जाम हो, शराब हो, पर ख़ुमारी न हो
ज़िक्र हो ज़ख़्मों का, तिरी शुमारी न हो
मिट्टी के भाव न बिके ज़िंदगी तिरा खज़ाना
अधूरी हसरतों का गर कारोबारी न हो
बड़ी मासूमियत से तिरे दर पे आए हैं हाकिम
अब ऐलान-ए-नाइंसाफी में इंतिज़ारी न हो
थक गई है अवाम भी वोटों की डुगडुगी से
ऐ ख़ुदा कभी तो तमाशे में मदारी न हो
ज़िक्र हो ज़ख़्मों का, तिरी शुमारी न हो
मिट्टी के भाव न बिके ज़िंदगी तिरा खज़ाना
अधूरी हसरतों का गर कारोबारी न हो
बड़ी मासूमियत से तिरे दर पे आए हैं हाकिम
अब ऐलान-ए-नाइंसाफी में इंतिज़ारी न हो
थक गई है अवाम भी वोटों की डुगडुगी से
ऐ ख़ुदा कभी तो तमाशे में मदारी न हो
वो कभी न बनाएंगे तुम्हें रहनुमा शहर का
जो मंदिर-मस्जिद करने की बीमारी न हो
जो मंदिर-मस्जिद करने की बीमारी न हो
वाह
ReplyDeleteबेहद शुक्रिया आपका 🙏
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिषेक जी.
ReplyDeleteतमाशे में मदारी नहीं होगा तो हम बंदरों को नचाएगा कौन? हम ही तो दर्शक हैं और हम ही तो तमाशा हैं.
Bahut Khoob Abhishek! Khastaur par akhiri ki do panktiyan...
ReplyDeleteउम्दा तमाशा और तमाशबीन।
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