Friday, June 20, 2025

अब रोज़ तमाशा मैं नया देख रहा हूँ




अब रोज़ तमाशा मैं नया देख रहा हूँ
हर शख़्स को हर शख़्स से ख़फ़ा देख रहा हूँ

सूरज भी लगा आज उदासी से है निकला
और शाम में भी दर्द नया देख रहा हूँ

हर मौत पे मुस्कान है, उत्सव का समां है
मैं दोस्तों का रंग जुदा देख रहा हूँ

इस दौर के इंसान की तहरीर क्या कहिए
हर आँख में बाज़ार छुपा देख रहा हूँ

तन्हाई के साहिल पे खड़ा हूँ मैं अकेला
लहरों में तेरा नाम लिखा देख रहा हूँ

अख़बार में भरमार-ए-इश्तेहार छपी है
सच का लहू बहता हुआ देख रहा हूँ

वो लौट के आया नहीं बरसों से मगर मैं
रस्ते में उसी की ही सदा देख रहा हूँ

मन्नतें मांगू भी तो किस मुंह से मैं मांगू
हर मोड़ पे लाचार ख़ुदा देख रहा हूँ

***

Monday, May 12, 2025

कोई मंज़िल न निशाँ है मुझ में (ग़ज़ल)

कोई मंज़िल न निशाँ है मुझ में

इक सफ़र ही तो बस रवाँ है मुझ में

 

शोर बाहर का थमा तो समझ आया 

भीतर भी इक शहर है यहाँ मुझ में 

 

फिर आएगी बारिश, चली जाएगी 

बुझ न पाएगा वो धुआँ है मुझ में

 

ढूँढता रहा जिसे मैं यूं तमाम उम्र 

कहीं और नहीं वो यहाँ है मुझ में 


छोड़ दिया तूने जिसे पीछे कहीं 

वो लम्हा एक अब तक जवाँ है मुझ में 

 

जाना था मैंने जिसे अपना कभी

वो शख़्स भी अब लेकिन कहाँ है मुझ में 


Thursday, March 27, 2025

ग़ैर-मौजूदगी



अब बस ढोता हूँ तुम्हारी ग़ैर-मौजूदगी को 

एक बोझे की मानिंद—  

बोझा जिसे किसी ने एक हुक में पिरोकर  

मेरी चमड़ी के ठीक नीचे टाँक दिया हो।  

सांस दर सांस  

तुम्हारे कर्ज़ में डूबता जाता हूँ,  

हर कदम पर उठती है आहट

कहती है—  “तुम क्यों? मैं क्यों नहीं?”


मेरा आधा जिस्म चलता है यहाँ-वहाँ,  

ज़िंदा आदमियों, जानवरों और पेड़ों के बीच,  

और आधा दफ़न है तुम्हारी चुप्पी में।  

हर गुज़रता दिन मेरे कान में फुसफुसाता है,  

याद दिलाता है— तुम नहीं हो।  

मैं बुदबुदाता हूँ,  

माफ़ी मांगता हूँ  

अपने सीने में अब तक थड़-थड़ बजती धड़कन के लिए।


हर सपना तुम्हारी नींद में एक सेंध-सा लगता है,  

जैसे तुम्हारे आँखें मूँदते ही  

चुरा लाया था मैं तुम्हारा सारा जमा ख़ज़ाना,  

और अब उसी में से  

रोज़ निकाल कर एक-एक सिक्का 

चुका रहा हूँ दाम—  

सूरज का, सुबह का, सांस का।  

हर सुबह उधारी की,  

हर मुस्कान चोरी की।


तुम्हारा नाम उठाए,  

परछाई ओढ़े,  

बस खड़ा हूँ  

एक मुसाफ़िर की तरह,  

जो सफ़र में कहीं पीछे छूट गया है,  

कि जिसके पैरों में बंधी हैं  

ज़ंजीरें तुम्हारी ग़ैर-मौजूदगी की।