूह में 
मेरे भीतर
शायद

***

ज़िंदगी में कई बार 
प्रश्न नहीं 
बल्कि 
उत्तर
सामने आकर 
खड़े हो जाते हैं
वे उत्तर 
जिनके प्रश्नों से 
हम मुंह चुराने को 
अभिशप्त हैं

***

कविता मर गयी
नदियाँ सूख गयीं
मानस 
खड़ा देख रहा
धर्मों के आडम्बर की 
ओट से


4 comments:

  1. अतीत में की गईं गलतियां हमेशा भविष्य में दुःख का कारण बनतीं हैं। सटीक व सुंदर अभिव्यक्ति !

    ReplyDelete
    Replies
    1. वर्तमान में की गई गलतियां भी. शुक्रिया ध्रुव भाई

      Delete
  2. बहुत शानदार

    ReplyDelete